आधुनिक रामकाव्य और पारसनाथ गोवर्धन की 'दंशित-आस्थाएँ’

01-10-2021

आधुनिक रामकाव्य और पारसनाथ गोवर्धन की 'दंशित-आस्थाएँ’

डॉ. इन्दु श्रीवास्तव  (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

आधुनिक काल सब कुछ अपने सिद्धान्तों की कसौटी पर प्रकाश कर उसका निरीक्षण परीक्षण करता है। यह किसी भी ऐसी बात को स्वीकारता ही नहीं जिसका कोई भी मापदंड ना हो। वह तर्क बुद्धि से शब्द को मानता है और इसी तर्क और बुद्धि की कसौटी पर अंधविश्वासों से उपजे और अवतारवाद का खंडन भी करता है। इस युग में वैज्ञानिक शिक्षा का प्रसार बुद्धिवाद की प्रधानता से जब अंधविश्वास के स्थान पर तर्क और बुद्धि का प्रभाव पड़ा तब शिक्षित और विचारवान मनुष्यों को ईश्वर और उसके अवतारवाद में अविश्वास होने लगा। साहित्य में भी आधुनिकता एक व्यापक अवधारणा है। समय के साथ-साथ मनुष्य के सोचने समझने का ढंग, उसके नैतिक और सामाजिक आदर्श, उसकी धार्मिक मान्यताएँ बदलती रहती हैं। विज्ञान और सभ्यता की दौड़ में बहुत आगे पहुँचे हुए देशों की अपनी अलग आवश्यकताएँ और अपेक्षाएँ हैं। 

राम काव्य भारतीय चिंतन का मेरुदंड है जिससे कला, साहित्य, दर्शन और मनोविज्ञान की अवधारणाओं के सूत्र जुड़ते और प्रेरणा पाते हैं। 'राम' शब्द का प्रयोग निर्गुण संत कबीर आदि ने भी किया। सगुण भक्त मार्गी कवियों ने श्री राम का गुणगान कर उन्हें आम जनमानस के हृदय में स्थापित कर दिया। राम करुणासागर, शरणागत की रक्षा के लिए तत्पर, अन्याय के विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं। तुलसीकृत 'रामचरितमानस' जनमानस के हृदय पर राज करता है। तुलसी ने अपनी इस कृति में अपने पात्रों को मानव नहीं अभी तो अवतारी बताया हैं। इनकी नारियाँ स्वतंत्र अस्तित्व के अधिकारिणी तथा परिस्थिति की नियामिका न रहकर पौरुष प्रदर्शन का अनिवार्य निकष मात्र रह गई है। 

राम काव्य परंपरा को हम तीन रूपों में देख सकते हैं— लौकिक, आध्यात्मिक और अद्भुत। 

राम भारतीय जनमानस के अंतस में विराजित शील, शक्ति एवं सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति है। रामकाव्य परम्परा का मूल ग्रन्थ वाल्मीकि कृत 'रामायण' है जो संस्कृत में है। महाभारत में भी अनेक स्थलों पर रामकथा का वर्णन मिलता है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश महाकाव्यों एवं नाटकों में रामकाव्य की सुदृढ़ परम्परा मिलती है। 

आधुनिक युग में राम कथा का नए चिंतन एवं नए आयामों के साथ आग़ाज़ हुआ। आज का प्रबुद्ध पाठक राम को निराकार ब्रह्म मानने के स्थान पर एक युगपुरुष मानना चाहता है। आधुनिक काल में जितने भी राम कथा लिखे गए वे पहले के राम से भिन्न है। मूल रूप से मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के ईश्वरीय रूप को आधुनिक काल में स्वीकारा ही नहीं गया। इस युग के काव्य में वर्णित श्रीराम का स्वरूप भिन्न-भिन्न है। चतुरसेन शास्त्री का 'वयं रक्षामः', भगवानदीन का 'अपने अपने राम', नरेंद्र कोहली का 'अभ्युदय', अमिष त्रिपाठी का 'इक्ष्वाकु के वंशज', नरेश मेहता का 'संशय की एक रात' प्रमुख हैं। निराला की 'राम की शक्तिपूजा' उसके पहले द्विवेदी युगीन मैथिलीशरण गुप्त का 'साकेत' आज हमें राम के भिन्न-भिन्न रूपों से पहचान कराती हैं। विश्व इतिहास और साहित्य में भी रामकथा बहुप्राचीन और बहुप्रचलित है। इंडोनेशिया, जापान, थाईलैंड, म्याँमार, कंबोडिया, फिलीपींस, मलेशिया, तिब्बत, मंगोलिया आदि विदेशों में भी राम ग्रंथ मिलते हैं। 

