साहित्यिक पत्रकारिता के उन्नायक: पं. बालकृष्ण भट्ट

02-07-2016

साहित्यिक पत्रकारिता के उन्नायक: पं. बालकृष्ण भट्ट

डॉ. बृजेन्द्र कुमार अग्निहोत्री

23 जून 1844 ई. को प्रयाग में व्यापारी पिता बेनीप्रसाद भट्ट और माता पार्वती देवी के घर पं. बालकृष्ण भट्ट का जन्म हुआ। माता द्वारा प्रदत्त सु-संस्कारों ने इनके अन्दर अध्ययन के प्रति विशेष रुचि जाग्रत की। इनके पिता एवं संबंधी यह चाहते थे कि वे पैतृक व्यापार में लगें, किंतु बालकृष्ण जी का मन व्यापार में नही लगा। भट्ट जी के व्यापार में रुचि न लेने का कारण इनके घर में प्रायः गृह-कलह होती, जिससे ऊबकर बालकृष्ण जी को अपना पैतृक घर छोड़कर अलग रहने के लिए बाध्य होना पड़ा। घर-परिवार से अलग होने के बाद इन्हें अपना जीवन अर्थाभाव से उत्पन्न विभिन्न समस्याओं के मध्य व्यतीत करना पड़ा। ये समस्याएँ पं बालकृष्ण भट्ट के स्वाभिमानी-व्यक्तित्व के विकास में सहायक ही बनीं। इन्होंने अपना संपूर्ण जीवन हिंदी साहित्य और पत्रिकारिता को समर्पित कर दिया। हिंदी साहित्य के इस प्रवर योद्धा का निधन 20 जुलाई 1914 ई. को हुआ।
भारतेंदु युग के रचनाकारों में पं. बालकृष्ण भट्ट का स्थान केवल भारतेंदु हरिश्चंद्र के बाद आता है। आधुनिक हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के विकास में एक निबंधकार और संपादक के रूप में.इनका महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। हिंदी साहित्य में व्यावहारिक आलोचनाओं के प्रारंभिक प्रवक्ता पं. बालकृष्ण भट्ट निर्विवाद रूप से स्वीकार किये जाते हैं। "हिंदी प्रदीप" में प्रकाशित एक व्यावहारिक समालोचना "एडिटरों की टरटर" का अंश दृष्टव्य है-

"हिंदी पत्रों के जितने संपादक हैं सबों को मैं जानता हूँ जो कुछ और जितनी उनकी पूँजी है उसे भी हम अच्छी तरह जानते हैं। बहुधा तो हिंदी की दो एक किताबें पढ़ पढाय तुलसीदास की रामायण या मिडिल क्लास में जो गुटका प्रचलित है वह उनकी हिंदी की लियाक़त का छोर है। बस इतनी ही पूँजी से वे संपादक बनना चाहते हैं- शुद्ध संस्कृत शब्द लिखने का भी उन्हें शऊर नहीं है तब संस्कृत का व्याकरण या संस्कृत का साहित्य समझना तो बहुत दूर है। इस पूँजी पर हिमाक़त उन्हें यह है कि हम ऐसों पर बहुधा आक्षेप कर अपनी कलई खुलवाना चाहते है। उन्हें चाहिए हमारा लेख पढ़ें और लिखना सीखें, न कि हम पर बहुधा आक्षेप कर अपनी कलई खुलवायें। हम कहते हैं एक पेज भी तो ऐसा वे लिख लें जैसा हमारा लेख होता है। हम चाहे छह महीने में एक बार प्रकाश में आयें पर अपने लेख से पढने वालों का मनोरंजन अवश्य कर देंगे। हाल में बेंकटेश्वर समाचार के किसी पत्र-प्रेरक ने हम पर कुछ ताना लिखा है. अभी तो बेंकटेश्वर जी जनमें हैं कुछ दिन चले तो जानेंगे कि लेख और पत्र चलाना कैसा होता है।"1

