ये कैसी होली है
रचना श्रीवास्तवगुलाल से सजा न अम्बर है
सुना सूना घर आँगन है
घरती भी हुई न कहीं गीली है
ये कैसी होली है
रंगों में डूबा तन मन है कहाँ
आपनों का भी न संग है यहाँ
रंग लगाती न कोई हमजोली है
ये कैसी होली है
खूब हुड़दंग मचाते थे
बुरा न मनो होली है
कहके बच जाते थे
आज सुनाई न देती ये बोली है
ये कैसी होली है
सब पे चढ़ता था प्रेम रंग
फागुन का होता है कुछ ऐसा ढंग
मौसम फागुन का पर
फगुआ गति न कोई टोली है
ये कैसी होली है
पापड़ चिप्स छत पे न फैले हैं
गुझियों की खुशबू भी आई नहीं
भंग मे डूबी न मस्तानों की टोली है
ये कैसी होली है
रंग लगाने का मनावन नहीं
रूठा कोई मनभावन नहीं
सजनी न करती सजन से ठिठोली है
ये कैसी होली है
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