आदिवासी काव्यालोचन का मुकम्मल आयाम

01-03-2024

आदिवासी काव्यालोचन का मुकम्मल आयाम

डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे (अंक: 248, मार्च प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: आदिवासी कविता चिन्तन और सृजन
लेखक: डॉ. पुनीता जैन
प्रकाशक ‏: ‎ सामयिक पेपरबैक्स, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली,110002
पृष्ठ संख्या: 544
मूल्य: ₹795.00 (पेपरबैक)

पुनीता जैन आरंभ से ही समाज के सबसे उपेक्षित, दबे हुए वर्ग के साहित्य की गंभीर अध्येता रही हैं। इनकी प्रतिबद्धता सबाल्टर्न या शोषित वर्ग के स्त्री पुरुषों के साथ रही है। वर्षों से वे दलित और आदिवासियों द्वारा रचित साहित्य का अध्ययन विभिन्न आयामों के साथ गंभीरता से कर रही हैं। यह घटना बहुत आश्वस्त करनेवाली इसलिए है कि वह अपनी वर्गीय सीमाओं के बाहर जाकर—डॉक्टर आंबेडकर जी के शब्दों में डी-कास्ट होकर शोषित, पीड़ित, व्यथित, दलित, नाकारे गए समूह के साहित्य के अध्ययन की ओर मुड़ गई हैं। इसलिए भी यह आश्वस्त करने वाली घटना है क्योंकि हिंदी पट्टी के अधिकांश सवर्ण आज आरक्षण विरोधी तो हैं ही, तो दूसरी ओर दलित और आदिवासियों की ओर हिक़ारत से तथा उनके साहित्य की ओर गुणवत्ता रहित साहित्य की दृष्टि से देखते हैं। उनके इस अध्ययन की ओर सवर्ण समाज गंभीरता से नहीं देखेगा, इसका अहसास होते हुए भी वे पूरे जीवट के साथ इस साहित्य के अध्ययन में डूबी हुई हैं; इसलिए मैं उनके साहस की सराहना करता हूँ। 

अभी हाल ही में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘आदिवासी कविता: चिंतन और सृजन’ सबाल्टर्न अध्ययन की परंपरा में एक सशक्त क़दम है। इसके पूर्व उनकी एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी दलित आत्मकथाएँ: एक मूल्यांकन’प्रकाशित हुई है; जिसमें उन्होंने हिंदी की दलित आत्मकथाओं का अत्यंत विस्तृत रूप से मूल्यांकन किया है। 

आलोच्य पुस्तक के पहले ही पृष्ठ पर उन्होंने समर्पण हेतु एक वाक्य लिखकर यह स्पष्ट किया है कि उनकी प्रतिबद्धता किस ओर है। “यह पुस्तक उस विचार को समर्पित है जो प्रकृति को बचाने के साथ खड़ा है” और प्रकृति को बचाने के लिए आज इस देश में सर्वाधिक सक्रिय आदिवासी समाज ही है। 

कुल 544 पृष्ठ में फैली हुई इस पुस्तक के आरंभिक चार प्रकरण आदिवासी जीवन की सहजता, प्रकृति प्रेम और सामूहिक जीवन को तथा आदिवासी साहित्य की अवधारणा, उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। यह चार प्रकरण 160 पृष्ठों में फैले हुए हैं। इनमें से पहले दो प्रकरण ‘आदिवासी जीवन दर्शन और विचार की आधार भूमि’ तथा ‘हिंदी में आदिवासी लेखन की भूमिका और परिदृश्य’ से संबंधित हैं। तीसरा लेख ‘मध्य प्रदेश का आदिवासी पुरखा साहित्य’ तथा चौथा प्रकरण ‘सबाल्टर्न इतिहास दृष्टि और आदिवासी साहित्य’ शीर्षक से है। शेष 380पृष्ठों में 22 आदिवासी कवियों की हिंदी रचनाओं का विस्तृत परीक्षण किया गया है। मतलब पहले पुनीता जी आदिवासी साहित्य की सैद्धांतिकी तैयार कर लेती हैं और उस सैद्धांतिकी के आधार पर रचनाओं का परीक्षण करती जाती हैं। जाने-अनजाने में वे आदिवासी साहित्य समीक्षा के मानदंड भी तैयार करती जा रही हैं और उन मानदंडों या निकर्षाें के आधार पर रचनाओं का परीक्षण करती हैं। अप्रत्यक्ष रूप से वे यह कह रही हैं कि आदिवासी साहित्य समीक्षा के मानदंड समकालीन या केंद्रवर्ती साहित्य के मानदंडों से भिन्न हैं। सिद्धांत और प्रयोजन दोनों का अद्भुत समन्वय इस ग्रंथ की विशेषता है। 

