अब ना प्रेम बचा ना कविता
अनुपमा शर्माअब ना प्रेम बचा ना कविता..
चढ़ी थी चाँदनी... पूर्णिमा के चाँद की तरह
लुप्त हो गयी ... अमावस की काली रात में
अब बचा क्या ...
बस मन विक्षिप्त हुआ है
लेकिन जल्द ही सम्हल भी जाएगा
जो खोया है... उसे अब कहाँ पायेगा
वो प्रेम ही क्या जो इस तरह लुप्त हुआ
मन की क्षुधा को तृप्ति का अहसास
झूठी प्रवंचनाओं से नहीं मिलता
गर ये प्रेम होता तो यूँ ही लुप्त नहीं होता