आज की सावित्री

15-06-2025

आज की सावित्री

संजीव जायसवाल ‘संजय’ (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

दीप्ति सो कर उठी तो पूरा बदन टूट रहा था। अलसाया मन चाह रहा था कि काश इस समय कोई चाय का एक प्याला थमा जाये। मगर शोरगुल से अभिशप्त महानगर के इस भयावह एकान्त में दीप्ति की सुबहो-शाम को बाँटने वाला कोई न था। नितान्त भीड़ में भी वह बिल्कुल अकेली थी। 

सुबह का धुँधलका छँटने लगा था। अलसाती हुई वह बिस्तर से उतरी और आगे बढ़ कर कमरे की खिड़की खोल दी। हवा के झोंके चेहरे से टकराये तो कुछ राहत सी मिली। तभी दीप्ति की दृष्टि गेट के बाहर पड़ी एक गठरी पर पड़ी। उसे वह गठरी कुछ जानी-पहचानी-सी लगी। हल्के उजाले में उसने ग़ौर से देखा, अरे, यह तो उसकी ही साड़ी थी। लेकिन उसने तो यह साड़ी सावित्री को दे दी थी फिर वह साड़ी यहाँ कैसे आ सकती है? दीप्ति पल भर के लिये झिझकी फिर सोचा एक ही तरह की जाने कितनी साड़ियाँ संसार में होगी। 

मुँह धोकर वह किचन में गयी। एक प्याला चाय बना कर ड्राईंग रूम में आ गयी। एक घूँट पीने के बाद उसने प्याला मेज़ पर रख दिया। गर्म चाय से भाप उठ रही थी। उसके उस पार की चीज़ें कुछ धुँधली सी नज़र आ रहीं थी। उस दिन भी दीप्ति चाय से उठ रही भाप के उस पार देख रही थी जब अरुणेश ने घर आते हुए पूछा था, “दीप्ति, क्या तुमने भी एलीफेंसटेंस डिग्री कॉलेज में रीडर के पद के लिये आवेदन भेजा है?”

“हाँ,” दीप्ति ने सिर हिलाया फिर बोली, “मैने तो काफ़ी पहले ही तुम्हें बताया था कि वहाँ रीडर की वैकेन्सी होने वाली है जिसके लिये मैं एप्लाई करूँगी।”

“वह तो बहुत पहले की बात है। एप्लीकेशन भेजने से पहले तुम्हें कम से कम एक बार तो मुझसे पूछ लेना चाहिये था,” अरुणेश झल्लाते हुए बोला। 

“क्यों, ऐसी क्या बात हो गयी?” दीप्ति ने अपनी पलकें उठा आँखें अरुणेश के चेहरे पर टिका दीं। 

“मैंने भी उसके लिये एप्लाई किया है,” अरुणेश ने कसमसाते हुए बताया। 

“तो इसमें इतना परेशान क्यूँ हो रहे हो? तुम्हारा सलेक्शन हो या मेरा, वह पोस्ट तो हमारे घर में ही रहेगी,” दीप्ति खिलखिला कर हँस पड़ी। उसे अरुणेश की परेशानी का कारण समझ में नहीं आ रहा था। 

लेकिन अरुणेश बहुत कुछ सोच समझ कर आया था। चंद पलों तक वह दीप्ति के चेहरे की ओर देखता रहा फिर आँखें चुराते हुए बोला, “तुम अपनी एप्लीकेशन वापस ले लो।”

“क्यूँ?” दीप्ति चिहुँक उठी। 

“क्योंकि मैं कह रहा हूँ,” पुरुषोचित अहंकार से अरुणेश का स्वर भरा हुआ था। 

“तुम्हारे कहने का कोई कारण भी तो होगा?” दीप्ति ने कहा। वह अपने सुने हुए पर विश्वास नहीं कर पा रही थी। 
“कारण तो कई हैं,” अरुणेश कुछ कहते-कहते रुक गया। उसने एक बार फिर दीप्ति के चेहरे की ओर देखा फिर बोला, “फ़िलहाल एक कारण तो यह है कि सेलेक्शन तुम्हारा नहीं बल्कि मेरा होगा। उसके बाद तुम्हें पराजय का दंश झेलना पड़ सकता है। इसलिये अच्छा होगा कि तुम अपनी एप्लीकेशन ही वापस ले लो।”

“अरुणेश, तुम्हारे और मेरे बीच जय-पराजय की बात कहाँ से आ गयी? हम में किसी एक की जीत दूसरे की भी जीत होगी। अगर तुम्हारा सलेक्शन होता है तब भी मुझे उतनी ही ख़ुशी होगी जितनी अपने सलेक्शन पर होती,” दीप्ति ने कहा। उसके स्वर में एक अजीब सा दर्द उभर आया था। 

