नंगा

विद्या भूषण धर (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

(विद्याभूषण धर की यह कहानी साहित्य कुञ्ज में वर्ष 2004 में पहली बार प्रकाशित हुई थी। ’द कश्मीर फ़ाइल्स’ फ़िल्म देखने के बाद कश्मीर के विस्थापकों के जीवन की परिस्थितियों के बारे में सोचते हुए यह कहानी याद आ गई और पुनर्प्रकाशन कर रहा हूँ। विद्याभूषण धर और उनके परिवार ने भी शामियानों में वक़्त बिताया है। अक़्सर वह भट्टी जैसी गर्मी की भी बात करते हैं। हम यह कह सकते हैं कि इस कहानी में बहुत-कुछ वह है जो विद्या का स्वयं देखा और भोगा हुआ सच है। उन्होंने यह कहानी स‍उदी अरब में रहते हुए भेजी थी। विद्याभूषण धर इस समय कैनेडा में रहते हैं और हिन्दी राइटर्स गिल्ड के निदेशक मंडल में सक्रिय हैं। कश्मीरी संस्थाओं में भी उनकी भूमिका अग्रणी है।) )

 

बोझा ढोते-ढोते मनोज की आँखें भीग गयीं और हौले से बड़ी सी पेटी को उसने नीचे रखा और रुमाल से पेशानी पर आया पसीना पोंछा। सच कहा है किसी ने, काया और माया, इन पर किसी का बस नहीं, बीते हुए कल की यादें उसे फिर सताने लगीं तो उसने सिर झटक कर उनसे पीछा छुड़ाया और फिर सारी पेटियों को क़रीने से लगाने लगा। यह सेब की पेटियाँ आज ही कश्मीर से आई थीं और शाम तक इन्हें शहर के बाहर बड़े रेलवे सामन घर में पहुँचाना है। काम करते-करते भी उसकी यादों ने उसका पीछा किया, और वह फिर अतीत में खो गया। 

 कश्मीर के किसी ख़ामोश से कोने में उसका गाँव, स्वर्ग सी सुन्दर यह धरती और चारों तरफ़ ख़ुशहाली, भाईचारे और प्रेम का माहौल। हरी-भरी वाटिका सा यह गाँव, अपने आप में एक सम्पूर्णता का प्रतीक था। यहाँ सब धर्मों के अनुयायी आपस में प्रेमभाव से रहते व एक दूसरे का सुख दुख के साथी थे। जहाँ एक ओर सूर्य उदय पर मुल्ला की अजान होती वहीं समीप के मन्दिर से शंख और घंटियों का स्वर मिल-जुला स्वरूप लेकर एक अलौकिक संगीत की तरह गाँव में गूँजता। गाँव में सभी एक से थे, साफ़ दिल वाले लोग, शहर की ख़ुदगर्ज़ हवा से दूर। मनोज का परिवार भी इसी गाँव में रहता था और उसका बचपन भी यहाँ की मिट्टी में पलकर जवानी की देहलीज़ तक पहुँचा था। बाप, दादाओं की तरह मनोज का परिवार भी एक किसान परिवार था। अपनी छोटी सी खेती और सेब के बाग़ थे उनके। गुज़ारे भर के लिए काफ़ी था एक छोटे से परिवार के लिए जहाँ उसके माता-पिता के अलावा उसका बड़ा भाई श्याम था। 

दोनों भाई पिता का हाथ बँटाते और खेती-बाड़ी करते; कभी सेब ख़ुद शहर जाकर बेचते या साल भर के लिए पट्टे पर उठा लेते। भगवान का दिया सब कुछ था उनके पास गाँव में शहरी छाप अभी पड़ी न थी; एक छोटा सा स्कूल था जहाँ मास्टरजी एक खपरैल नुमा मकान में पढ़ाते थे। मनोज ने सिर्फ़ दो जमातें पढ़कर पढ़ाई छोड़ दी थी। उसका मन ना तो अँग्रेज़ी की ए बी सी डी में लगता था ना गणित के अंकों में। उसे तो भाता था मस्त जीवन जहाँ कोई पाबन्दियाँ न हों। खेतों में घूमना कभी नदी में नहाना कभी अखरोट के पेड़ों पर चढ़कर मस्ती करना तो कभी अपनी गाय और बकरियों को चराने जाना। 

