रिश्तों का मेला

01-12-2020

रिश्तों का मेला

निलेश जोशी 'विनायका' (अंक: 170, दिसंबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

जियो तो ऐसे कि अगले पल जाना है
अच्छा और बुरा तो सिर्फ़ बहाना है
आए भी अकेले तो जाना भी अकेला है
ज़िंदगी तो केवल कुछ रिश्तों का मेला है।
 
कोई दोष नहीं होता इंसान का यहाँ
जगत के हर प्राणी ने यही तो झेला है
जन्म पर हँसाना और मौत पर रुलाना 
अब तक यही तो सभी ने खेल खेला है।
 
यूँ तो रिश्ते बहुत बनते हैं ज़िंदगी में
कभी पुत्र भाई पति और पिता होता है
वक़्त के अनुसार पद बदल देते हैं हम
हर किरदार का अपना महत्व होता है।
 
हर मानव की अपनी कहानी होती है
भीड़ में रहकर भी अंदर से अकेला है
रिश्तों को बचाने की मजबूरी है उसकी
भीड़ में रहकर रिश्तों की, जाना अकेला है।
 
रुपए पैसे की ललक भी कैसे दिन दिखाती है
माँ बाप है तन्हा रहते उधर बेटा भी अकेला है
रिश्तों के इस मेले में कहाँ प्रेम दिखता है
जानता है वही जिसने यह दर्द झेला है।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें