अचूक

भगवान अटलानी (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

फोन किया, “आपको याद होगा, मैंने एक निवेदन किया था।”

“कैसा निवेदन?”

“आपकी पत्रिका में कहानी छपी थी मगर मुझे प्रति नहीं मिली। पाठकों के पत्रों से जानकारी मिली।”

“मुझसे क्या चाहते हैं?”

“पिछली बार मैंने प्रति दोबारा भेजने का अनुरोध किया था।”

“तो भेज दी होगी।”

“ज़रूर भेजी होगी। मगर बीस दिनों के बाद भी अब तक मुझे नहीं मिली है।”

“आप कहें तो मैं ख़ुद लेकर आ जाऊँ,” क्रोध मिश्रित व्यंग्य स्पष्ट था।

आक्रोश ने फन फैलाया। मगर हतप्रभ हुए लेखक तुरन्त सँभले। उत्साहपूर्वक बोले, “आप स्वयं आयेंगे तो सचमुच मज़ा आ जायेगा। मेरे जीवन का अविस्मरणीय अवसर बन जायेगा आपका आना।”

किंचित मौन। “आप मज़ेदार आदमी हैं . . . और चतुर भी।” हल्केपन में सनी हँसी के स्वर, “रजिस्टर्ड डाक से भेज देते हैं। ठीक है?”

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