आधुनिक युग एक वैज्ञानिक युग है। इसीलिए राम के स्वरूप के संबंध में नवीन विचार और मानवीकरण की प्रक्रिया स्वाभाविक ही है। महर्षि बाल्मीकि के संस्कृत साहित्य से लेकर नरेश मेहता के 'संशय की एक रात' तक और वर्तमान साहित्यकारों ने भिन्न-भिन्न उपमा, अलंकार और भावनाओं का तो कथनों, कथा प्रसंगों से राम के चरित्र का वर्णन विभिन्न रूपों में मिलता है। दुनिया भर में 300 से भी अधिक रामायण मिलते हैं। 

वाल्मीकि रामायण में राम का चरित्र साधारण मानव के रूप में दिखाई देता है। राम न्याय प्रिय तरीक़े से राज करके अपनी प्रजा के हितार्थ बेहिचक निर्णय लेते दिखाई देते हैं। उनके द्वारा किए गए कार्यों में हमें कहीं भी दैवीय शक्ति का प्रयोग दिखाई नहीं देता। उन्होंने संपूर्ण महाकाव्य में राम को एक साधारण पुत्र, भाई और पति के रूप में ही चित्रित किया है। जबकि तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में राम का जो स्वरूप दिखाया है वह ईश्वरीय रूप है। 'मानस' में ईश्वर की महानता का बखान किया गया है और इनके अवतारी राम जनमानस के हृदय में अंदर तक पैठ गए हैं। आधुनिक काल के द्विवेदी युगीन मैथिलीशरण गुप्त ने 'साकेत' में मानव के ईश्वरत्व का प्रदर्शन किया है। इसमें मानवीय पक्षों और संवेदनाओं को अधिक स्थान मिलता है। इसमें राम में मानवता का चरम उत्कर्ष भी दिखाई देता है। साकेतकार ने राम की कल्पना इस प्रकार की है—

 "मैं आर्यों का आदर्श बताने आया
जन सम्मुख धन को कुछ जताने आया। 
सुख शांति हेतु में क्रांति मचाने आया, 
विश्वास का विश्वास बचाने आया॥"

इस स्थिति का विश्लेषण करते हुए आचार्य नंददुलारे वाजपेई ने लिखा है– "यदि हम गोस्वामी तुलसीदास के मानस की आधार भूमि से साकेत के आधारभूमि की तुलना करें तो साकेत की आधुनिकता का प्रमाण मिलता है। मानस में गोस्वामी जी ने अवतारवाद का सिद्धांत स्वीकार किया है। साकेत में ठीक इसका उल्टा क्रम है। उसमें ईश्वर की मानवता के स्थान पर मानवता की ईश्वरता का निरूपण किया गया है जो दार्शनिक दृष्टि से ठेठ आधुनिक युग की वस्तु है। साकेत में प्रथम बार मानव का उत्कर्ष अपनी चरम सीमा पर ईश्वर के समकक्ष लाकर रखा गया है जो मध्य युग में किसी प्रकार संभव न था।"

आजमगढ जनपद के वरिष्ठ साहित्यकार पं.पारसनाथ गोवर्धन जी का जन्म 6 फरवरी सन् 1945 में सठियाव विकास खण्ड के नासिरूद्दीनपुर गाँव में हुआ था। 75 वर्ष की अवस्था में 5 फरवरी सन 2019 की मध्यरात्रि में निधन हो गया। आप हिन्दीव्रती, राजभाषा आंदोलन के नायक आचार्य चंद्रबली पांडेय के भतीजे थे। राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत कवि, नाटककार, आलोचक, समीक्षक के रूप में आपकी बड़ी ख्याति थी। इनके प्रसिद्ध साहित्य रचना में चार एकांकी, खंडित खंभों का सेतु, राम की अन्तर्वेदना, दंशित आस्थाएँ, अहिल्या, साहित्य और परिवेश, दृष्टिकोण, सौंदर्यानुभूति, नवगीत पांच स्तम्भ, पिपासा, प्रसाद के नाटक आदि प्रमुख हैं। साहित्य रचना के लिए आचार्य चंद्रबली पांडेय साहित्य सम्मान, साहित्य गौरव, राष्ट्रीय साहित्य कला परिषद उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से रामविलास शर्मा पुरस्कार प्राप्त था। 