प्रकरण एक के आधार पर आदिवासी जीवन और साहित्य की विशेषताएँ इस प्रकार बनती हैं:

  1. प्रकृति प्रेम

  2. अन्यों के प्रति नकार भाव नहीं

  3. सहजीवन

  4. पर्यावरण असंतुलन के प्रति चिढ़

  5. जीवन-शैली में प्रकृति संबंधी अनुभवजन्य ज्ञान

  6. परंपरा के प्रति अगाध श्रद्धा

  7. सत्ता और शासन व्यवस्था जैसी वर्चस्ववादी शक्तियाँ इस समाज में नहीं हैं

  8. सामूहिकता, सहअस्तित्व और सहभागिता का सिद्धांत उनके जीवन कर्म का अविभाज्य अंग

  9. थोपे गए नैतिक धार्मिक मूल्य नहीं के बराबर बल्कि जीवन के सौंदर्य से उद्भूत मूल्यों का प्राधान्य। इस संदर्भ में घोटुल संस्था का परिचय वे देती हैं। 

  10. उनके जीवन में स्वार्थ केंद्र में नहीं है। 

ये दस आदिवासी जीवन की ही विशेषताएँ नहीं हैं अपितु उनके साहित्य की भी विशेषताएँ हैं। प्रकारांतर से ये आदिवासी साहित्य समीक्षा के मानदंड भी हैं। प्रकरण एक में पृष्ठ 17-18 पर पुनीता जी आदिवासियों के आदि धर्म की विवेचना करती हैं। आदिवासी जीवन-दर्शन को समझने के लिए उनके आदि धर्मगत आस्थाओं को भी समझ लेना ज़रूरी है, ऐसा वे मानती हैं। इस आदि धर्म की विशेषताएँ 1) परमेश्वर का सामाजिक स्वरूप (पिता-पितामह) यहाँ के जीवन में ईश्वर मनुष्य के साथ नातेदारी में बँधा है। 2) प्रकृति के विशिष्ट अवयव-पहाड़, नदी, जंगल आदि को परमेश्वर का प्रतीक मानना। 3) मनुष्य के अमरत्व में विश्वास 4) यहाँ पाप और पुण्य की व्याख्या समाज सापेक्ष है। समाज सम्मत काम पुण्य और समाज विरोधी काम पाप। उनके विश्वासानुसार सामाजिकता स्वर्ग है और असामाजिकता नर्क है। 5) यहाँ ईश्वर से जुड़ने के लिए बिचौलिए की ज़रूरत नहीं, इसलिए कर्मकांड नहीं। 

भारत की आदिवासी संस्कृति ऑस्ट्रिक और द्रविड़ संस्कृति से संलग्न है, इसे वे अनेक प्रमाणों द्वारा साबित करती हैं और यह स्थापना भी देती हैं कि इन पर आर्य संस्कृति को थोपने के प्रयास जारी हैं। उन पर आर्य संस्कृति हावी होती जा रही है। 

आदिवासी साहित्य की बुनियादी शर्त उसमें आदिवासी दर्शन का होना है इसलिए वे आदिवासी दर्शन का विस्तार से परिचय करा देती हैं। इस आदिवासी दर्शन के मूल तत्त्वों को वे पृष्ठ 42 से 43 में देती हैं। आदिवासी दर्शन की ये 15 बुनियादी शर्तें हैं इसे वे स्पष्ट करती हैं।

इस प्रकरण का समापन वे ‘आदिवासी साहित्य’ नामक पत्रिका के जनवरी-मार्च 2015 में पृृष्ठ 95 पर प्रकाशित एक लंबे वाक्य से करती हैं; “जिस साहित्य में प्रकृति की लय-ताल और संगीत का अनुसरण हो, संपूर्ण जीव जगत के प्रति कृतज्ञता हो, जो धनलोलुप और बाज़ारवादी हिंसा और लालसा का नकार करें, जहाँ सहानुभूति, स्वानुभूति के बजाय सामूहिक अनुभूति का प्रबल स्वर संगीत हो, और जो मूल आदिवासी भाषा में रचा गया हो; वही आदिवासी साहित्य है।”पृष्ठ (43) 