उसकी तरह श्याम ने भी बचपन में ही पढ़ाई छोड़ दी थी पर उसे इस बात का दुख था और मनोज ने भी जब राह पकड़ी तो वह आपे से बाहर हो गया। भाई को उसने बहुत समझाया, “देख बेटा, ज्ञान से आदमी की पहचान होती है, पढ़ा-लिखा आदमी पहचान ख़ुद बना लेता है। हम भी चाहते हैं कि तू पढ़े-लिखे और बड़ा आदमी बने। मनोज ने कहा, “मुझे बड़ा आदमी नहीं बनना, मैं भी तुम्हारी और बाबा की भाँति खेती-बाड़ी करूँगा, मुझे यही अच्छा लगता है, पढ़ाई मुझे भाती नहीं, “हमें किस चीज़ की कमी है।” लाख समझाने पर भी मनोज पर कोई असर नहीं पड़ा, फलत: वह भी एक अँगूठा छाप ही रहा पर अपनी खेती-बाड़ी और ढोर होने की वजह से वे स्वयंभू थे घर में, गुज़ारे लायक़ रुपयों की कोई कमी न थी। सुख-शान्ति से उनका जीवन चल रहा था। व सादगी और शान्ति का जीवन . . . । 

कालांतर में बड़े भाई की शादी हो गई और मनोज को माँ समान भाभी का ढेर सारा प्यार मिला। यह सुखी जीवन यूँ ही अविरल चलता रहता भिन्न-भिन्न धर्मों के लोग सीर शक्कर की भाँति आपस में मिलकर रहते और कश्मीर के अतिप्रिय सूफ़ी संतों की परम्परा इसी तरह चिरकाल तक चलती रहती किन्तु दोनों को कुछ और ही मंज़ूर था। शायद विधाता को यहाँ का शांत वातावरण नहीं भाया और धीरे-धीरे एक अनजाना डर कश्मीर की उस शान्ति को भंग करने लगा। नफ़रत की आग चारों तरफ़ फैलने लगी। भाई-भाई का दुश्मन बन गया, जो हिन्दू-मुसलमान सदियों से मिलजुल कर रहते थे मंदिर मस्ज़िद जिनकी साझी विरासत थी। लालद्यद और नुनद . . . की वाणी का ज्ञान जिन्होंने मिल-जुल कर अपनाया था उसी मुसलमान को अब कश्मीरी पंडित अब इस्लाम के दुश्मन और काफ़िर नज़र आने लगे। कश्यप की इस धरती को, जहाँ गाँधीजी को आशा की किरण नज़र आई थी, एक भयानक अँधेरे ने जकड़ लिया। जहाँ जीव हत्या एक दिनचर्या बन गई। सरहद पार के आए हुए, यह भटके हुए नौजवान कश्मीर घाटी को हिन्दू रहित करना चाहते थे। शायद सिकन्दर बुत शिकन और पठानी हुक्मरानों की आत्मा जीवित होकर इतिहास दोहराना चाहती थी। दहशत के इस माहौल में कहीं बम धमाके में 10 मरे तो कहीं बस में जा रहे अल्पसंख्यकों हिन्दुओं को आतंकवादियों ने चुन-चुन कर मौत के घाट उतारा। किसी हिन्दू स्त्री का बलात्कार करके उसके शव को मटियामेट करके वितस्ता नदी में बहा दिया। ख़ौफ़ का यह माहौल जब जंगल की आग की तरह समूचे कश्मीर में फैला तो मनोज का वह गाँव कैसे बच पाता? उसके घर के आसपास रहने वाले उसी के मुस्लिम मित्र कहने लगे . . . “अरे औ दाल ख़ोर पंडित की औलाद, यहाँ अब जल्दी ही पाकिस्तान बनने वाला है। अच्छा है यह जनेऊ उतार कर खतना करवा ले, मुसलमान हो जायेगा तो मज़े से रहेगा, नहीं तो बेटा भाग ले यहाँ से।” 

मनोज उनकी यह बात हँसी में उड़ा देता . . . “शब्बीर तू भी बड़ा पाजी है, खाना–पीना हिन्दुस्तान का और गुण गाने पाकिस्तान के, अरे बेवक़ूफ़ तुम्हें क्या लगता है, पाकिस्तान बन जाने पर तुम्हारी कोई लाटरी खुल जाएगी। पचास बरस होने पर भी उनके अपने लोग जो भारत छोड़कर पाकिस्तान रहने गये थे, आज भी मुहाजिर कहलाते हैं, और दूसरे दर्जे की ज़िन्दगी बसर करते हैं, तुम्हारा क्या होगा, यह तो ईश्वर ही जाने?” 