’दंशित-आस्थाएँ' नाट्य काव्य के माध्यम से हम राम कथा को नए कलेवर और दृष्टिकोण से देखेंगे। पारसनाथ जी यद्यपि पूर्णतः दक्षिणपंथी थे। उनका परिवार आज भी घोर धार्मिक प्रवृति का परिवार है पर इस रचना को पढ़ने पर पारसनाथ जी का दृष्टिकोण प्रगतिशील दिखाई देता है। वे राम के पूर्वजों को या यूँ कहें कि आर्य-संस्कृति को रक्ष-संस्कृति से कमतर ही आँकते हैं। इस रामकाव्य के माध्यम से पाठकगण पारसनाथ जी के आधुनिक रूप को भली-भाँति परख सकते हैं। यह नाट्यकाव्य सन 1983 में लिखा गया राम कथा पर आधारित है। राम रावण युद्ध के प्रति अपने नवीन धारणा प्रस्तुत करते हुए स्वयं रचनाकार ने आत्म स्वर में लिखा है— "राम रावण युद्ध वैयक्तिक कारणों या मात्र जर-जोरू-जमीन के अर्थ हुआ संग्राम ही नहीं था और ना था राज्य-सीमा-विस्तार या धर्म संस्थापनार्थ ही। वह था दो संस्कृतियों, दो मान्यताओं, दो राजनीतिक विचारधाराओं, दो स्थापनाओं के बीच हुआ महासमर।"1

बीसवीं सदी के इस नाटक के लेखकीय आत्मस्वर से दो तथ्य व्यंजित है— प्रथम तो यह कि आर्य संस्कृति में सब कुछ पूर्ण नहीं है। अनेक विसंगतियाँ और अव्यवस्थाएँ हैं। साथ ही आस्थाओं के दंशन की प्रक्रिया भी सतत सचेष्ट है। यही प्राचीनता के प्रति आधुनिकता का विद्रोह है जो रचनाकार का अभिप्रेत भी है। दूसरा तथ्य भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। नई कविता से लेकर समकालीन कविता तक के संपूर्ण नाट्यकाव्यों का अभिप्रेत विषय रहा है युद्ध और शांति। 

इसमें कथा अत्यंत प्राचीन और पारंपरिक है लेकिन एक विशेष दृष्टिकोण और नवीन विचारधारा के कारण कथा का एक कवि-कल्पित वितान तनता है। सागर पार करने को उद्धृत राम की चिंतित वाणी से कथा का आरंभ होता है "क्यों रुका आज अभियान /कौन सा अवरोधन?"2 और कथा का अंत मृत्यु शैया पर पड़े रावण के आशीर्वचन से होता है— "हो मंगलमय भवितव्य/ सुयश-शुभ-शांति /प्राप्त हो।"3

’दंशित आस्थाएँ’ की कथा के संदर्भ में गोवर्धन जी ने लिखा है— "प्रायः समस्त भारतीय काव्य सामंतवादी चिंतन, विस्तार, प्रवृत्ति, उसकी स्थापनाओं और हितों को दृष्टिगत कर रचे गए जनवादी मूल्यों व मान्यताओं के नहीं और यही प्रवृत्ति, यही चिंतन धारा आज भी सतत प्रवाही है। . . . मेरा राम दशरथ राम है। रोम-रोम राजित होने वाला साक्षात ब्रह्म, नियंता, ईश्वर की चौदह कलाओं से युक्त नारायण या विष्णु नहीं। वह भी किसी सामान्य मनुष्य की भाँति शोक–द्वेष, करुणा–क्रोध, मोह–मद, शोक–भय, राग–विराग की मानवीय दुर्बलता से ग्रस्त है।"4

गोवर्धन जी राम की ऐतिहासिकता अथवा पौराणिक संदर्भ को स्वीकार नहीं करते। रचनाकार का एकमात्र उद्देश्य राम को सामंती और रावण को जनवादी घोषित करते हुए आर्य-संस्कृति को दंशित आस्थाओं से युक्त आदर्श जनवादी सिद्ध करना है— "रक्षकुल सृजन- समर्पित/ घृणित प्रलय है युद्ध/ कामना की तनिक न जिसकी।"

