क़ुसूर क्या है
वीरेन्द्र खरे ’अकेला’क़ुसूर क्या है जो हमसे खताएँ होती हैं
हुज़ूर आप की क़ातिल अदाएँ होती हैं
बरसना आता नहीं इनको है यही रोना
फ़लक पे रोज़ ही काली घटाएँ होती हैं
गुनाहे-इश्क़ तो आँखों का मशग़ला ठहरा
ये क्या सितम है कि दिल को सज़ाएँ होती हैं
ज़रा सी ओट अगर ले सको तो अच्छा है
दिये की ताक में शातिर हवाएँ होती हैं
हमारे पास भला क्या है और देने को
तुम्हारे वास्ते दिल में दुआएँ होती हैं
तुझे भी सैकड़ों सम्मान मिल गए होते
‘अकेला’ तुझसे कहाँ इल्तिजाएँ होती हैं
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