‘मगहर’ का संत

23-03-2008

 ‘मगहर’ का संत

डॉ. राजेन्द्र गौतम

सन्दर्भ : आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जन्म-शताब्दी

20.5.1979... आज मेरे सामने यह तथ्य तलस्पर्शी झील-सा साफ़ झलक रहा है कि प्रकृति मानव से भी अधिक संवेदनशील है, या कहें ‘मानव जितना प्रकृतिमय है, उतना ही वह संवेदनशील भी है।’ मैं समझ पा रहा हूँ कि आज भीषण झंझावात और अंधड़ के माध्यम से प्रकृति अपने आँतरिक उद्वेलन को ही व्यक्त कर रही थी और उसके बाद अश्रुपात-सा नीर-वर्षण उसकी वेदना का ही विगलन था। संभवतः महान् विभूतियों का महाप्रयाण समस्त चेतनाग्राही सूत्रों को विकम्पित कर देता है। यही कारण है कि इतिहास-चेता, मूल्यस्रष्टा एवं युगद्रष्टा औघड़ पुरुष आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की श्वासगति का रुकना, सृष्टि-मात्र को सिहरा गया, उसको भीतर तक आँदोलित कर गया। कल जो घटित हुआ था, आज उसकी वेदना से नस-नस मानो ऐंठ रही थी।

उन्मुक्त, निर्मल एवं ऊर्जस्वल अट्टहास से वह व्यक्ति अपरिचित नहीं हो सकता, जिसने थोड़े-से भी क्षण वर्चस्वमंडित व्यक्तित्व के धनी ‘आचार्य जी’ के साहचर्य में व्यतीत किए हैं लेकिन आज वह अट्टहास अन्तरिक्ष की तरंगों में विलीन हो गया हो गया। आसमान पर जैसे एक धूसर सन्नाटा कुंडली मारकर बैठ गया है। आज जब उनके पार्थिव शरीर को अग्नि की लपटों ने लील लिया तो आँखों में जल भर आने के साथ-साथ होंठों पर नवगीतकार श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ की यह पंक्ति अनायास ही चली आईः 

‘अग्नि को समर्पित है एक और छन्द।‘

और यों कलियों का दोना लपटों में झुलसने के लिए अर्पित कर दिया गया। आह, अट्टहास सो गया, मेघ-मंद्र वाणी का घोष निःशेष हो गया! मानव-मात्र के कल्याण-यज्ञ के महाऋत्विक का मंत्रोच्चार अकस्मात रुक गया। समय के रथ के पहिए मानो खंडित एवं धुरीहीन होकर हठात ठहर गए हों। सब कुछ सहमा, सकुचाया, त्रस्त एवं हतप्रभ हो गया है। युगान्त!

मई की धूल भरी धूप करुण विलाप-सा करती लग रही है। साहित्यकार मित्रों के साथ निगम बोध घाट की ओर बढ़ रहा हूँ। मेरे हाथों में अमलतास के पीत पुष्पों का एक गुच्छा है। यों ही रास्ते में एक झटके से तोड़ लिया था। अमलतास इन दिनों इधर बहुत फूलते हैं।   

जब तोड़ा था, तब तो बहुत खिला-खिला था यह गुच्छ! लेकिन अब कुम्हलाता जा रहा है। इन फूलों की फीकी पड़ती कांति को देखकर मेरा मन भर आया है। इनकी भाषा को समझने वाला -- प्रकृति के मन को पढ़ने वाला -- तो आज स्वयं मूक हो गया है। मुझे लगता है कि आज तो इन पियराये वृक्षों पर उल्लास की एक भी रेखा नहीं झलकेगी। इनकी पीतवर्णी देह में झंकृति तो है परन्तु उठने वाली अनुगूँजें वेदना की हैं, उल्लास की नहीं!

