लापरवाही का ख़म्याज़ा
बबिता कुमावत
मैं तृतीय श्रेणी अध्यापिका के पद पर कार्यरत थी। लेकिन मैं चाहती थी कि अंग्रेज़ी विषय से स्नातक कर लूँ। जिससे द्वितीय श्रेणी पद पर मेरी पदोन्नति हो सके।
इसके लिए मैंने फार्म भरा और तैयारी शुरू की। जैसे ही परीक्षाएँ नज़दीक आई, मैंने पढ़ने की रफ़्तार बढ़ा दी।
टाइम टेबल आया, मैं परीक्षा देने पहुँची।
मैंने एक पेपर दे दिया व घर आ गई गई। दूसरा पेपर चार दिन के अंतराल के पश्चात था।
मैं बस पढ़ने में लगी रही प्रवेश पत्र की तरफ़ ध्यान नहीं दिया। चार दिन पश्चात पेपर देने पहुँची तो पेपर शुरू होने में एक घंटा बाक़ी था मैंने सोचा, “क्यों नहीं मैं थोड़ी देर और पढ़ाई कर लूँ।”
लेकिन मैंने क्या देखा? जो विद्यार्थी पहले पेपर में मेरे साथ थे। वे हाथ में पेपर लेकर परीक्षा कक्ष से बाहर आ रहे थे। मेरा मुँह खुला का खुला रह गया।
मैंने उनसे पूछा “तुम ये पेपर लेकर कहाँ से आ रहे हो?”
उनमें मेरी एक सहेली थी उसने पूछा, “तुम कहाँ थी? पेपर तो हो गया।”
मैं हतप्रभ थी कि ये कैसे हुआ?
मैंने अपना प्रवेश पत्र खोल कर देखा। वास्तव में पेपर का समय पहले पेपर की बजाय अलग था। मैं बहुत दुखी हुई। मेरे दोस्तों ने मुझे सांत्वना दी।
दरअसल मैंने पेपर का समय नहीं देखा था, जिसका मुझे ख़म्याज़ा भुगतना पड़ा। मैं निराश क़दमों से घर आ गई . . . अपनी ग़लती व लापरवाही के कारण मैं पछता रही थी।