स्वार्थ और सत्ता
डॉ. हरि जोशीवह कुछ दिन पूर्व ही मंत्री पद से हटे थे। एक दिन एकांत में बैठे-बैठे वह चींटों को देख रहे थे। चींटे भागे चले जा रहे थे, क़तारबद्ध, बेतहाशा, दूसरे डले की ओर। पहले डले का सारा गुड़ वह चट कर चुके थे। शायद भूख से तिलमिलाए हुए थे? बड़ी संख्या में भी थे। धीरे-धीरे गुड़ का डला, डला न रहकर मात्र एक कंकर रह गया था।
उन्होंने देखा सभी तरह के चींटे लाल–काले, बड़े-छोटे, तेज़ या धीमे चलने वाले एक लक्ष्य ही साधे हुए हैं, किस प्रकार शीघ्रातिशीघ्र पहुँचकर दूसरे डले का अधिकाधिक गुड़ चट किया जाये? जब चींटे पहले डले के गुड़ को खा रहे थे, तब उन्होंने एक-दो को हटाने की कोशिश भी की थी किन्तु चींटों ने उलटे उनपर ही प्रत्याक्रमण कर दिया था। यह उन्हें हटाते, और वे इन्हें काटते। सारे चींटे टुकड़े-टुकड़े हो गए किन्तु उन्होंने मुँह को गुड़ में ही गड़ाये रखा।
चींटों की चींटियों की लम्बी-लम्बी क़तारें सभी दिशाओ में एक ही लक्ष्य से भागी चली जा रही थीं। दरवाज़ों से, खिड़कियों से, यहाँ तक कि छत पर से कूद रहे थे समर्थ और दादा चींटे।
उनके लिए मीठा था गुड़ से भरा हुआ पूरा नया डाला। पुराना डला जो मात्र कंकर रह गया था, एक दम अकेला पड़ा हुआ था।
अब क्या वह स्वयं मात्र कंकर रह गए हैं? सोचते-सोचते चींटों-चींटियों की आपाधापी से अपना मुँह मोड़ लिया। बाहर खिड़की से झाँक कर देखा उनके सभी समर्थक नए कुर्सीधारी के हो चुके थे। समर्थक किसी एक व्यक्ति के तो कभी रहते नहीं? मात्र पद या सत्ता के होते हैं। अब उनके समर्थकों के पाँव, नए मंत्री की ओर जा रहे थे।
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