भोर भई अब बासी रे!
आंचल सोनी ’हिया’सुन! साधु औघड़ संन्यासी
मोह माया मुक्त मुसाफ़िर रे!
ले चल मुझको आन देश
यहाँ की भोर भई अब बासी रे।
यहाँ की मिट्टी दूषित भई अब
इसे मिट्टी नहीं धूल पुकारें सब।
यहाँ की हवाओं में छल कपट
मोह माया युक्त प्रदूषण रे।
संसारिक मोह माया से दूर
ले चल मुझको तू दूर शहर।
ढूँढ़ डगर उस बस्ती की तू
जहाँ शृंगार का भी ना कोई साथी रे।
सुन साधु औघड़ संन्यासी
यहाँ की भोर भई अब बासी रे।
ले चल मुझको आन देश
यहाँ की साँस भी मुझ पर भारी रे।
ले चला एक औघ ऐसा तू
जिसमें छल कपट सारे बह जाएँ।
हो रफ़्तार बहाव में तेरी की
भवन मोह माया के ढह जाएँ।
उस औघ में तू मुझको भी समेट ले
बहा संग अपने कहीं दूर धकेल दे।
हो कोलाहल से दूर बस्ती ऐसी
जहाँ हों प्रकृति के असली वासी रे।
एक निशा तू कान्हा हित सी करना
सबको गहरी निद्रा दे चलना।
ज्यों ही भोर भए पूर्व उससे
सबकी स्मृति से मेरा हिस्सा ले चलना।
जो फिर भी कोई ना भूल पाए
प्रश्नों की बाढ़ चली जाए।
जो पूछ बैठें कुटुंब सदस्य हमारे
कहाँ गई मेरी सुता रे।
तो कह देना कल औघ आया था
उसमें बह गई तेरी सुता रे।
जो पूछ बैठे मेरे प्रेम का साथी
कहाँ गई मेरी हृदय की वासी रे।
तो कह देना शृंगार रस एवं मायामुक्त
वह बन बैठी एक मुसाफ़िर रे!
माया मुक्त होना छल ना समझना तू
वह तो तेरे आत्मसदन की वासी रे!
सुन साधु औघड़ संन्यासी
मोह माया मुक्त मुसाफ़िर रे!
ले चल मुझको आन देश
यहाँ की भोर भई अब बासी रे।
इसी जगत बीच एक कोना ऐसा भी
जहाँ सुख शांति समृद्धि हो।
ना हो कोई कोलाहल मचाने को
बस कण में गूँजती पुकार आत्मिक हो।
ऊपर देखूँ तो नीला गगन हो
नीचे देखूँ तो मनमोहक चमन हो।
अगल देखूँ तो पर्वत हो साथी
बगल देखूँ तो नदियों का पानी।
पीछे देखूँ तो महसूस होती हवाएँ
सामने देखूँ तो दूर दिशाएँ।
इस दूर दिशा को नापन ख़ातिर
मैं अकेले पथ पर चलती जाऊँ।
पर पल हर क़दम पर मैं
सुकून शांति की अनुभूति करती जाऊँ।
स्थिर संन्यासी की भाँति नहीं
मैं घुमंतू मुसाफ़िर बनती जाऊँ।
सुन साधु औघड़ संन्यासी
मोह माया मुक्त मुसाफ़िर रे!
ले चल मुझको आन देश
यहाँ की भोर भई अब बासी रे॥