आँखें शाश्वत हैं
सिद्धार्थ 'अजेय'गेसू रूपी खंजर का संग
बहुधा देती नीली आँखें
दर्पण को देख सदा खिलतीं
आँखें काली स्याही आँखें,
चंदर तो बस वसुधा का है
कैसे देखें उसको आँखें
मन में घबराहट करती हैं
रेशम कीटों सी ये आँखें,
बातें कानों को चुभती हैं
तब बस करुणा देखें आँखें
धारण नीरव को करती हैं
वे मझली सझली दो आँखें,
कैलाश नहीं बन सकता वो
स्वयं गरलपान करती आँखें
झरने फूटें बहतीं संग संग
वे बंद ज़ुबानों की आँखें।
सुधा, पियूष का मोह नहीं है
निर्दोष नहीं हैं वे आँखें
बेल पत्रों को पढ़ती वे
विष में डूबी शिव की आँखें।
नारद हैं और याचक भी हैं
धरती सी गोल बनीं आँखें
विनती है उन देवों से भी
जिनकी छाया हैं उनकी आँखें।
स्याही फैली जब चेहरों पर
तब निर्णय स्वयं बनी आँखें
पत्थर होता जब भी हृदय
कंपित होतीं चट्टानी आँखें।
लहरें आतीं और जाती हैं
पर एक जगह स्थिर आँखें
सागर भी सिंचित होता है
जब रोदन करतीं नीरव आँखें।
तिमिर बुलाए सो जाएँ
सूरज की पीली पीली आँखें
पुष्प देख खिल उठती हैं
उपवन के मधुकर सी आँखें।
शाश्वत हैं, प्रेम रसिक भी हैं
मदिरा सी छलकी वे आँखें
पलकों पर नींद बिठाती हैं
सरिता बहतीं, रक्तिम आँखें।
भंगुर होता मानव हर क्षण
विप्लव गीतों को गाती आँखें
प्रेम पत्र से डरती हैं वे
संशय में डूबीं काली आँखें।
उड़ते पंछी के कलरव को
ज़ाहिर करतीं अंबर सी आँखें
नफ़रत रूपी हर ख़त को पढ़तीं
वे मधुशाला की प्यारी आँखें।