पं. बालकृष्ण भट्ट सजग पत्रकार-संपादक होने के साथ उत्कृष्ट रचनाकार भी थे। इनके "कलिराज की सभा", "रेल का विकट खेल", "बाल विवाह नाटक", "जैसा काम वैसा परिणाम", "आचार विडंबना", "भाग्य की परख", "षड्दर्शन संग्रह" आदि चर्चित लेखों के अतिरिक्त "पद्मावती", "शर्मिष्ठा", "चंद्रसेन", "किरातार्जुनीय", "पृथु चरित", "शिशुपाल वध", "नल दमयंती", "शिक्षा दान", "नई रोशनी का विष", "वृहन्नला", "सीता वनवास", "पतित पंचम", "नूतन ब्रह्मचारी" और "सौ अजान एक सुजान" इत्यादि उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। हिंदी साहित्य में भट्ट जी की गणना एक उत्कृष्ट निबंधकार के रूप में की जाती है। इनके निबंधों में शैली की प्रांजलता और भावनाओं का अद्भुत उभार दृष्टिगत होता है। इनके निबंधों में "पुरुष अहेरी की स्त्रियाँ अहेर हैं", "ईश्वर की भी क्या ठठोल है", "नाक निगोड़ी भी बुरी बला है", "अकल अजीरन रोग", "भकुआ कौन कौन है", "हम डार-डार तुम पात-पात", "पंचों की सोहबत", "अब तो बासी भात में भी खुदा का साझा होने लगा", "इंग्लिश पढ़े सो बाबू होय" आदि विशेष चर्चित रहे। इनके निबंधों का संकलन "भट्ट निबंधावली" नाम से हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग द्वारा कई भागों में प्रकाशित हुआ है।

पं. बालकृष्ण भट्ट ने अपने साहित्यिक व्यक्तित्व के माध्यम से तत्कालीन समय के अनेक लेखकों को प्रेरित और प्रभावित किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र से प्रेरणा ग्रहण करके पं. बालकृष्ण भट्ट ने सितंबर 1877 ई. को प्रयाग से "हिंदी प्रदीप" नामक मासिक पत्र का संपादन-प्रकाशन आरंभ किया। "हिंदी प्रदीप" एक साहित्यिक पत्र था, जिसमें हास्यपूर्ण और गंभीर दोनों प्रकार की साहित्यिक रचनाओं का प्रकाशन होता था। यह पत्र फरवरी 1910 ई. के अंक के प्रकाशनोपरांत बंद हो गया। हिंदी पत्रकारिता के प्रारंभिक समय में लगातार 33 वर्षों तक एक गंभीर साहित्यिक पत्र का संपादन-प्रकाशन करना, पं. बालकृष्ण भट्ट के साहित्यिक महत्व को स्थापित करता है। यह महत्व पं. बालकृष्ण भट्ट की असाधारण लगन और कर्मठता से हिंदी प्रेमियों को परिचित कराकर हिंदी जगत को गौरवान्वित कर नवोदित रचनाकारों में प्रेरणा का संचार करता है। "हिंदी प्रदीप" के माध्यम से भट्ट जी ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में योगदान प्रदान करने के साथ राष्ट्रीय चेतना को बलवती बनाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। "हिंदी प्रदीप" का प्रकाशन एक व्यापक साहित्यिक-सांस्कृतिक और सामजिक चेतना को उद्बुद्ध करने का लक्ष्य लेकर किया गया था। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पं. बालकृष्ण भट्ट ने सरकारी-नीतियों, ग्राहकों और अर्थाभाव से उत्पन्न अनेक समस्याओं का मुक़ाबला करते हुए निरंतर 33 वर्षों तक "हिंदी प्रदीप" का संपादन-प्रकाशन किया। जहाँ "हिंदी प्रदीप" के आरंभिक अंक भारतेंदु युग से पूर्णतः प्रभावित हैं, वहीं द्विवेदी युग में प्रकाशित "हिंदी प्रदीप" के अंकों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा निर्देशित साहित्य विधाओं की झलक दृष्टिगत होती है। इस तरह हम देखते हैं कि पं. बालकृष्ण भट्ट ने आधुनिक हिंदी साहित्य के दो महत्वपूर्ण युगों- भारतेंदु युग और द्विवेदी युग में अपनी उत्कृष्ट साहित्यिक पत्रकारिता के माध्यम से अपनी गरिमामयी उपस्थिति दर्ज करा कर एक अलग पहचान स्थापित की, जिसके कारण वह आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माताओं में श्रेष्ठ स्थान के अधिकारी हैं। हिंदी साहित्य के लिए व्यक्तिगत रूप से त्याग करने वाला पं. बालकृष्ण भट्ट जैसा साहित्यकार-पत्रकार हमें हिंदी साहित्य में कठिनता से मिलेगा।

