पागल  (रमेश ’आचार्य’)

15-02-2020

पागल  (रमेश ’आचार्य’)

रमेश ‘आचार्य’ (अंक: 150, फरवरी द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

जाड़े की गुनगुनी धूप में फुटपाथनुमा बस स्टैंड पर खड़ा, मैं अपनी बस का इन्तज़ार कर रहा था। दूसरी पाली के स्कूली बच्चे झुण्डों में स्कूल जा रहे थे और मेरे पीछे, कचौड़ी की दुकान पर लोगों की इस क़दर भीड़ थी कि मानो मुफ़्त बँट रही हो। 

वह फटी पैंट और पुराना-सा कोट पहने फ़ुटपाथ पर बैठा चाय पी रहा था, पास ही उसकी बोरी भी रखी थी जो गत्ते व प्लास्टिक की बोतलों से भरी थी। तभी चार-पाँच स्कूली बच्चे उसे ‘पागल’ कहकर तेज़ी से भाग गए। उसने ग़ुस्से में उनकी ओर देखा फिर चाय पीने लगा। वहाँ खड़े लोग उसे देखकर हँसने लगे। अब वह अपनी चाय ख़त्म कर, बोरी का सामान ठीक करने लगा। इस बार भी बच्चों का एक ओर झुड उधर से गुज़रा और वे भी उसे ‘पगले, पगलैट और पागल’ कहकर चिढ़ाने लगे। वह उठकर ग़ुस्से में कुछ दूरी तक उनके पीछे भागा लेकिन वे सभी तितर-बितर हो गए। वह बड़बड़ाता हुआ वापस आया और बीड़ी सुलगाने लगा। एक बार फिर उसके पास से ही पाँचेक बड़े लड़के उसे ‘पगलैट’ कहकर तेज़ी से गुज़रे। अब की बार उसने आपा खो दिया और पूरी ताक़त से उन्हें पकड़ने दौड़ा। लेकिन वे सभी उसे सड़क पर इधर-उधर दौड़ा रहे थे। आसपास के सभी लोग यह देखकर खूब हँस रहे थे। उनके लिए वह एक तमाशे से बढ़कर और कुछ न था। अचानक उसे लाल बत्ती के पास ज़ोरदार ठोकर लगी और वह सड़क पर बुरी तरह से गिरा। उसके पास से बहुत सी गाड़ियाँ गुज़रीं लेकिन एक भी हाथ उसकी मदद को न आया। वह लंगड़ाता हुआ आया और चुपचाप अपनी बोरी के पास पर बैठ गया। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। पास ही खड़े लोगों में से एक बोला- "इसे इतनी भी अक़्ल नहीं है कि बच्चों ने कुछ कह दिया तो उनके पीछे-पीछे भागने की क्या ज़रूरत थी।" 

तभी दूसरे ने हँसते हुए कहा, "छोड़़ यार, सच में है तो पूरा पागल ही।"

सामने के स्कूल के लाउडस्पीकर से प्रार्थना छनकर आ रही थी- "ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हों हमारे कर्म...।" 

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