इस नाट्यकाव्य में राम समस्त मानवीय रूप गत विशेषताओं, क्षमताओं और दुर्बलता के साथ उपस्थित होते हैं। वे आर्य-संस्कृति के नायक हैं और अपने सांस्कृतिक मर्यादाओं के रक्षक हैं। वैयक्तिक स्तर पर 'अहिंसा' उनका परम धर्म है लेकिन शासन स्तर पर सत्ता का धर्म अहिंसा संभव नहीं है। वे रावण से कहते हैं— "अमर्षित रक्षों ने / यज्ञों का किया ध्वंस/ लांछित गौरव कुल- शील/ हमारा वे करते /परिणाम / उन्हीं कृत्यों का / वे अभिशापित हैं।"5

रावण राम को देवों, ऋषियों की दुरभिसंधि से संचालित आक्रामक मानता है जबकि स्वयं को अक्रांत— "देवों की विग्रह -नीति पुरातन /आर्य राम/देवों- रक्षों के मध्य कूदना/ योग्य नहीं।"6

इतना ही नहीं। हम देखते हैं कि जब राम सागर तट पर सैन्य अभियान के गत्यावरोध से चिंतित हैं तथा सागर राम सेना द्वारा अपनी अहिंसक जनसेना पर हुए आक्रमण से दुखी हैं। वह राम को इस आक्रमण के लिए फटकारता है। सागर जो राम का पूर्ववर्ती कुल-वंशज सागर है, युद्ध नहीं चाहता पर वह राक्षसों को भी अपना शत्रु नहीं मानता। वह राम से कहता है— "देवों-ऋषियों को /एक छत्र सत्ता वांछित/आतुर-अभोर/ रावण का इच्छित /सत्ता का अस्तित्व नाश / जन-जन विभोर /इन महाशक्तियों के द्वन्द्वों/ घिस जाता उत्कर्ष जनों का / मैं पलांश में पिस जाता।"7

सागर राम को फटकार लगाते हुए भी कहता है— "राम !अयोध्या कुमार/ रघु-अज वंशी /तुम सा नृसंश तो मैंने सुना नहीं।"8

राम यहाँ हिंसा के पक्षधर और सागर अहिंसा के पक्षधर दिखाई देते हैं। यहाँ तक कि जाम्बवान भी राम से कहते हैं— "एक पक्ष ही संधाने शर/ है अधर्म।"9

राम कहते हैं— "सखे!अहिंसा/ धर्म व्यक्ति का बन सकती हैं /लेकिन, शासन का धर्म /और सत्ता- निर्मात्री /नहीं कभी वह/ सीमाएँ /शास्त्रों से रक्षित /निर्मित होती राष्ट्र धर्म की मर्यादाएँ/ उपदेशों से नहीं/ विजय पौरुष से होती हैं /पशुत्व पर।"10

रचनाकार जनवादी चिंतन के अनुसार राम–रावण युद्ध को 'वर्ग संघर्ष' का रूप सहज ही प्रदान करता है। उच्च वर्ग (शोषक वर्ग)और निम्न वर्ग (शोषित वर्ग)। बीच में मध्य वर्ग है जो मूलतः सुधारक वर्ग है। जब रावण राम को देवों और रक्षों के मध्य कूदने से मना करता है तो राम कहते हैं— "अपना ले वैदिक धर्म रक्ष/ऋषियों को दे सम्मान आर्य कुल जैसा ही/ दासत्व करें स्वीकार /विदा कर सीता को।"11

14 वर्षों के लिए राज्य से वनवास लिए राज्य से निर्वासित राम को केवल राजा दशरथ का पुत्र होने के कारण सम्मान दिया। राजा स्वीकार किया गया है। पत्नी सीता को मुक्त कराने के लिए राम जनजातियों, वानर, भालू के पूछते हैं। युद्ध के लिए उनका साथ लेते हैं। प्रस्तुत नाट्यकाव्य में रावण के साथ संवाद में राम कहते हैं— "तुमने अपहरण किया है मेरी भार्या का/ रक्षों ने की अपवित्र।"

