रात
रचनासिंह ’रश्मि’रात के अंधकार में
परिलक्षित
जीवन के चिन्ह
प्रकाशवान
संसार से
सर्वथा भिन्न।
रात के निर्वात में
सरिता “मौन” गा रही
मस्त पवन इठला रही
अल्हड़ बेले की कली,
चटखने जा रही।
पूनम का धवल चाँद
बिखरी हुई चाँदनी,
प्रणय को उकसा रही
देख धरा मुस्कारा रही
टिमटिमाते जुगनू की
प्रेयसी बनी निशा
अपने ही शृंगार पर
मुग्ध हो रहा
हरसिंगार
तिमिर की चादर पे
बिखरे हैं
ओस के मोती
रात के अंतिम
प्रहर में, देखो!
आ गया है सुकवा
टूट गयी
निद्रा की तंद्रा
सचेत हो
उठ बैठी है दूर्वा।