पं. बालकृष्ण भट्ट ने परंपरावादी होते हुए भी परंपरा का अंधानुकरण कभी नहीं किया। भट्ट जी ने परंपरा को विश्लेषणात्मक पैनी बुद्धि और सतर्क मस्तिष्क से देखा-परखा, उसके पश्चात ही अनुकरण के बारे में विचार किया। पं. बालकृष्ण भट्ट निष्प्राण परंपरा और पाखंडपूर्ण धर्म को कभी स्वीकार नही करते थे। उनका प्रगतिशील दृष्टिकोण और सजग साहित्य-सृजन हिंदी साहित्य में सदैव स्मरण किया जायेगा। चिरंजीत पं. बालकृष्ण भट्ट को हिंदी की राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रकारिता का प्रवर्तक घोषित करते हुए लिखते हैं- "हिंदी साहित्य के इतिहासकार भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र को हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का जनक मानते हैं और मानते हैं कि सन् 1868 ई. में प्रकाशित पत्रिका "कविवचन सुधा" और सन् 1873 ई. में प्रकाशित "हरिश्चंद्र मैगजीन" हिंदी की पहली साहित्यिक पत्रिकाएँ थीं। जब हम इन दोनों की तुलना "हिंदी प्रदीप" से करते हैं, तो विषयवस्तु एवं विधागत विविधता की दृष्टि से हिंदी प्रदीप" को हम श्रेष्ठ पाते हैं। हमारा मत है कि 1857 ई. की सैनिक-क्रांति की विफलता के बाद "हिंदी प्रदीप" हिंदी का पहला मासिक पत्र था, जिसने साहित्य को प्रखर राष्ट्रीय चेतना से जोड़कर बड़ी निर्भीकता से जन-जागरणोन्मुख बनाया था और जिसे अपने तीखे राजनीतिक तेवर के कारण एक दो बार तत्कालीन ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन भी बनना पड़ा था। इसी कारण हम मानते हैं कि "हिंदी प्रदीप" के संपादक पं. बालकृष्ण भट्ट हिंदी की राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रकारिता के सच्चे प्रवर्तक थे।"2

पं. बालकृष्ण भट्ट केवल अपनी लेखनी का प्रचार-प्रसार करने वाले साहित्यकार-पत्रकार नहीं थे, अपितु उनकी तटस्थ और संतुलित दृष्टि हिंदी साहित्य और पत्रकारिता जगत का अवलोकन सदैव सजगता के साथ करती थी। जो उनकी दृष्टि में सही होता, उसका वह समर्थन करते और जो उन्हें पसंद नहीं आता, उसकी खुलकर आलोचना करते थे। इस संबंध में "हिंदी प्रदीप" की संपादकीय टिप्पणी दृष्टव्य है- "संपादक को धुँधला तथा उजला दोनों भाग दिव्य दृष्टि से देखना चाहिए। कलकत्ते की पत्रिका सदृश न हो कि गवर्नमेंट के हर एक काम में दोष ही निकाला करें, अंगरेजी शासन में कुछ भलाई भी है कभी एक बार संपादक महाशय अपनी फुटही जबान में नहीं कहते। सुयोग्य संपादक के लिखने का असर राजा प्रजा दोनों पर भरपूर पड़ता है, सर्वसाधारण के दुःख को राजा कर्मचारियों तक पहुँचाने को संपादक का लेख अद्भुत द्वार है। जिसके निःस्वार्थ और पक्षपात रहित लेख का ऐतबार सबको रहता है। देश का सच्चा बंधु जैसा संपादक है वैसा दूसरा नहीं है तब संपादक का जितना मान और प्रतिष्ठा की जाय कम है।"3

इनके साहित्यिक अवदान में वैयक्तिकता के साथ निर्भीकता, निश्छलता, परदुःखकातरता, सहृदयता, उग्रता, कर्तव्यपरायणता, राष्ट्रीयता, तेजस्विता और हास्यप्रियता का अद्भुत संगम मिलता है। इसीलिए कुछ विद्वानों ने इन्हें "अविष्कारक गद्य लेखक" की संज्ञा देते हुए इनकी तुलना अंग्रेज़ी के निबंध रचनाकार एडिशन, स्टील और चार्ल्स से की है। निष्कर्षतः पं. बालकृष्ण भट्ट हिंदी साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता के ऐसे महान दृष्टा और उन्नायक थे, जिनके उन्नयन की कहानी की वाणी साहित्यिक पत्रकारिता से प्रस्फुटित होकर युग-प्रतिष्ठित हुई।

-बृजेन्द्र कुमार
शोधार्थी, हिंदी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय
शिलांग (मेघालय) 793022
मो. 9918695656

संदर्भ

1. हिंदी प्रदीप, बालकृष्ण भट्ट (सं.), दिसम्बर 1896, पृष्ठ-20
2. राष्ट्रीय पत्रकार और अनन्य साहित्यकार: बालकृष्ण भट्ट, डॉ. पद्माकर पाण्डेय (सं.), चिरंजीत द्वारा लिखित आलेख "हिंदी की राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रकारिता के प्रवर्तक: बालकृष्ण भट्ट, पृष्ठ-64
3. हिंदी प्रदीप, बालकृष्ण भट्ट (सं.), मार्च 1906, पृष्ठ-8

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