रावण : अपरो की पत्नी /नित्य भोगते देव-आर्य/ अपनी यदि भोगी गयी/हो गया न्याय भंग।"12 रचनाकार ने सुषेण के अनुसार रक्ष-संस्कृति शांति और सृजन करती है जबकि आर्य-संस्कृति में युद्ध और विध्वंस का महत्व है। वहाँ नारियाँ पूज्या नहीं भोग्या मात्र हैं। लक्ष्मण के उपचार हेतु रावण ने सुषेण को भेजा था। सुषेण आर्यों, ऋषियों और आर्य-राजाओं पर अनैतिकता का आरोप लगाता है— "..... आर्य उन्मुक्त भोग में/ उड़ते-उड़ते परी /अप्सरा तक पहुँच/ हो रंभा, उर्वशी, मेनका या सहजन्या/ शोभा सुमन बना करती है/ इंद्रलोक में /ऋषियों की /देवों की बनती अंकशायिनी।"13 वह अहिल्या-तारण को भी आर्य भोग का ही एक रूप मानते दिखाई देता है— "सुना गया है /आर्य अहल्या को तारे हैं /इन चरणों से हुई शिलाएँ चंद्रमुखी हैं / इन चरणों से हुई शिलाएँ चन्द्रशेखर है/ विन्ध्य निवेनी- मुनिवेशी- गृहत्यक्त उदासी / कामाकाली/ किए गये संतुष्ट आपसे।"14

वह राम के अस्तित्व का एकमात्र कारण रावण को ही मानता है— "होता वह न अगर /तो रघुपति !आप ना होते।"15

वह रक्ष-संस्कृति को शांति और सृजन के लिए संकल्पित, समर्पित मानता है— "राम! रक्ष-कुल सृजन - समर्पित /घृणित प्रलय है युद्ध /कामना तनिक न जिसकी/ थोपा ही यदि गया/ उसे आक्रामक जन से।"16

वह आगे कहता है— "जब तक शेष जलाने वाली आर्य व्यवस्था/ रावण को जलते रहना है।"17

राम द्वारा रक्ष-नीति पूछने पर सुषेण कहता है— "रक्षजनों की/ पू्र्ण समन्वित/ लोक-समर्थित एक नीति है– समतामय समाज /निर्णय में सभी भागी हों / सब कर्मठ/उद्बुद्ध /राष्ट्र के लिए समर्पित।"18 सुषेण की बातों से राम की संपूर्ण आस्था-विश्वास हिल जाता है और उनका मन संशय ग्रस्त हो जाता है— "श्रुतियों पर कर विश्वास / धर्म की जय बोली/ देवर्षि-हितों के लिए समर्पित हो प्रतिपल /यज्ञार्थ-राक्षसों के प्राणों का बन हंता/ आस्था-संचालित वर्तमान/ कितना विषाक्त /आभासित पहले रंच मात्र भी हुआ नहीं/××××/ भवितव्य/कल्पना की सीमा से भी बाहर।"19 

संशय ग्रस्त राम इन्द्र के भेजे सारथी मातलि से कहते हैं— "ओह / कितना दुर्दांत हो गया है समय /कि सारा का सारा मेरा विश्वास/ मुझे छल गया है/सर्वथा खंख/ और एकांकी/ मुझे कर गया है।"20

रामा-मातलि के संवादों के माध्यम से रचनाकार ने राम के आदर्श चरित्र का उद्घाटन किया है। राम रक्ष-कुल की वनिताओं और पटरानियों पर हुए अत्याचार से अत्यंत क्षुब्ध हैं। उन्हें लगता है— "नैतिकता को कुचल समर/ केवल अधर्म है/×××× यंत्र मात्र रहने का साहस / रहा ना मुझमें।"21

इस नाट्यकाव्य के छठे-सातवें दृश्य में आहत रावण के पास राम लक्ष्मण को सत्ता संचालन का मंत्र जानने हेतु भेजते हैं। लक्ष्मण पूछते हैं कि जब भी धरती पर द्वंद्व और संघर्ष होंगे, महानाश होगा तब शान्ति व्यवस्था और सत्ता-संचालन हेतु क्या करना होगा? रावण कहता है— "जिसकी प्रत्यंचा सधी/ लक्ष्य भेदन में ही /जिसकी असिधारा/ नर मुंडन कर चमक रही/ वह शांति चाहता? नरहंताओं को शांति व्यवस्था ग्राह्य नहीं।"22

