मन के काग़ज़ पर
निलेश जोशी 'विनायका'बनी हुई तस्वीर तुम्हारी
मन के कोरे काग़ज़ पर
कई रंग के पुष्प खिले हैं
इंद्रधनुष से बादल पर।
क़लम चलाने जब बैठा तो
मन का काग़ज़ बोल उठा
कितना और लिखेगा मुझ पर
कोरा काग़ज़ भी खोल उठा।
काग़ज़ मन का जब कोरा था
उस पर तुमने अधिकार किया
जब घोर अँधेरा था जीवन में
हँसकर तुमने स्वीकार किया।
प्रणय निवेदन की बेला को
सोच सोच घबराता हूँ
मन के कोरे काग़ज़ की
स्याही बन अकुलाता हूँ।
रंगीन बनाकर काग़ज़ को
लिखता और मिटाता हूं
बैठ नदी के रेत किनारे
अपना मन बहलाता हूं।
उन्मुक्त गगन को देख देख
रातें छोटी पड़ जाती हैं
अतृप्त हृदय के ज़ख़्मों पर
मरहम भी रोती जाती है।
मन के कोरे काग़ज़ पर
तुमने जो लिख डाला था
अमिट स्याही से चित्र बना
अब कौन मिटाने वाला था।
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