मैंने अनेक बार स्वयं को उस सम्बन्ध रेखा पर टिका कर देखना चाहा, जो मेरी आचार्यश्री से बन सकती थी। मेरा उनसे कोई पारिवारिक सम्बन्ध नहीं, प्रत्यक्ष गुरु-शिष्य सम्बन्ध नहीं, उल्लेखनीय व्यक्तिगत परिचय नहीं। परन्तु लगता है, मुझे उनसे जोड़ने वाले सूत्र इन सबसे भी अधिक दृढ़ थे। जो व्यक्ति हमारे साथ इन आत्मकेन्द्रित सम्बन्धों से परे हमसे जुड़ा होता है, या जिसे हम सम्मान का, स्नेह का व अपनत्व का अधिकार सौंपते हैं, उसके पीछे कारण-स्वरूप उसका व्यक्तित्व होता है, जो स्व’ की संकीर्ण परिधि का अतिक्रमण कर व्यापक मानवीय धरातल पर सबसे जुड़ने की क्षमता रखता है, जो संसारिक सम्बन्ध से परे रहकर भी उनसे अधिक जीवन्त सम्बन्धों की सृष्टि करता है। पूज्यपाद आचार्य जी से मैं स्वयं को इसी सामान्य (और अपनी साधारणता में ही विशिष्ट भी) सम्बन्ध-सूत्र में बंधा पाता हूँ। समस्त जीवन में दो बार ही उनका नैकट्य मिला। तीसरी बार तो निगमबोध घाट पर मुंदी हुई पलकों, स्पन्दनहीन होंठों, पीताभ चेहरे एवं पुष्पों से आच्छादित उनके पार्थिव शरीर को निष्प्राण ही देख पाया। महायोगी चिर निन्द्रा में इतनी ही शांत मुद्रा में सोता होगा, जैसी उनकी मैंने देखी थी।

कितना विचित्र संयोग है। देह-विसर्जन के लिए अंततः वे आए भी तो इस माया-नगरी में। वाह रे फक्कड़ कबीर। काशी में करवट लेने की भी तुमने उपेक्षा कर दी और जीवन की अंतिम घड़ियों में इस ‘मगहर’ में चले आए। हाँ, ठीक ही तो है। तुम्हें भला मुक्ति की अपेक्षा भी क्या हो सकती है। जीवन-पर्यंत तो तुम उन्मुक्त रहे हो - सदैव निर्बंध, मनुष्य की मुक्ति के सबसे बड़े अधिवक्ता! ये शब्द और रेखाएँ ही कहाँ तुम्हारे ओढर व्यक्तित्व को बांध कर रूप देने में समर्थ हैं। कितना कुछ कहकर भी तो बहुत कुछ अनंकित ही रह जाएगा।

राजधानी का साहित्य से जुड़ा हुआ प्रत्येक व्यक्ति संभवतः यहाँ विद्यमान है। प्रत्येक के हृदय की वाष्पीकृत वेदना उनके बदहवास चेहरों पर उड़ रही है। यद्यपि भावी ने अपना संकेत बहुत पहले ही दे दिया था, पर विश्वास को तो सबने कल तक नहीं टूटने दिया था, पर वज्र प्रहार-सी लगने वाली ‘आकाशवाणी’ की घोषणा ने तो कल उसे भी खंड-खंड कर दिया था। वे उदास क्यों न हों? भारतीय साहित्य ने इतना बड़ा मानवता-प्रेमी जो खो दिया है।

मन की आँखें जब इस महामना की आकृति को - उसके व्यक्तित्व की प्रतिमा को - देखने का प्रयास करती हैं तो वह आकृति धरा और अम्बर के समूचे अंतराल में जैसे अँट नहीं पा रही है और अपने वैराट्य में भी असीम हो जाती है। वर्तमान के संदर्भ में इतिहास और संस्कृति का संश्लिष्ट प्राण-तत्त्व उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व दोनों में समाहित रहा है और इन दोनों में बसी थी - शक्ति एवं गरिमामंडित सौन्दर्य की तरल आभा! मेधा और संवेदना का घनीभूत सम्बन्ध हिन्दी अब किसमें खोजेगी? गद्य में काव्य के दर्शन उसे कहाँ होंगे? इतिहास, संस्कृति, दर्शन, ज्योतिष एवं साहित्य -- इन सभी संकायों से ऊपर ‘मानव’ की प्रतिष्ठा करने वाला अब कौन रह गया है। कहाँ गई है वह अदम्य ललकार? - ‘सत्य के लिए किसी से भी न डर, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’ यहाँ तक कि गुरु से भी एवं मंत्र से भी न डरना सत्य की रक्षा के लिए आवश्यक है।