प्रकरण दो का शीर्षक है ‘हिंदी में आदिवासी लेखन की भूमिका और परिदृश्य’ आदिवासी कविता अक़्सर गीत के रूप में ही प्रकट होती रहती है। अर्थात् मौखिक साहित्य। क्योंकि “आदिवासी विश्व की कला परम्परा में गाने के लिए नाचना ज़रूरी है, नाचने के लिए बजाना ज़रूरी है, बजाने के लिए गाना ज़रूरी है और गाना, नाचना, बजाना परिवेश के बग़ैर सम्भव नहीं है। परिवेश यानी प्रकृति। इन सबके एक सुर और ताल में सज जाने पर ही गीतों की रचना होती है। इस प्रकार साहित्य सभी कला रूपों के सम्मिलन का अंतिम परिणाम होता है।”

आदिवासी साहित्य के स्वरूप को लेकर दो भिन्न प्रकार के मत हैं। एक ओर आदिवासी साहित्य की गंभीर अध्येता और आदिवासी कवयित्री वंदना टेटे मानती हैं कि आदिवासी भाषा में लिखा जा रहा साहित्य ही मूल आदिवासी साहित्य है। उनके यहाँ का ऑरेेचर अर्थात् ओरल लिटरेचर अर्थात् मौखिक साहित्य ही मूल आदिवासी साहित्य है। तो फिर इधर हिंदी या अन्य भारतीय भाषा में आदिवासियों द्वारा लिखे जा रहे साहित्य को क्या आदिवासी साहित्य नहीं मानें? तो दूसरी ओर यह भी मानना है कि आदिवासी दर्शन पर आधारित साहित्य आदिवासी साहित्य है। फिर वह आदिवासी भाषा में लिखा गया हो अथवा शिक्षित आदिवासी द्वारा प्रदेश की भाषा अपनाई गई हो। आदिवासी जीवन-दर्शन और संस्कृति भेदभाव मुक्त है। पृष्ठ (50) 

साहचर्य, संस्कृति और समानता यही इसका जीवन दर्शन है, और इसकी अभिव्यक्ति जिस आदिवासी कवि या लेखक की रचनाओं में मिलती है वह आदिवासी साहित्य है। उनके इस ग्रंथ से ही पता चलता है कि भारत में वर्तमान में 90 आदिवासी भाषाओं में साहित्य लेखन जारी है। और मुख्य साहित्य प्रवाह को इसका पता तक नहीं है। पुनीता जी भविष्य के ख़तरे की ओर इशारा भी करती हैं कि धीरे-धीरे आदिवासी साहित्य, साहित्य संरचना में पैठे ब्राह्मणवाद, पितृसत्ता और व्यक्तिवाद के वर्चस्व के गिरफ़्त में आता जा रहा है। (पृष्ठ 55) वे यह भी स्पष्ट करती हैं कि हिंदी आदिवासी साहित्य में विरासत की स्मृति और विस्थापन की पीड़ा व्यक्त हो रही है। पृष्ठ (56) 

आदिवासी साहित्य के केंद्र में व्यक्ति नहीं समूह मन है। पृष्ठ 57 पर वे लिखती हैं कि “जिस समाज में व्यक्ति और समुदाय का समन्वय होता है उस समाज की कविता छंदबद्ध होती है।” इसे स्वीकार करना कठिन है। छंदोबद्धता का सम्बन्ध उस काल के साथ है जब मौखिक परंपरा में अभिव्यक्ति होती थी और उस मौखिक परंपरा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी ले जाना ज़रूरी हो जाता था। तब छंदोबद्ध कविता की ज़रूरत थी। जब लेखन कला विकसित होने लगी तब छंदोबद्धता की ज़रूरत ख़त्म हो जाती है। 

अलबत्ता उनका यह मत पूर्णतया यथार्थ है कि जिस तरह दलित साहित्य की सशक्त अभिव्यक्ति आत्मकथाओं में हुई तो आदिवासी साहित्य की सशक्त अभिव्यक्ति काव्य क्षेत्र में हुई है। आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष समानता पर बल दिया जाता है। आदिवासी समाज पुरुष सत्ता द्वारा नियंत्रित नहीं है। परिणाम स्वरूप उनकी भाषाओं में चोरी, लूट, बलात्कार जैसे शब्द नहीं हैं। यह समाज व्यक्ति केंद्रित नहीं है, इसका यह प्रमाण है। 