रावण को मुक्त और अगोपनीय नीति का पक्षधर दिखाया गया है। सीता-हरण के संदर्भ में लक्ष्मण के यह कहने पर कि यदि आपने सीता को लौटा दिया होता तो यह युद्ध ही क्यों होता? रावण प्रत्युत्तर देता है कि वैदेही अपहरण रक्षों का मात्र प्रतिरोधन था जो युग-युग से रक्षों पर आर्यों द्वारा के किए आघातों-अन्यायों से त्राण दिलाने के निमित्त था। कोई अपकर्म नहीं। उद्देश्य मात्र इतना था— "हो सके न बल से /शीलभंग वनिताओं का / छद्मों से लादी जाए न संस्कृतियाँ बरबस।"23 

आर्य-संस्कृति में व्याप्त दंशित-आस्थाओं को रेखांकित करता हुआ रावण का कथन दृष्टव्य है— "नियति छिपाकर/ नीति बना लो चाहे जो भी/ परिपालन तो /नियति लक्ष्य तक जायेगा ही / किन्तु नीतियों के प्रति आस्थावान जनों की/ युगांतरों की सुकृति-साधना/ निष्फल जाती/ दंशित-आस्थाएँ कर जाती हैं दंशित/ सारा जीवन / कुल समाज/ संपूर्ण व्यवस्था/ युग-युगान्तरों का भविष्य।"24

इसके पहले जब राम और सुषेण का संवाद होता है तो वह राम से कहता है कि—"सूत्रधार है इन्द्र/ जनक के धनुर्यज्ञ का /उससे प्रेरित रुका आपका राज्यारोहण/उससे प्रेरित / वर माँ का / वनवास आपका/ उसक हित साधन जनती / युद्ध भूमि यह।"25

तब इस रहस्योद्घाटन से राम अत्यंत दुखी होते हैं। मनःताप उन्हें उद्विग्न कर देता है— "सचमुच मैं /औरों से परिचालित/ केवल संयंत्र हूँ /संकल्पों-विकल्पों से बँधा हुआ / पूर्णतः परतंत्र हूँ।"26

इस प्रकार हम देखते हैं कि 'दंशित-आस्थाएँ' के राम पारंपरिक राम काव्यों से सर्वथा आर्य-संस्कृति के संवाहक रूप में दीखते हैं। राम विशुद्ध मानवीय रूप में क्रोध, शोक, राग-विराग, दुख -संताप, आदि से संत्रस्त हैं। रचनाकार पूर्ण रूप से राम को एक साम्राज्यवादी, प्रसारवादी, आर्य-सभ्यता एवं संस्कृति के पोषक, यज्ञ, और ऋषियों के विघ्नहर्ता एवं देव -संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकारते हैं। 

संदर्भ सूची:

  1. पारसनाथ गोवर्धन: दंशित आस्थाएँ, पृष्ठ संख्या ३६

  2. वही पृष्ठ संख्या ४१

  3. वही पृष्ठ संख्या १७७

  4. पारसनाथ गोवर्धन: दंशित आस्थाएँ (आत्मस्वर), पृष्ठ संख्या ३६~३७

  5. पारसनाथ गोवर्धन: दंशित आस्थाएँ, पृष्ठ संख्या - ५२

  6. वही पृष्ठ संख्या - ५१

  7. वही पृष्ठ संख्या - ११२

  8. वही पृष्ठ संख्या - ४५

  9. वही पृष्ठ संख्या - ४४

  10. वही पृष्ठ संख्या - ४५

  11. वही पृष्ठ संख्या - ५६

  12. वही पृष्ठ संख्या - ५४-५५

  13. वही पृष्ठ संख्या - ७२

  14. वही पृष्ठ संख्या - ७३

  15. वही पृष्ठ संख्या - ८०

  16. वही पृष्ठ संख्या - ७५

  17. वही पृष्ठ संख्या - ७९

  18. वही पृष्ठ संख्या - ७९

  19. वही पृष्ठ संख्या - ८४

  20. वही पृष्ठ संख्या - १०५

  21. वही पृष्ठ संख्या - १२९

  22. वही पृष्ठ संख्या - १५०

  23. वही पृष्ठ संख्या - १७१

  24. वही पृष्ठ संख्या - १६६

  25. वही पृष्ठ संख्या - १३८

  26. वही पृष्ठ संख्या - ११३

डॉ. इन्दु श्रीवास्तव 
प्रवक्ता-हिन्दी
 हरवंशपुर, आजमगढ़ यू पी
मो. नं. 9455435580
ईमेल : drindusrivastav113@gmail.com

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