गाँव के खेत की मेढ़

01-04-2025

गाँव के खेत की मेढ़

कमल कुमार (अंक: 274, अप्रैल प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

चाचा और पिता लड़ते रहे
तेरह साल—चकबंदी दफ़्तर के चक्कर, 
पटवारियों की जी-हुज़ूरी। 
 
गाँव के खेत की मेढ़—
कभी चाचा ने काटकर बारह कर दी, 
कभी पिता ने उस पर खींची समानांतर रेखा। 
 
दोनों ने उसी मेढ़ पर
जानलेवा गालियाँ दीं—
एक-दूसरे को, माँ की, 
जो दोनों की एक ही थी। 
 
अफ़सर ले गए
दोनों घरों से
साल भर का ख़र्चा, 
अदालतों के हिस्से का ब्याज। 
दोनों ने चुकाया, अलग-अलग। 
 
खेत में उगती रही
सरसों, गेहूँ और मक्का, 
मेढ़ पर उगती रही नफ़रत। 
 
मैंने मेरे चचेरे भाई को
प्लास्टिक की गेंद खिलाई, 
वो नहीं पहुँची उसके बल्ले तक—
बीच में आ खड़ी हुई
गाँव के खेत की मेढ़। 
 
चाची को मिर्गी का दौरा पड़ता रहा, 
माँ नहीं लाँघ पाई
गाँव के खेत की मेढ़। 
 
दादा के श्राद्ध पर
दो जगह आए बामन, 
बीच में आई—
गाँव के खेत की मेढ़! 

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