“दीप्ति, तुम समझने की कोशिश करो,” अरुणेश का स्वर अचानक ही कड़ा हो गया। 

“समझने की कोशिश तुम करो अरुणेश, इस तरह एप्लीकेशन वापस लेने से पलायन का दंश मुझे अंदर ही अंदर डसता रहेगा,” कहते-कहते दीप्ति का स्वर भर्रा उठा। पल भर रुकने के बाद वह अपनी दृष्टि अरुणेश के चेहरे पर गड़ाते हुए बोली, “अगर आदेश देने के बजाय तुम प्यार से अपना अधिकार माँगते तो मैं तुम्हारे लिये अपने क़दम अवश्य वापस खींच लेती।”

“बस-बस त्याग और बलिदान दिखा कर महान बनने की कोशिश मत करो। तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस न पहुँचे इसलिये समझा रहा था लेकिन तुम्हारा अभिमान आड़े आ रहा है तो जो मर्ज़ी है वह करो,” झल्लाते हुए अरुणेश कमरे से निकल गया। 

हतप्रभ सी रह गयी थी दीप्ति। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिस अरुणेश को उसने अपना सर्वस्व समझा था वह उसके साथ ऐसा व्यवहार कर सकता है? अरुणेश के साथ उसने प्रेम विवाह किया था। दोनों लखीमपुर के एक कॉलेज में भौतिक विज्ञान के लेक्चरर थे। उसका एकडमिक रिकार्ड हर तरह से अरुणेश से श्रेष्ठ था लेकिन उसने कभी अपने को श्रेष्ठ नहीं समझा था। वह उसके लिये हर त्याग और बलिदान करने के लिये तैयार थी किन्तु जिस तरह का व्यवहार अरुणेश ने आज दिखलाया था वह दीप्ति के स्वाभिमान के विरुद्ध था। इन परिस्थितियों में एप्लीकेशन वापस लेना अपनी ही नज़रों में गिरने के समान था। 

दीप्ति का साक्षात्कार बहुत अच्छा हुआ। चयन समिति के हर प्रश्न का उत्तर उसने अत्यन्त तार्किक ढंग और शुद्धता के साथ दिया था। समिति के सदस्यों की आँखों में उभर रहे प्रसंशा के भाव उसे आश्वस्त कर रहे थे कि चयन उसीका होगा। किन्तु जब परिणाम घोषित हुआ तो दीप्ति एक बार फिर हतप्रभ रह गयी। चयन अरुणेश का हुआ था। वह अरुणेश जो साक्षात्कार के दिन तेज़ बुख़ार से तप रहा था। वह अरुणेश जिससे उस दिन न तो चला जा रहा था न बोला। वह अरुणेश जिसे वह ख़ुद सहारा देकर साक्षात्कार दिलवाने ले गयी थी। 

अरुणेश की अप्रत्याशित सफलता के रहस्य का रहस्योद्घाटन भी तत्काल ही हो गया था। उसी दिन पता लग गया था कि उसने चयन समिति के सदस्यों को तीन लाख रुपये की रिश्वत दी थी। 

“अरुणेश, इतना बड़ा छल और इतना गहरा विश्वासघात! क्यूँ किया तुमने यह सब?”घर पहुँचते ही दीप्ति फट पड़ी थी। 

“मुझे पता लग गया था कि समिति के सदस्य भ्रष्ट हैं। अगर मैं उन्हें पैसा न खिलाता तो वे किसी और से पैसा खाकर उसका चयन कर देते,” अरुणेश ने तपाक से कहा। उसके चेहरे पर पाश्चाताप के कोई चिह्न न थे। 

“झूठ बोल रहे हो तुम,” दीप्ति की आँखों से आँसू बह निकले, “अगर तुम ईमानदार होते तो पैसा देने से पहले कम से कम एक बार तो मुझे बता देते। ऐसा न करके तुमने न केवल मेरा दिल तोड़ा है बल्कि मेरे विश्वास और मेरी आस्था को भी भंग किया है। तुम अब वो अरुणेश नहीं रहे जिससे मैंने प्यार किया था। सब कुछ बदल गया है।”

“कुछ नहीं बदला है। तुम्हारा अब भी मेरे और मेरे घर पर उतना ही अधिकार है जितना पहले था,” अरुणेश ने कहा। 

