क़सबे की साँझ
डॉ. राजेन्द्र गौतमपीपल
बरगद
नीम ये
सब गूलर के फूल
चौरस्ते
अब झूलते
थूहर और बबूल।
हैंडल पर
खाली टिफन
घर को चले मुनीम
आसमान पलकें झेंपे
गटके हुए अफीम।
टाँगे
खचर
रेहड़ी
मुड़े गाँव की ओर
साँझ हुई
अब थम गया
गुड़-मंडी का शोर।
कहाँ बचेंगे
टेंट में
मजदूरी के दाम
बैठी लेकर राह में
ठर्रा
ठगिनी शाम।
क़स्बे में
जब से खुली
राजनीति की टाल
अफवाहों-सा
फै...ल...ता...
धूल-धुएँ का जाल।
चूल्हे-चौके की हुई
खटर-पटर
अब बंद
आँगन में
बस गूँजते
चुप्पी के ही छंद।
बर्फ सरीखी
हो गई
नीचे बिछी पुआल
राम हवाले
इस कुनबे का हाल।
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