आह, यह कैसा आघात है। काल के इस निष्ठुर प्रहार ने परम्परा और आधुनिकता के सेतु को ही हिलाकर रख दिया है। अणिमा और अतिमा का सम्बन्ध-सूत्र अब कौन जोड़ेगा! सर्जनात्मक समीक्षा और समीक्षात्मक सर्जन की झंकृति अब किसमें सुनें! लोकवेद का रचयिता ऋषि कहाँ अदृश्य हो गया? आह, मनीषी कितनी सार्थक थी तुम्हारी चिंता -- ‘अगर निरन्तर व्यवस्थाओं का संस्कार और परिमार्जन नहीं होता तो एक दिन व्यवस्थाएँ तो टूटेंगी ही, अपने साथ धर्म को भी तोड़ देंगी।’

आचार्य आजीवन ‘जलौघमग्ना सचराचराधरा’ के समुद्धार के लिए ही चिंतित रहे। राष्ट्र एवं जाति की गरिमा को स्वार्थ, शोषण, अत्याचार एवं दुशील की बाढ़ में डूबते-उतराते देख ‘कवि’ जिस ‘वराह-रूपिणा’ ‘स्वयंभूर्भगवान्’ के प्रसन्न होने की प्रार्थना बार-बार करता है, उसका अवतरण लोक की शक्ति से ही होगा - इसका भी उसे पूरा-पूरा विश्वास है। लोक के प्रति अनन्त विश्वास का ही तो संस्थापक है - ‘अनामदास का पोथा’! लेकिन आज ऐसे ‘रैक्व आख्यान’ की रचना कौन करेगा? संभवतः हमारे पास कोई उत्तर नहीं है। दिशाओं का मौन कह रहा है कि हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। हो भी कहाँ से? क्या कोई वामन हाथ बढ़ कर न छ सकेगा? इस पराक्रम के लिए तो अक्षय-पुरुष को ही अवतरित होना पड़ेगा।

बण्ड... सचमुच बण्ड था वह। उसके प्रत्येक उच्चरित शब्द में ऊर्जा का ऐसा संस्पर्श रहता था कि वह साहित्य ही बन जाता था। सर्जना का उद्वेलमय स्रोत था वह। कैसी ऊष्मा से संसिक्त था उसका कर्तृत्व! कैसी अद्भुत थी उसकी शब्द-संकल्पना! भला ‘बण्ड’ की तद्भवता के आगे किसी ‘बाणभट्ट’ की तत्समता कैसे ठहर सकती है?

यदि कोई शास्त्रवेत्ता पंडित अपने गुरु-ज्ञान-गर्व में चूर हो विश्व को हिकारत की नजर से देखता हुआ उच्चता की गजदंती मीनार में अवस्थित हो प्रवचन करता हो तो उसके वाग्जाल में किसी का भी हृदय फँस सकेगा, इसमें संदेह है परन्तु यदि कोई जटिल मुनि बच्चों की दूधिया हँसी से ही विश्व को स्नात कराता हो और जिसका भोलापन सरलता की चरम सीमा हो और जो प्रातिभ विद्वान होकर भी अहंकार शून्य हो, उसकी निःसर्ग मुस्कान किसी को मुग्ध न करे, यह अविश्वसनीय होगा। आचार्यश्री ने क्या अपने भोलेपन की प्रतिमूर्त्ति के रूप में ही ‘रैक्व’ को नहीं गढ़ा है। यह रैक्व भोला तो है पर उसका भोला अनुराग भी मनुष्य-प्रेम में ढला है। कोई भी यदि आचार्य द्विवेदी के दर्शन करना चाहता है तो इन शब्दों में वह सरलता से उनका चेहरा देख सकता है – ’मेरे पास अगर वह बुद्धि की परीक्षा लेने आएगी तो उसे गाड़ी खींच कर दीन-दुखियों तक खाद्य पहुँचाने को कहूँगा। इसी में उसकी बुद्धि की परीक्षा हो जाएगी। माँ, जो दीन-दुखियों की सेवा नहीं कर सका, वह क्या बुद्धि की परीक्षा करेगा। मैं अब थोड़ा-थोड़ा रहस्य समझने लगा हूँ। कोरी वाग्-वितंडा ज्ञान नहीं है।’

