रामदरश मिश्र के प्रतीक: एक व्यापक सर्वेक्षण

19-01-2016

रामदरश मिश्र के प्रतीक: एक व्यापक सर्वेक्षण

डॉ. दयाराम

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य जगत् में डॉ. रामदरश मिश्र एक बहु-आयामी गम्भीर अध्ययनशील और गतिशील व्यक्तित्व के धनी रचनाकार है। उनकी साहीत्य-यात्रा का प्रारम्भ काव्य लेखन से हुआ और कवि व्यक्तित्व शीर्ष पर है। उनके काव्य में समकालीन समाज-जीवन का यथार्थोन्मुखी चित्रण मिलता है। इस यथार्थ के विवेचन-विश्लेषण में कवि ने प्रतीकों का अहम भूमिका है। रामदरश मिश्र के काव्य में प्रयुक्त प्रतीक उनकी अनुभूति विशेष के शाब्दिक प्रतिरूप है। उनके काव्य में प्रतीकों की बहुलता मिलती है। मिश्रजी के प्रारम्भिक काव्य-संग्रह ‘पथ के गीत’ और ‘बैरंग बेनाम चिट्ठियाँ’ में प्राकृतिक प्रतीक मिलते हैं तो उसके परवर्ती काव्य-संग्रहों ‘कंधे पर सूरज’, ‘दिन एक नदी बन गया’, ‘जुलूस कहाँ जा रहा है’, ‘कभी-कभी इन दिनों’, ‘बारिश में भीगते बच्चे’, ‘आम के पत्ते’ आदि में राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक आदि विषयों से जुड़े प्रतीक मिलते हैं। मिश्रजी ने ज्यादातर उन प्रतीकों को अपनाया है जो स्वार्थ, भ्रष्टता, शोषण, भूख, गरीबी, विद्रोह, आक्रोश, प्रेम, भावुकता, पीड़ा, अवसाद, अकेलेपन, ऊब, सांस्कृतिक विघटन, पारिवारिक विघटन आदि का अर्थ व्यक्त करते हैं।
मिश्रजी की सम्पूर्ण काव्य-यात्रा में वसन्त, सड़क, जल, गठरी, फागुन, धूप, साँप व जंगल प्रतीक के रूप में बार-बार आये हैं। उनके प्रारम्भिक काव्य में छायावादी प्रभाव स्पष्ट झलकता है। यहाँ उन्होंने वसन्त, फागुन आदि प्राकृतिक प्रतीकों के माध्यम से यौवन, उल्लास, प्रेम व मस्ती को व्यक्त किया है। ‘वसन्त आ रहा है’ कविता में कवि फूल को सम्बोधित करता है जो प्रेयसी का प्रतीक है अर्थात् वसन्त प्रिय के आगमन का प्रतीक बन जाता है-

“ओ कोई अज्ञात फूल!
मेरी साँसें तुम्हारी सुरभि से पागल हो गयी हैं
और न जाने क्यों रह-रहकर ऐसा लग रहा है
कि
वसन्त आ रहा है।”1

वसन्त के आने व उसकी हवा बहने से शुष्क मन में रंग भर जाता है, यौवन जाग जाता है और कवि मन दीवानगी की कल्पना से भर जाता है-

“आओ प्रिय!
आज तुम्हारे सहमे अधरों पर
कस दूँ ये स्वर अनंत
देखो आया वसंत”2

एक तरफ वसन्त उल्लास व प्रेम जाग्रत करता है वहीं दूसरी ओर महानगरों में बेपहचान होकर बैठा-बैठा सोचता है। स्पष्ट है कि वसन्त स्वयं निराशा व बेपहचान का प्रतीक बन जाता है-

“बसों में फट गये हैं
रेश्मी वस्त्र और साज
धूल से भर गए हैं लहरीले कोमल कुन्तल
टूट गया है ताज
कई दिनों से पागल-सा भटक रहा है
सड़कों, गलियों, पार्कों, कॉफ़ी घरों में
आह, कोई नहीं पहचानता अब यहाँ
सोच रहा है बेंच पर बैठा-बैठा
थका ऋतुराज”3

‘पतझर’ को कवि आशा व विश्वास का प्रतीक मानकर चित्रित करता है क्योंकि पतझर के बाद वसन्त का आगमन होता है। ‘पतझर की दोपहर’, ‘पतझर की अनुभूति’ आदि कविताओं में इसका चित्रण हुआ है। एक उदाहरण अवलोकनीय है-

“निष्पत्र, खिले गुलाब-सा
एक सन्नाटा आकाश में ठहरा है
और रह-रहकर लगता है
अब कहीं से कोयल बोल उठेगी।”4

