क़ुर्बत इतनी न हो कि वो फ़ासला बढ़ाये
रचना श्रीवास्तवक़ुर्बत इतनी न हो कि
वो फ़ासला बढ़ाये
मसर्रत का रिश्ता दर्द में
न तब्दील हो जाये
जाना है हम को
मालूम है फिर भी
ख़्वाहिश ये के चलो
आशियाँ बनायें
खुली न खिड़की न
खुला दरवाज़ा कोई
मदद के लिए वहाँ
बहुत देर हम चिल्लाये
रूह छलनी जिस्म
घायल हो जहाँ
जशन उस शहर में
कोई कैसे मनाये
लुटती आबरू का
तमाशा देखा सबने
वख्ते गवाही बने धृतराष्ट्र
जुबान पे ताले लगाये
चूल्हा जलने से भी
डरते हैं यहाँ के लोग
कि भड़के एक चिंगारी
और शोला न बन जाये
धो न सके यूँ भी
पाप हम अपना दोस्तों
गंगा में बहुत देर
मल-मल के हम नहाये
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