इस बादल का जल
काजल-भर
ज्योतित रेख नहीं कोई।
इसके गर्जन से
थर्राता
चिंताकुल बूढ़ा आकाश
लादे है
यह वसुंधरा भी
छाती पर केवल संत्रास
अंधियारे
सब गलियारे हैं
दीपित लेख नहीं कोई।
कीच-भरी
धँसती आँखों सी
टपक रहीं हैं खपरैलें
मन के
सब विश्वास डुबाए
फैले जोहड़ मटमैले
आश्वासन के
दूर क्षितिज तक
अब आलेख नहीं कोई।
अपने संग ले गई
बहा कर
सपने सब जंगली नदी
खड़े तटों पर
बचे लोग
हैं देख रहे डूबती सदी
सुनते भर हैं
गाँव यह था
पाया देख नहीं कोई।