मिश्रजी ने ‘जंगल’, ‘सड़क’ और ‘गली’ को प्रतीक रूप में अनेक स्थानों पर प्रयोग किया है। कवि कभी स्वयं को जंगल में पाता है तो कभी स्वयं में जंगल। इन दोनों रूपों में जंगल समाज में फैली भयावहता, भावनाओं व संवेदनाओं के ह्रास का प्रतीक बनकर उभरता है। चमचमाती कोलतार ‘सड़क’ पूँजीपति लोगों व पूँजीपति शक्तियों का प्रतीक है तो ‘गली’ आम जनता का प्रतीक है। ‘गलियाँ और सड़कें’ कविता उच्च व निम्न वर्ग का अन्तर प्रतीकार्थ व्यक्त करती दिखाई देती है-

“टूटे मकानों के बन्द दरवाज़ों पर
दस्तकें देती हैं
चिकनी सड़क
साँप-सी फिसलती चली जाती है
सब के बीच से, सब से असम्पृक्त
और छोटी-छोटी अनेक सड़के बन
बड़े-बड़े चमकते दरवाजों में समा जाती हैं”5

‘कंधे पर सूरज’ काव्य-संग्रह तक आते-आते कवि में प्रतीकात्मक परिपक्वता देखने को मिलती है। यहाँ कवि समकालीन जीवन से जुड़ी विभिन्न समस्याओं को प्रतीकों का रूप देता है। ‘हम नन्हें-नन्हें जीव’ कविता में ‘छोटे’ शब्द शोषित व पीड़ित वर्ग का प्रतीक और ‘ऊँचे’ शोषक व पूँजीपतियों का प्रतीक है-

“आज हम छोटे हैं
दबे हुए हैं
ऊँची नज़रां में खोटे हैं।
लेकिन कल कहाँ होंगे
पता नहीं
शायद हम बैठकर तुम्हारे शिखरों पर
फिर अपने थके पाँव खोलेंगे
पंख फड़फड़ायेंगे
नयी चढ़ानों के लिए
नयी उड़ानों के लिए।“6

यहाँ पंख फड़फड़ाना’ शोषित वर्ग की जड़ता तोड़ने का और ’नयी चढ़ान’ व ‘नयी उड़ान’ उनके विकास का प्रतीक है। मध्यवर्ग का आदमी समस्याओं से जकड़ा हुआ है। उसके जीवन में समय के साथ-साथ समस्याएँ विविध रूप लेकर आती है। ‘गठरी’ दैनिक जीवन की इन्हीं समस्याओं व विसंगतियों का प्रतीक है-

“मुझे अपने चारों ओर गठरियाँ ही गठरियाँ दीखने लगीं
छोटे-बड़े सिरों पर लदी हुई अनन्त गठरियाँ . . .
धीरे-धीरे मुझे महसूस होने लगा
कि गाँव के आदमी के सिर पर जो कुछ है
(वह चाहे पगड़ी हो या टोपी ही क्यों न हो)
एक गठरी है
हर रास्ता जो बाज़ार या कस्बे की ओर जाता है
उसके सिर पर अनाज या जेवर की एक गठरी होती है
जिसे वह बनिए या चौधरी की दुकान पर जाकर
पटक आता है
और एक दूसरी गठरी लिये
लौट आता है उदास लड़खड़ाता-सा।“7

समाज में गठरियों की सर्वव्यापकता है जिससे चारों तरफ अव्यवस्था फैली हुई है। ‘रावण का पुतला’ इन्हीे अव्यवस्थाओं का प्रतीक है-

“मैं राजा राम की आत्मा में समा रहा हूँ
वे लड़ते-लड़ते बहुत थक गये हैं
साल भर सायेंगे
मैं जागूँगा राजधानी के हर तहखाने में।“8

आधुनिक कविता में ‘साँप’ को बुराई का प्रतीक मानकर बखूबी चित्रित किया गया है। मिश्रजी की कविता में भी ‘साँप’ समाज में फैले पूँजीपति व सत्ताधारी शोषकों का प्रतीक बनकर उभरता है। ‘समय देवता’ कविता में “गेहुंवन साँपों का समूह/कुण्डली मारे बैठा होता है गड़े रत्नों पर/आराम से चूहों को पान की तरह चुभलाता हुआ”9 इसी तरह ‘साक्षात्कार’ कविता में कवि इन साँपों की समाज में व्यापकता को विविध रूप देकर व्यक्त करता है-

“बड़े साँप
छोटे साँप
पतले साँप
मोटे साँप
लाल साँप
नीले साँप
काले साँप
पीले साँप”10