“मेरे घर! इसका मतलब क्या है?” दीप्ति तड़प उठी। जैसे एक झटके में सर्वांग नष्ट हो गया हो, जैसे आसमान में उड़ान भर रही पतंग की डोर काट दी गयी हो, जैसे शांत झील में भयंकर उल्कापात हो गया हो। अचंभित दीप्ति ने अरुणेश पर एक गहरी दृष्टि डाली फिर अपने आँसुओं को पोंछती हुई बोली, “शायद मैं कोई किरायेदार थी जो आज तक तुम्हारे घर में रह रही थी। मैं आज ही तुम्हारा यह घर छोड़ रही हूँ। अपने बैंक की चेकबुक भी छोड़े जा रही हूँ, उसमें जो पैसे हों उन्हें इतने दिनों का किराया समझ कर रख लेना।”

“दीप्ति, तुम कुछ ज़्यादा ही रियेक्ट कर रही हो,” अरुणेश के चेहरे पर हल्की सी झल्लाहट उभरी किन्तु अगले ही पल अपने स्वर को भरसक मृदु बनाते हुए बोला, “तुमने ही तो कहा था कि सलेक्शन चाहे मेरा हो या तुम्हारा, तुम्हें उतनी ही ख़ुशी होगी। अब मेरा सेलेक्शन हो गया है तो इसमें इतना बुरा मानने की क्या बात?”

“तुम्हारा सलेक्शन हुआ होता तो मैं इस घर को ख़ुशियों से सजा देती, लेकिन तुमने तो दूसरों का हक़ छीना है। अब इस छत के नीचे मेरा रह पाना सम्भव नहीं है,” दीप्ति ने फ़ैसला सुनाया। 
    
अरुणेश ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन दीप्ति उसी दिन उसके घर से चली आयी। कुछ दोस्तों से पता चला कि लखनऊ के एक डिग्री कॉलेज में लेक्चरर की पोस्ट ख़ाली है। उसने वहाँ आवेदन भेज दिया और चयन होने पर लखनऊ चली आयी। अगले ही साल उसने बैंक से लोन लेकर यह मकान ख़रीद लिया था। धीरे-धीरे चार साल कब बीत गये पता ही नहीं चला। 

वह दिन भर कॉलेज में व्यस्त रहती थी लेकिन घर आते ही अकेलापन काटने लगता था। ऐसे में सावित्री का साथ तपते हुए मरुस्थल पर बारिश की बूँदो सा कुछ राहत देता था। 

सावित्री! चार साल पहले उसके घर काम करने आयी तो जैसे उससे नाता ही जुड़ गया। दीप्ति के खाने-पीने से लेकर कपड़े उठाने-रखने तक की ज़िम्मेदारी उसने उठा ली थी। सावित्री जितनी अच्छी थी उसका जीवन उतना ही दुखों से भरा था। वही पुरानी कहानी। पति मंगलू शराबी और जुआरी। ख़ुद तो निठल्ला बैठा रहता ऊपर से सावित्री की कमाई भी मार-पीट कर छीन लेता और जुआ-दारू में उड़ा देता था। 

दीप्ति ने जाने कितनी बार समझाया था कि क्यों ऐसे निकम्मे आदमी के संग अपनी ज़िन्दगी ख़राब कर रही है मगर सावित्री पर कोई असर ही नहीं पड़ता था। रोज़ पिटती, रोज़ रोती, जी भर कर कोसती मगर फिर उस शराबी के लिये रोटी सेंकती। कभी-कभार दीप्ति के समझाने पर अगर वह पैसे देने से मना कर देती तो वह ज़ालिम पाँच साल की बच्ची पर ज़ुल्म ढाने लगता। बच्ची की चीख के आगे एक माँ के सारे संकल्प रेत के क़िले की तरह ढह जाते। 

कल शाम रोती-बिलखती सावित्री दो हज़ार रुपये एडवांस माँगने आयी थी। कारण सुन दीप्ति सन्न रह गयी थी। शराब के नशे में चूर मंगलू अपने साथ दो आदमियों को घर लेकर आया था। वह सावित्री से धंधा करवाना चाहता था। मना करने पर उसने मार-पीट कर सावित्री को उन आदमियों के संग कोठरी में बंद कर दिया था। वह तो भला हो पड़ोसियों का जिन्होंने सावित्री की चाीखें सुन पुलिस को बुला लिया था। 

पुलिस उन आदमियों के साथ मंगलू को भी पकड़ ले गयी थी और अब सावित्री उसे छुड़वाने के लिये दो हज़ार रुपये एडवांस लेने आयी थी। दीप्ति ने बहुत कहा कि कुछ दिनों तक उसे जेल की चक्कियाँ पीसने दो मगर सावित्री पैरों पर गिर गयी तब उसे दो हज़ार रुपये देने ही पड़े। 

हाँ, सावित्री! कल वह वही साड़ी पहने हुए थी जो उसने दी थी और वैसी ही साड़ी की गठरी आज उसके गेट के बाहर पड़ी हुई थी। सावित्री-साड़ी-गठरी सब गडमगड़ होने लगा। कुछ सोच कर दीप्ति उठी और खिड़की के क़रीब आकर बाहर झाँका। रौशनी अब तक तेज़ हो गयी थी। उसने साफ़ देखा कि वह गठरी नहीं सावित्री ही थी जो उसकी दी हुई साड़ी पहने गठरी सी गुड़मुड़ायी उसके गेट के बाहर पड़ी हुई थी। 

दीप्ति दौड़ती हुई बाहर आयी और सावित्री को झिंझोड़ते हुए चीख पड़ी, “सावित्री . . . सावित्री . . . क्या हुआ है तुम्हें?”

सावित्री ने कोई जवाब नहीं दिया। वह अचेत थी। आस-पास सन्नाटा बिखरा हुआ था। किसी तरह घसीट कर दीप्ति उसे भीतर लायी। उसके मुँह पर पानी की छींटे मारे तो उसने कराहते हुए आँखें खोलीं। दीप्ति ने पानी का गिलास उसके मुँह से लगा दिया। 

चंद घूँट पानी पीने से कुछ राहत मिली। उसने दीप्ति की ओर देखा फिर उसकी आँखों से आँसू बरस पड़े। 

“सावित्री . . . सावित्री . . . बताओ क्या हो गया है तुम्हें?” घबरायी दीप्ति ने उसके सिर को अपनी गोद में रखते हुए उसके बालों में हाथ फेरा। 

“बीबी जी, वह दरोगा . . .” सावित्री ने सिसकी भरी। 

“क्या किया दरोगा ने?” किसी अज्ञात आशंका से दीप्ति का कलेजा काँप उठा। 

“वह दो हज़ार रुपये में नहीं मान रहा था। मुझे अकेला देख उसने दबोच लिया और बोला अगर मंगलू को छुड़वाना है तो मेरी शर्त माननी पड़ेगी। मंगलू . . . मंगलू . . . की ख़ातिर मजबूरन मैं मान गयी मगर बीबी जी, दरोगा ने धोखा किया। पहले वह . . . फिर सिपाही . . . पूरा थाना . . . कुल आठ आदमी थे . . . चला नहीं जा रहा था इसलिये आपके गेट के आगे . . . ” इसके आगे के शब्द सावित्री की सिसकियों में खो गये। 

“बेवुक़ूफ़ . . . बदज़ात . . . यह क्या किया तूने?” न चाहते हुए भी दीप्ति के मुँह से अपशब्द निकल गये। 

“और कोई उपाय न था। बिना रिश्वत के पुलिस . . . मानती नहीं। अमीर आदमी तो धन दे देता है लेकिन . . . ग़रीब के पास तन के सिवा और कोई सहारा नहीं होता,” सावित्री के होंठ फड़फड़ाये। 

“जिस तन को तू बचाना चाहती थी उस कमीने की ख़ातिर तूने उसी तन को बेच दिया? बोल ऐसा क्यों किया? ये कैसा नाता है तेरा उससे? क्या देता वह तुझको जो उसके लिये अपनी जान देने में जुटी है?” दीप्ति हिस्टीरयाई अंदाज़ में सावित्री को झिंझोड़ते हुए चीख पड़ी। 

“छत,” सावित्री के सूखे होंठ थरथराये। 

“कैसी छत?” दीप्ति ने पूछा। 

“आप नहीं समझोगी बीबी जी, क्योंकि आपके पास सिर छुपाने को अपनी छत है,” सावित्री के होंठों पर एक फीकी मुस्कान तैर गयी, “कहाँ जाऊँगी मैं? मैके? मगर वहाँ भी हड्डियाँ गलानी होंगी, दूसरों के घर झूठे बरतन माँजने होंगे तब जाकर दो जून की रोटी मिल पायेगी। अकेली रहूँ तो अकेली औरत को नोचने चारों तरफ़ गिद्ध मौजूद हैं? मेरा पति चाहे जैसा भी हो कम से कम उसके पास एक ‘छत’ तो है मेरे लिये।”

सावित्री के होंठों से निकले शब्द पिघले शीशे की भाँति दीप्ति के कानों में दहकने लगे। छत! दो अक्षरों के बने इस शब्द की यह कैसी विभीषिका है जो सती-सावित्री-सी स्त्री को भी इतनी बड़ी क़ीमत चुकाने के लिये मजबूर कर देती है। 

