आलसस्य परम सुखम्‌

20-02-2019

आलसस्य परम सुखम्‌

अमित शर्मा

प्राचीन काल से ही आलस को सामाजिक और व्यक्तिगत बुराई माना जाता रहा है‍। "जो सोवत हैं, वो खोवत हैं" जैसी कहावतों के माध्यम से आलसी लोगों को धमकाने और "अलसस्य कुतो विद्या" जैसे श्लोकों के ज़रिये उनको सामाजिक रूप से ज़लील करने /ताने कसने के प्रयास अनंतकाल से जारी हैं। लेकिन फिर भी आज तक (चैनल नहीं) आलस और आलसियों का वजूद "सेट मैक्स चैनल" पर "सूर्यवंशम फ़िल्म" की तरह जस का तस बना हुआ है, जो ये दर्शाता है कि बुराई का विरोध करने से वो ज़्यादा बढ़ती है। इसीलिए बुराइयों को कोसें नहीं बल्कि प्यार से पाले-पोसें और बड़ा होने पर उनके हाथ पीले और गाल लाल करके घर से विदा कर दें।

दरअसल हर युग में अवतरित हुए ज़रूरत से ज़्यादा (लेकिन आवश्यकता से कम) "श्याणे-लोग" इस बात को समझने में नाकाम रहे हैं कि आलस कोई दुर्गुण नहीं है बल्कि ये तो दुनियादारी और मोह-माया से मुँह मोड़ लेने (और हाथ-पैर तोड़ लेने) का एक आसान आध्यात्मिक तरीक़ा है, जिसमें व्यक्ति बिना किसी को तकलीफ़ दिए, बिना किसी "गिव या टेक" के, सारे प्रलोभनों को ओवरटेक करके, "सिक्स-लेन" वाले "मोक्ष मार्ग" पर बिना कोई टोल टैक्स दिए अपनी गाड़ी और कल्पनाओं के घोड़े दौड़ा सकता हैं। जिस दिन ज़ालिम दुनिया ये समझ लेगी, उसी दिन से सारी समस्यायें नेताओं की ईमानदारी की तरह छू-मंतर हो जाएँगी।

आलसी लोगों को चाहे कोई कितना भी भला-बुरा क्यों ना कहे, लेकिन वो उसका कभी बुरा नहीं मानते क्योंकि बुरा मानने के बाद ग़ुस्सा उपजता है जो कि झगड़े और कलह (और कलह से सुलह का रास्ता काफ़ी दुर्गम होता हे) को जन्म देता है, जिससे रिश्तों में दरार आने की संभावना रहती है और इस दरार को रोकने के लिए वो "खम्बुजा - सीमेंट" की तरह काम करते हैं। टीवी विज्ञापनों में कई सीमेंटों में जान बताई जाती है। ऐसे सारे विज्ञापन के ख़िलाफ़ ज्ञापन देने की ज़रूरत है क्योंकि दरअसल "जान" किसी सीमेंट में नहीं होती है। बल्कि आलसी लोगों में होती है क्योंकि संबंधों के लिए वो अपना "अहम" त्याग देते हैं, लेकिन अपना आलस त्याग देंगे ऐसा "वहम" किसी क़ीमत पर नहीं उपजने देते हैं।

आज के भौतिकतावादी युग में सामाजिक मूल्यों को बनाये रखने में आलसी महापुरुष अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं, क्योंकि जहाँ अधिकतर लोग सफलता मिलने के बाद बदल जाते हैं और इवन-डे पर अपनी महँगी कार में और ओड-डे पर अपने अभिमान पर सवारी करने लगते हैं, वहीं आलसी लोगों से सभ्य समाज को ऐसा कोई ख़तरा नहीं है। क्योंकि काम और सफलता इन दो शब्दों से आलसी लोगों का वही सम्बन्ध होता है जो कि "लाल-किला बासमती चावल" से लाल किले का है। लेखक और प्रकाशक की "सयुंक्त-ग़लती" से "काम और सफलता" जैसे शब्द आलसियों की डिक्शनरी में होते तो हैं, लेकिन उन्हें देखते ही वो पेज पलट देते हैं ताकि उनकी क़िस्मत का पासा न पलट पाये और वो आलस के अलावा किसी अभिमान या स्वाभिमान का शिकार न हो पायें।

यहाँ पर ये "अस्पष्ट" कर देना ज़रूरी है कि आलसी लोग किसी भी कार्य या मेहनत से नहीं घबराते हैं। उनको केवल इस बात का डर सताता है कि उनके काम करने से कहीं "सोने" का भाव कम ना हो जाये। ये लोग इतने दयालु और परहित स्वाभाव के होते हैं कि हर क्षेत्र में बढ़ती हुई "गला-काट" प्रतिस्पर्धा को कम करने के उद्देश्य से काम ही नहीं करते हैं ताकि "क़ाबिल" लोगों को मौक़ा मिले और वे सफल होकर "ड्यू डेट" से पहले अपने सभी "बिल" भर सकें। इसके बदले इनको किसी सम्मान की आशा नहीं होती बल्कि ये तो केवल इतना ही चाहते हैं कि क़ाबिल लोग अपनी सफलता का शोर मचा कर इनकी नींद न ख़राब करें। इसके अलावा आलसी लोगों पर कभी अपेक्षाओं और उम्मीदों पर खरा ना उतर पाने का आरोप नहीं लगता, क्योंकि सपने में भी इनसे कोई उम्मीद या अपेक्षा नहीं रखी जाती। ये कभी किसी का दिल भी नहीं तोड़ते, क्योंकि इन्हें दिन-रात खटिया तोड़ने से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती।

आलसी लोग बिना दब के, कब के, समाज के हर तबक़े में अपनी पैठ सियाचिन की बर्फ़ की तरह जमा चुके हैं। बॉलीवुड में ऐसे कई आलसी (हीरो) भरे हुए हैं जो पूरे साल में केवल एक ही फ़िल्म करते हैं लेकिन चूँकि वो बड़े लोग हैं इसीलिए उनके आलस को परफ़ेक्शन की पैकिंग में बेच दिया जाता है। कुछ डायरेक्टर्स तो इतने आलसी होते हैं कि फ़िल्म की स्क्रिप्ट सेलेक्ट करने में ही 3-4 साल निकाल देते हैं। वैसे ये डायरेक्टर्स हिम्मत करके थोड़ा आलस और दिखायें तो सरकारें पंचवर्षीय योजनायें बनाने और क्रियान्वित करने में भी इनकी मदद ले सकती हैं ताकि सरकार और उनके मंत्री संसद के अंदर और बाहर थोड़ा और आराम से सो सकें।

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