पंख थे परवाज़ की हिम्मत ना हो सकी
पारुलपंख थे परवाज़ की हिम्मत ना हो सकी
दुनियावी उसूलों से बग़ावत ना हो सकी।
इक रूह थी उड़ती रही बेबाक़ फ़लक पर
बरसों से क़ैद जिस्म में हरकत ना हो सकी।
बिखरी पड़ी हैं घडियाँ फ़ुरसत की चार सू
फ़ुरसत ही खर्च करने की फ़ुरसत न हो सकी।
हो लाख शोर ओ गुल अब जल्से तमाम हों
तनहाई मगर दिल से रुख़्सत ना हो सकी।
1 टिप्पणियाँ
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शब्द थे टिप्पणी मे परिवर्तित ना हो सके । बहोत खूब , कम शब्दों मे , सादगी से बड़ी बाते हो गई । पन्ने तो पलट दिए पर शब्दों की असर दूर ना हुई.