“बीबी जी, अब तो पुलिस मेरे मंगलू को छोड़ देगी न? उसे मारेगी-पीटेगी तो नहीं?” तभी सावित्री के कराहते हुए होंठ हिले। उसका सतीत्व अपने सर्मपण की क़ीमत की थाह लेना चाह रहा था। 

“छोड़ ही देगी,” दीप्ति के मुँह से कराह-सी निकली। 

“एक बार मंगलू बाहर आ जाये, उसके बाद . . . ”

“उसके बाद क्या?” दीप्ति ने उसे घूरा। 

“उसके बाद . . . ” सावित्री ने अपने काँपते हाथों से इधर-उधर कुछ टटोला फिर अचानक उठ कर आँधी-तूफ़ान की तरह बाहर भाग ली। 

दीप्ति की आँखों को विश्वास ही नहीं हुआ कि पल पर पहले सावित्री के जिस जिस्म में जान ही नहीं थी वह इस तरह दौड़ सकता है। किसी अनहोनी की आशंका में वह भी सावित्री के पीछे-पीछे भागी। 

बाहर गेट के पास सावित्री ज़मीन पर कुछ ढूँढ़ रही थी। अचानक वह उठ खड़ी हुई। उसकी आँखों में एक अनोखी चमक छा गयी थी। ऐसा लग रहा था जैसे उसका खोया हुआ ख़ज़ाना वापस मिल गया हो। 

दीप्ति ने ग़ौर से देखा, सावित्री ने अपनी मुट्ठी में उसके दिये हुए पुराने मोबाइल को मज़बूती से थाम रखा था। शायद वह मोबाइल उसके बेसुध होने पर गेट के पास ज़मीन पर गिर गया था। दीप्ति को बाहर आया देख सावित्री ने अपने हाथ को ग़ुस्से से हवा में लहराया और दाँत भींचते हुए बोली, “बीबी जी, बस एक बार मंगलू बाहर आ जाये, उसके बाद . . .”

“उसके बाद क्या?” दीप्ति ने अपना प्रश्न दोहराया। 

“उसके बाद!” सावित्री की आँखों में नफ़रत के चिह्न उभर आये और वह दाँत भींचते हुए बोली, “मेरा नाम सावित्री है। अगर पति की रक्षा के लिये सती सावित्री यमराज से लड़ सकती है तो मैं भी पुलिस वालों से भिड़ सकती हूँ। मैं छोड़ूँगी नहीं उन्हें।”

“तू करना क्या चाहती है?” दीप्ति को उसकी पहेली समझ में नहीं आ रही थी। 

सावित्री ने डबडबायी आँखों से दीप्ति की ओर देखा फिर क़रीब आ हाथ जोड़ फफक पड़ी, “बीबी जी, मैंने थाने की सारी बातें इस मोबाइल में रिकार्ड कर ली हैं। एक बार मेरा मंगलू छूट जाये फिर आप इसे . . . वायरस . . . कर दीजयेगा। मैं सावित्री हूँ, अबला ही सही मगर सती का नाम है मेरे पास और उसके नाम की लाज निभानी है मुझे। इसलिये जब तक उन कुकर्मियों को सज़ा नहीं मिल जाती मेरा जीना बेकार है।”

दीप्ति फटी-फटी आँखों से सावित्री को देखे जा रही थी। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि सावित्री जैसी असहाय और अबला ऐसी हिम्मत जुटा सकती है। उसकी आँखों में वह दृश्य तैर उठा जब सावित्री ने एक दिन ज़िद कर उससे मोबाइल में रिकार्डिंग करना सीखा था। कह रही थी कि अगर हाथ में तलवार है तो उसे चलाना भी आना चाहिये। कौन जाने कब ज़रूरत पड़ जाये। 

“बीबी जी, कर दीजयेगा न इसे वायरस?” तभी सावित्री ने सिसकी भरी। 

“वायरस नहीं पगली वायरल,” दीप्ति के होंठ थरथराये। 

“हाँ बीबी जी, वही” सावित्री ने गहरी सिसकी भरी फिर भर्राये स्वर में बोली, “बताइये कर दीजयेगा न उसे?”

दीप्ति के होंठों को कोई स्वर नहीं मिले। भावनाओं के ऊफान ने उसके कंठ को अवरुद्ध कर दिया था। उसने बाँहें बढ़ा कर उसके काँपते हुए शरीर को अपने आग़ोश में भर लिया। आज की सावित्री को न्याय दिलाना अब उसकी ज़िम्मेदारी थी। 

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