ऐसा मनुष्य दरिद्र-नारायण का पक्षधर भला कैसे हो सकता है, जिसमें मात्र प्राप्ति की लिप्सा है, जो लुब्ध होना ही जानता है? यह विशेषता तो उसी में संभव है, जिसने देने को ही जीवन का आदर्श मान लिया है। आचार्यश्री के कथा-जगत् के मानक पात्र भी तो ऐसे ही हो सकते थे। किसी भी रचनाकार की प्रत्येक कृति में उसका जीवन-दर्शन आवर्ती अनुगूंज की भांति बसा रहता है। द्विवेदी जी का जीवन-दर्शन ‘देना’ ही है। इसीलिए यह स्रष्टा ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में ‘अपने को निःशेष भाव से दे देने’ की बात करता है तो ‘पुनर्नवा’ में वह लिखता है - ‘तुम पाना चाहते हो? कैसे पाआगे प्रभो! भगवान ने तुम्हें ग्रहीता भाव दिया ही नहीं। तुम्हारा स्वभाव देना है, लुटाना है, अपने आपको दलित द्राक्षा की भांति निचोड़ कर महाअज्ञात के चरणों में उड़ेल देना है।’ और सचमुच वह औघड़दानी स्वयं को दलित द्राक्षा-सा निचोड़कर -- सब कुछ देकर -- चला गया!

...लो, अब लौटना ही होगा। धुआँ उठने लगा है। लपटें ‘सीदीमौला’ को लीलने लगी हैं। चिता जहाँ बनी है, उसके पास ही खड़ा है एक तापस अश्वत्थ। लपटें उठीं। नयी फूटी लाल कोपलें झुलस गईं। पत्तियां दर्द से सिकुड़ने लगीं। मृत्यु का निरन्तर साक्षी बना रहने वाला अश्वत्थ अपनी दार्शनिकता एवं अलिप्तता को भूल विह्वल हो उठा।

श्मशान से बढ़कर कोई शिक्षक (मूक शिक्षक!) मुझे नहीं मिला। उसी शिक्षक का उपदेश ग्रहण कर मैं भारी मन से लौट आया हूँ। मुझे निरन्तर यह लगता रहा कि इनकी चिता के आस-पास कितनी ही अमूर्त्त सृष्टियाँ खड़ी थीं। उनके उपन्यासों के पात्र जैसे उपन्यासों से बाहर निकल हमारे जीवन का हिस्सा ही बन गए हैं। कितनी आकृतियाँ साकार हो रही हैं और वे हमें अपने चारों ओर नजर आती हैं। यहीं कहीं निउनिया -- ‘निपुणिका’ खड़ी होगी। ‘मैना’ भी और बाणभट्ट अर्थात ‘बंड’ भी आसपास ही होंगे। यहीं खड़ी होगी ‘चन्द्रदीधिति भट्टिनी’! और यहीं कहीं निकट ही होगी ‘मंजुला’। सीदीमौला भी तो यहीं होने चाहिएँ। यहीं होंगे ‘अनामदास’ व ‘देवरात’! यहीं कहीं होगी ‘चन्द्रलेखा’ और यहीं होगी ‘मृणाल मंजरी’!

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