पृष्ठ 63 पर वे मराठी के लेखक लक्ष्मण गायकवाड जी का उल्लेख आदिवासी समाज के अंतर्गत करती हैं, जो ठीक नहीं है। क्योंकि लक्ष्मण गायकवाड़ आदिवासी समाज से सम्बन्धित नहीं हैं, वे घुमंतू समाज के हैं। 

प्रकरण तीन में मध्य प्रदेश के आदिवासी पुरखा साहित्य का परिचय दिया गया है। मध्य प्रदेश के गोंड, कोरकू, बैगा, भील, बारेली, भिलाली, सहरिया, भीम्मा, भारिया और कोल आदिवासियों के लोक साहित्य को अनेक उद्धरणों के साथ विवेचित किया गया है। इनके लोक-गीत, लोकोक्तियाँ, पहेलियाँ बहुत यथार्थ और रंजक हैं। इसमें उनकी बुद्धिमत्ता झलकती है। इनके लोक गीतों में, लोकोक्तियों में, पहेलियों में प्रकृति के विविध रूप झलकते हैं इन्हें पढ़ते समय इस बात का एहसास होता है कि आदिवासियों को बुद्धू, निरक्षर, या असंस्कारित कहना कितना हास्यास्पद है। क्योंकि इन लोगों की बुद्धिमत्ता, निरीक्षण शक्ति, कल्पना शक्ति यहाँ व्यक्त हुई है। कल्पना शक्ति की उड़ान, व्यंग्य भरी दृष्टि, सामान्य घटना से असामान्य अर्थ देने की इनकी निरीक्षण शक्ति विलक्षण है। इनके किसी भी लोकोक्ति, मुहावरों या पहेलियों में नारी शक्ति का कहीं भी अपमान नहीं है। उल्टे नागरी भाषा की लोकोक्तियों, मुहावरों में स्त्रियों को अपमानित ही किया गया है। 

मध्य प्रदेश में स्थित विभिन्न आदिवासियों की मानसिकता और जीवन दृष्टि ही इसमें से नहीं झाँकती, पूरे भारत के आदिवासियों की स्वच्छ, शुद्ध, निष्पक्ष और प्रकृति प्रेम से भरी दृष्टि इसमें से झाँकती है। पुनीता जैन जी इसलिए बधाई की पात्र है कि उन्होंने इनके लोक गीतों का, लोकोक्तियाँ का, पहेलियों का इतना बड़ा समृद्ध ख़ज़ाना हम पाठकों को उपलब्ध कराया है। 

प्रकरण चार उपर्युक्त तीनों प्रकरणों से हटकर है। ग्राम्सी द्वारा प्रचलित शब्द सबाल्टर्न की इतिहास दृष्टि के आलोक में आदिवासी साहित्य को समझ लेने का प्रयत्न यहाँ हुआ है। डॉ. मैनेजर पांडे जी ने सबाल्टर्न के लिए हिंदी शब्द दिया है अधीन। शोषकों के अधीन रहने वाला समाज। उपेक्षित, शोषित, आर्थिक दृष्टि से परावलंबी समाज। रामदयाल मुंडा की स्थापना है कि भारत में आदिवासी समाज और नागर समाज के सम्बन्ध परस्पर लेन-देन के रहे हैं। संघर्ष के नहीं। परस्पर विरोधी नहीं। वे संस्कृत साहित्य के अनेक उदाहरण देकर इन दोनों में स्थित लेन देन को स्पष्ट करते हैं। अन्य प्रदेशों की तुलना में झारखंड के आदिवासी आरंभ से संघर्षशील और विद्रोही रहे हैं। इसे भी वे अनेक प्रमाणों द्वारा स्पष्ट करती हैं। 

ग्रंथ के दूसरे खंड का शीर्षक है “सृजन”। इसमें हिंदी में प्रकाशित 22 आदिवासियों के काव्य संग्रहों का विस्तृत परीक्षण किया गया है। पहला खंड 160 पृष्ठों में बिखरा है तो यह दूसरा सृजन खंड 380 पृष्ठों में। अनुमानतः प्रत्येक संग्रह का परीक्षण 15 पृष्ठों में किया गया है। प्रत्येक काव्य-संग्रह में व्यक्त अनुभूति, विचार, जीवन यथार्थ, वस्तु संसार, जीवन दृष्टि और प्रस्तुति (शिल्प) के आधार पर यह परीक्षण किया गया है। ये 22 कवि भारत के विभिन्न प्रदेशों के शिक्षित आदिवासी हैं। 