‘साँप’ के साथ-साथ मिश्रजी ने ‘चूहे’ का प्रतीक भी काव्य में प्रस्तुत किया है। पूँजीपति व सुविधाभोगी वर्ग से स्वार्थी व पिछलग्गू लोग हमेषा संरक्षण पाते आये हैं। इन्हीं लोगों को कवि ने ‘चूहे’ का प्रतीक दिया है। ये लोग अपनी सुरक्षा के लिए आम जन को कष्ट-पीड़ा देते रहते हैं-

“चूहे फिर उतरा गये हैं सड़क पर
जल्दी ही घरों में प्रवेश करेंगे
अपनी-अपनी किताबें सँभाल लो
ये गोदाम या तिजोरी नहीं काटते
ये केवल किताबें काटते हैं
क्योंकि उनमें इनसे बचने
या मारने के उपाय लिखे होते हैं।”11

‘बिल्ली रानी’ हमारी व्यवस्था का प्रतीक है। इस व्यवस्था में हमेशा असहाय व गरीब लोगों का शोषण होता है, शक्तिशाली लोगों का कभी शोषण नहीं होता है। कवि चूहे व चिड़िया का भेद इसी सन्दर्भ में ‘बिल्ली रानी’ के सामने रखता है-

“बिल्ली रानी,
तुम्हें जानना चाहिए था
कि चूहे और चिड़िया में भेद होता है
तुमने चूहे की तरह
चिड़ियों पर भी घात लगाया
चिड़ियाँ उड़ गयीं 
और उड़-उड़ कर 
तुम्हें पैने चोंच मार रही हैं
पूँछ और पंख का अन्तर
तुम्हे जानना चाहिए था बिल्ली रानी।”12

रामदरश मिश्र जन समान्य के कवि है। अतः उनके काव्य में आम मानव-जीवन से संबंधित प्रतीकों की संख्या अधिक है। “कवि की लोक संवेदना छोटे-छोटे प्रतीकों और बिम्बों से बड़ा चित्र उकेरती है। न कहीं संप्रेक्षण का गैप है, न ध्वनियों और रंगों का मोह-जाल, न दर्शनों की ऊल जलूल गहराई जिसमें कवि की बात ही कहीं फंस जाय।“13 उनके छोटे-छोटे प्रतीक विचारगत गम्भीरता को व्यक्त करते है। ‘कल्पवृक्ष’ आधुनिक जीवन शैली का, ‘धूल’ जन चेतना का, ‘लोकराम’ आम आदमी का, ‘पत्थर’ दलित का, ‘चींटे’ मेहनती लोगों का, ‘लकड़हारा’ गरीब वर्ग का, ‘पहाड़ा’ दिन-रात की बढ़ती समृद्धि का, ‘माँ’ संवेदना का, ‘रोशनी का फुआरा’ वर्तमान संसाधनों का, ‘परकटी धूप’ असहाय लोगों का, ‘ताल’ मन का, ‘आकाश’ मन की स्थिति का, ‘निशान’ स्नेह व प्रेम का, ‘हस्ताक्षर’ क्रान्तिमयी चेतना का ‘कंधे पर सूरज’ आन्तरिक संवेदना का, ‘नदी बहती है’ सुविधाओं का, ‘सरकण्डे की कलम’ यथार्थ का और ‘काली आँधियाँ’ परिवर्तन का प्रतीक है। ‘दवा की तलाश’ कविता में ‘माँ‘ को ग्रामीण संवेदना का प्रतीक दिया गया है। वह महानगर के जंगल से अपने बेटे के वापस आने की बाट देख रही है-

“कल गाँव से नया-नया आने वाला एक युवक
कह रहा था- 
माँ अभी मरी नहीं है
वह अभी भी तुम्हारे लौटने का इन्तजार कर रही है...।“14

समकालीन समाज में पारिवारिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन निरन्तर जारी है। मिश्रजी ने इसे ‘दूब’ व ‘आम के पत्ते’ का प्रतीक रूप देकर व्यक्त किया है। दूब पर खेलते-कूदते बच्चे पूजा के लिए दूब का पता पूछ रहे हैं। यह सांस्कृतिक विघटन का प्रत्यक्ष प्रमाण है-

“मेरे ही आत्मीय विस्तार में
हँसते-खिलखिलाते
खेलते-कूदते बच्चे
लोगों से मेरा पता पूछ रहे हैं-पूजा के लिए
क्या मेरा जीवंत व्यापक वजूद
पूजा के दो-चार पत्तों में सिमटकर रह गया है ?”15

