अब मैं बोलूँगी-एक खरी और ज़रूरी किताब

01-04-2025

अब मैं बोलूँगी-एक खरी और ज़रूरी किताब

शैली बक्षी खड़कोतकर (अंक: 274, अप्रैल प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: अब मैं बोलूँगी (डायरी)
लेखक: स्मृति आदित्य
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, बस स्टैंड के सामने, सीहोर मप्र 466001
ईमेल- shivna.prakashan@gmail.com
मूल्य: ₹249.00
पृष्ठ संख्या: 104
प्रकाशन वर्ष: 2025
ख़रीदने के लिंक क्लिक करें: अब मैं बोलूँगी

 

स्मृति आदित्य, मीडिया और साहित्य का सुपरिचित नाम, जब कहती हैं ‘अब मैं बोलूँगी’ तो सुनने वालों को सजग, सतर्क होकर सुनना होगा। शिवना प्रकाशन से प्रकाशित और हाल ही में पुस्तक मेले में विमोचित उनकी किताब ‘अब मैं बोलूँगी’ उन तमाम आवाज़ों की गूँज है, जो अव्वल उठाई नहीं जातीं या फिर दबा दी जाती हैं। इस किताब को पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार बहुत याद आए—तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं, कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं। 

मीठे लेकिन झूठे ख़्वाब से झकझोरकर उठाने का एहसास कड़वा हो सकता है, लेकिन उतना ही ज़रूरी भी। पत्रकारिता जगत में लंबी और उल्लेखनीय पारी के बाद अपने अनुभवों को स्मृति ने इस किताब में सँजोया है। नहीं . . . शायद सँजोना कहना ग़लत होगा। सलीक़े से, क़रीने से सजा-सँवार कर जो भी किया या कहा जाता है, उसमें कहीं बनावटीपन या दिखावा आ ही जाता है। जबकि यहाँ एक ईमानदार, मेहनती पत्रकार का सच्चा, अनगढ़, भावपूर्ण आवेग है, जो पाठक को बहा ले जाता है। इस किताब की पढ़ना साहित्य के राजपथ पर चलना नहीं है, उस पथरीली पगडंडी से गुज़रना है, जहाँ से हम में से बहुत से लोग गुज़रे हैं। उन खुरदुरे रास्तों के काँटों और पाँवों के छालों से कभी न कभी वास्ता पड़ा है। 

डायरी विधा में लिखी यह किताब शुरू होती है, लगभग पंद्रह साल तन-मन से एक संस्थान से जुड़े रहने के बाद हुए मोहभंग और इस्तीफ़े से। फिर फ़्लैश बैक में पच्चीस साल पहले पत्रकारिता की शुरूआत के संघर्ष से होते हुए मीडिया संस्थानों के वर्क कल्चर पर आती है। उनके अनुभव इतने खरे और सच्चे हैं कि पाठक संवेदनाओं के साथ शुरू से अंत तक जुड़ा रहता है। जैसे 31 जुलाई वाले दिन, जो नौकरी का आख़िरी दिन था, वे लिखती हैं कि इतना हल्का महसूस कर रही थीं कि घर पहुँचकर ‘कैडबरी गर्ल’ की तरह नाची। इसमें पीड़ा और आक्रोश का जो अंडर करंट है, वह छू जाता है और पढ़ते हुए आँखों में अनायास नमी उतर आती है। बाई-लाइन और क्रेडिट के लिए जूझना, संपादकीय को हमेशा विज्ञापन और मार्केटिंग से कमतर आँकना, रिपोर्टिंग में आने वाले ख़तरे, इन स्थितियों का सामना लगभग सभी मीडियाकर्मी करते हैं। पर महत्त्वपूर्ण यह कि कार्यस्थल पर जिस प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, असुरक्षा और शोषण की बात उठाई है, वह सिर्फ़ मीडिया तक सीमित नहीं है बल्कि प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले अमूमन हर शख़्स की कहानी है। इस स्तर पर किताब एक ऐसा आईना है, जिसमें बहुतों को अपने दर्द का अक्स नज़र आएगा। यहाँ यह डायरी निजी अनुभव होते हुए भी सार्वभौमिक हो जाती है। और बकौल स्मृति यही उनकी किताब का उद्देश्य भी है कि “अपने हिस्से का प्रतिरोध दर्ज करना ही चाहिए और शुरूआत कहीं से तो हो।”

कामकाजी लड़कियाँ तो अधिकांश जगह उनके साथ रिलेट कर सकती हैं। वे लिखती हैं, “हम छोटी जगह की लड़कियाँ संकोच और स्वाभिमान के मिश्रण से बनी होती हैं, जिन्हें अक्सर हमारा अहम मान लिया जाता है . . . वास्तव में हम सही वक़्त पर सही क़दम न उठाने की पीड़ा से गुज़र रही होती हैं।” इससे उस समय और कुछ हद तक आज भी छोटे शहरों की अधिकांश लड़कियों के मन को कितना सही उकेरा है। पूरी किताब दरअसल एक सच्ची, संवेदनशील लड़की का अपने आत्मसम्मान को बचाते हुए संघर्ष का दस्तावेज़ है। गिरना, बिखरना, टूटना, फिर ख़ुद को समेटकर स्वाभिमान के साथ खड़ा होना, इसी जिजीविषा का नाम स्मृति है और यही जीवन है। 

अंतिम पन्नों में वे कहती हैं, “मैं हर हाल में ख़ुश रहने वाली लड़की बस इतना चाहती हूँ कि इस पेशे की ‘नैतिकता’ को यथासंभव बचाया जाए ताकि आने वाली पत्रकारीय नस्ल और फ़सल हरी रहे, लहलहाती रहे।” चूँकि स्मृति बच्चों के बीच सम्मानीय और प्रिय मीडिया शिक्षक हैं, उनकी यह चिंता वाजिब है। पत्रकारिता में आने वाली पीढ़ी के लिए यह एक ज़रूरी और मार्गदर्शक किताब हो सकती है। जो बच्चे मीडिया की चकाचौंध से आकर्षित होकर इस क्षेत्र में आते हैं, उन्हें पहले इस तरह की किताबें पढ़ना चाहिए ताकि आने वाले संघर्षों के लिए तैयार होकर इस क्षेत्र में क़दम रखें। बच्चे यह भी सीखेंगे कि मुश्किल वक़्त में परिवार और दोस्तों के अलावा कार्यक्षेत्र में कुछ भले लोग भी मिलते हैं, जिनसे दुनिया में उम्मीद क़ायम है। 

स्मृति के इस साहस को सलाम, इस आशा के साथ कि इसे ख़ूब स्नेह मिले, समर्थन मिले और उनकी आवाज़ में और आवाज़ें शामिल हों। फिर दुष्यंत कुमार के ही शब्दों में:

“सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, 
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। 
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, 
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।” 

शैली बक्षी खड़कोतकर
shailykhadkotkar@gmail.com
 

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