इस खंड का पहला विस्तृत लेख ‘आदिवासी कविता सृजन के आयाम’ शीर्षक से है। जिसमें कुल आदिवासी कविता के स्वरूप को उनकी कविताओं के आधार पर समझाने का प्रयत्न किया गया है। अनेक दृष्टि से यह पहला लेख अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। पृष्ठ 199 से आदिवासी काव्य-संग्रह का परीक्षण शुरू हो जाता है। 

हिंदी की प्रथम आदिवासी कवयित्री सुशीला सामद का समय तो स्वतंत्रता पूर्व काल का है। हिंदी के छायावादी काल के साथ है। वंदना टेटे की यही तो व्यथा है कि इस प्रतिभा संपन्न कवयित्री का उल्लेख हिंदी के किसी भी साहित्य इतिहास में नहीं किया गया है। उनकी कविता छायावादी कविता के अंतर्गत आती है। उनके दो काव्य संग्रह ‘प्रलाप’ 1935 और ‘सपनों का संसार’ 1948 में प्रकाशित हुए थे। अलबत्ता इनमें आदिवासी संवेदना नहीं है। परन्तु मुख्य छायावादी कविता के साथ वह जुड़ी हुई हैं, यह अपने में विशिष्ट बात है। बावजूद इसके छायावादी कविता की जब भी चर्चा होती है तब इनके नाम का उल्लेख तक नहीं किया जाता, इसका दुःख तो है ही, वर्चस्ववादी वर्ग के इतिहास में अधीनों की उपस्थिति प्रायः मौन ही रही है। 

इसके बाद शेष कवियों के काव्य-संग्रह का परीक्षण है। जिनमें दुलायचंद्र मुंडा, रामदयाल मुंडा, रोज़ केरकेट्टा, ग्रेस कुजूर, निर्मला पुतुल, महादेव टोप्पो, वंदना टेटे, सरिता बड़ाइक, फ्रांसिस्का कुजूर, अनुज लुगुन, जंसिता केरकेट्टा, चंद्र मोहन किस्कू, आदित्य कुमार मांडी, हरिराम मीणा, वाहरू सोनवणे, भगवान गव्हाडे, अन्ना माधुरी तिर्की, विश्वासी एक्का, पूनम वासम, जमुना बिनी तादर और तारों सिंदीक। इन 22 कवियों में 12 कवयित्रियाँ हैं, यह विशेष बात है। 

महाराष्ट्र के दो कवि वाहरु सोनवणे और भगवान गव्हाडे हैं। राजस्थान के हरिराम मीणा हैं। छत्तीसगढ़ के कवि अन्ना माधुरी तिर्की, विश्वासी एक्का और पूनम वासम हैं, जमुना बिनी तादर और तारों सिंंदीक पूर्वोत्तर भारत के हैं। इसके अलावा ‘अन्य आदिवासी काव्य हस्ताक्षर’ के अंतर्गत क़रीब दो दर्जन से अधिक कवियों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। 

इसका अर्थ यह हुआ कि इस ग्रंथ में हिंदी प्रदेश के साथ-साथ पूर्वोत्तर भारत, राजस्थान और महाराष्ट्र के उन कवियों की रचनाओं को लिया गया है जिन्होंने हिंदी में लिखा है। महाराष्ट्र के वाहरु सोनवणे की आदिवासी कविता का हिंदी में अनुवाद हुआ है। इस तरह हिंदी में लिखे आदिवासी साहित्य को पूरा न्याय देने का प्रयत्न पुनीता जैन जी ने किया है। एक ओर वे मौखिक साहित्य के गीतों का, मुहावरों का, विस्तार से विवेचन करती हैं तो दूसरी ओर हिंदी में लिखे हुए काव्य संग्रहों का। 

आदिवासी जीवन-दर्शन का, उनकी जीवन-शैली का, उनके मौखिक साहित्य का, उनके काव्य-संग्रहों का इतना विस्तृत विवेचन हिंदी में पहली बार उपलब्ध हो रहा है। हिंदी आदिवासी साहित्य को जानने समझने के लिए यह ग्रंथ अनिवार्य-सा है। एक अध्येता के नाते मैं पुनीता जैन का पुनः अभिनन्दन करता हूँ।

डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे, लातूर

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