इसी प्रकार ‘प्लास्टिक के फूल’ संवेदना के ह्रास का, ‘प्राकृतिक फूल’ सांस्कृतिक मूल्यों का, ‘विरासत’ सांस्कृतिक धरोहर का, ‘बीज’ नैतिकता का, ‘कठफोड़वा’ व्यक्तिवादी भावना का, ‘चिट्ठियाँ’ संवेदना का, ‘पेड़’ सद्भावना व एकता का प्रतीक है।

आधुनिक जीवन-शैली में सुविधाभोगी वृत्ति बढ़ रही है। मिश्रजी ‘बाजार’ प्रतीक के माध्यम से पश्चिमीकरण की समाज में सर्वत्र व्यापकता को व्यक्त करते हैं-

“क्या ज़माना आ गया है
तब हम अपनी ज़रूरतों के लिए
अपने देशी बाज़ार जाते थे
अब विदेशी बाज़ार
अपनी ज़रूरतें लिये हुए हमारे आँगन में पैठता जा रहा है
और हमारे छोटे-छोटे प्यारे प्यारे घरेलू सपनों को
सुख के आतंककारी बड़े-बड़े भूमंडलीय सपनों में बदल रहा है।”16

मिश्रजी ने अपनी काव्य प्रतिभा में दैनिक जीवन की उपयोगी अनेक वस्तुओं को प्रतीक रूप दिया है। मेज, कलम, हाथ, कोयले का चूल्हा, चमचा, सूई, चाकू, पंखा, फाइल, माइक, कुर्सियाँ आदि का चित्रण इसी रूप में हुआ है। जब ‘सुई’ विभिन्न प्रकार की रचनाओं का सृजन करती है तो वह ममता, स्नेह व प्यार का प्रतीक रूप ले लेती है-

“मैं खुद नंगी पड़ी होती हूँ
लेकिन मुझे कितनी तृप्ति मिलती है
कि मैं दुनिया का नंगापन ढाँपती रहती हूँ
शिशुओं के लिए झबला बन जाती हूँ
और बच्चों, बड़ों के लिए
कुर्ता, कमीज, टोपी और न जाने क्या-क्या
कपड़ों के छोटे-बड़े टुकड़ों को जोड़ती हूँ
और रचना करती हूँ आकारों कीं”17

निष्कर्षतः विवेचन और विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि रामदरश मिश्र के काव्य में नवीन व परम्परागत विविध प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। उनके निजी प्रतीक सँवरे हुए है जो कला में बेजोड़ है। कवि के कथ्य और शिल्प में प्रतीकों से भाव बोध का जुडाव हुआ है। समकालीन यथार्थ को व्यक्त करने में प्रतीकों ने अहम भूमिका निभाई है। कविता में प्रतीक सम्प्रेषण के सशक्त माध्यम बनकर आये हैं और आधुनिक काव्य-जगत् में मिश्रजी की विशिष्टता को भी इंगित करते हैं।

सन्दर्भ

1. रामदरश मिश्र रचनावली, खण्ड-एक, बैरंग बेनाम चिट्ठियाँ, नमन प्रकाशन, दिल्ली, प्र. स 2000ं पृ. 156
2. वही, पृ. 235
3. वही, पक गई है धूप, पृ. 262
4. वही, पृ. 316
5. वही, पृ. 265-266
6. वही, खण्ड-दो, कंधे पर सूरज, पृ. 426
7. वही, पृ. 389
8. वही, पृ. 421
9. वही, खण्ड-एक, पक गई है धूप, पृ. 332
10. वहीं, खण्ड-दो, कंधे पर सूरज, पृ. 381
11. वही, खण्ड-एक, दिन एक नदी बन गया, पृ. 470
12. वही, खण्ड-दो, जुलूस कहाँ जा रहा है, पृ. 32
13. रामदरश मिश्रःव्यक्तित्व और कृतित्व, फूलबदन यादव, राधा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, प्र. स. 1992, पृ. 160
14. रामदरश मिश्र रचनावली, खण्ड-एक, कंधे पर सूरज, नमन प्रकाशन, दिल्ली, प्र.स. 2000, पृ. 378
15. आम के पत्ते, रामदरश मिश्र, इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, प्र. स. 2004, पृ. 42
16. कभी-कभी इन दिनों, रामदरश मिश्र, इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, प्र. स. 2010, पृ. 142
17. आम के पत्ते, रामदरश मिश्र, इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, प्र. स. 2004, पृ. 44

दयाराम 
व्याख्याता हिन्दी
रा. उ. मा. विद्यालय 
गोलूवाला, जिला-हनुमानगढ़
राज्य-राजस्थान, भारत पिन कोड-335802 
मो. 94622-05441

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