“अरे छोड़ तेरे ईश्वर को भी देख लेंगे। इन्शाह अल्लाह तेरे इस मन्दिर में नमाज पढ़ी जाएगी अब जल्दी ही . . . ।”

“हा हा हा हा हा।”

ज़्यादा बहस में न पड़कर मनोज ने घर की राह ली और भाई को सारा हाल सुनाया। भाई ने उसे बताया कि उनके कुछ रिश्तेदार जो शहर श्रीनगर में रहते थे वे घर छोड़कर जम्मू व अन्य नगरों में रहने के लिये चले गए हैं और हालात सुधरते ही वापस लौट आएँगे। पर गाँव के कुछ बुज़ुर्ग मुसलमानों ने अल्पसंख्यक हिन्दुओं को ढाढ़स बँधाया और कहा कि उनके रहते कोई पंडितों का बाल भी बाँका नहीं कर सकता। रमजानजू ने मनोज के बाबा को समझाया, “रामजू यह तो एक आँधी है जिसका सामना हमने मिलकर करना है मेरे भाई मुझे अल्लाताला पर पूरा यक़ीन है कि यह आँधी आकर चली जायेगी और फिर हम पहले कि तरह रहने लगेंगे।”

रमजानजू की बातें सुनकर मनोज के परिवार को कुछ ढाढ़स बँधा और उन्होंने गाँव छोड़कर जाने का विचार त्याग दिया और फिर जाते भी कहाँ? गाँव से बाहर सिर्फ़ कभी-कभार शहर श्रीनगर तक गए थे और फिर जम्मू शहर में अपना कोई सगा सम्बंधी भी तो नहीं था। सब दूर-दराज गाँव में रहते थे। 

कुछ दिनों तक जीवन पहले जैसे ही चलने लगा कि एक त्रासदी ने गाँव वालों को हिला दिया मनोज के घर से कोई 10 मकान दूर गाँव के मुखिया नारायण कौल का घर था। सुख सम्पदा से भरपूर, लम्बी-चौड़ी खेती अखरोट और बादाम के कई बाग़। नारायण कौल का बड़ा बेटा शायद पुलिस में था और एक दिन शहर से अपने घरवालों से मिलने आया था। दिन में वह मनोज को भी मिला और उसका हाल पूछा था। 

रात के दूसरे पहर गाँव में शोर मच गया तो सब लोग घरों से बाहर आने लगे। शोर नारायण कौल के घर से आ रहा था। मनोज, श्याम और मनोज के बाबा नारायण कौल की तरफ़ भागे तो वहाँ गाँव के कुछ लोग पहले से ही जमा थे। मनोज ने देखा कि नारायण कौल और उसके बेटे को चार-पाँच बन्दूकधारियों ने घेर रखा था। नारायण कौल का बेटा विनोद कौल ज़ख़्मी हालत में उनसे कुछ कह रहा था; उसके होंठ फटे हुऐ थे। पास जाकर मनोज ने उनका वार्तालाप सुना, बन्दूकधारी कह रहा था, “सुनो पंडित हमें पक्की सूचना मिली है कि तुम सीबीआई के लिए काम करते हो, इसलिए तुम हमारी मुहिम के रास्ते में एक रुकावट हो। सच-सच बताओ, तुम्हें क्या-क्या पता है, और तुम्हारे क्या मनसूबे हैं, नहीं तो ऐसी भयानक मौत मरोगे कि तुम्हारी रूह काँप उठेगी।” 

विनोद ने उत्तर दिया, “भाई मैं भगवान की क़सम खाकर कहता हूँ कि मैं रियासत पुलिस में एक उपनिरिक्षक हूँ, और इसके अलावा कुछ भी नहीं। मैं तो आज तक कश्मीर से बाहर भी नहीं गया। आप मुझे बेकार मार रहे हैं। ख़ुदारा मेरा विश्वास करो, मैं सच बोल रहा हूँ।”

बन्दूकधारी ने अपने साथी की ओर देखकर कहा, “सलीम, यह दालख़ोर पंडित इस तरह नहीं मानेगा, इसे मुख्यालय ले चलो वहाँ कमाण्डर साहब ख़ुद इससे पूछताछ करेंगे।” यह कहकर उसने विनोद को आगे बढ़ने को कहा। नारायण कौल जो अभी तक यह नज़ारा चुपचाप देख रहा था, आगे बढ़कर बंदूकधारी के पाँव से लिपट गया, “भाई मेरे बेटे को छोड़ दो, वह बेक़ुसूर है, आपने जो भी पूछताछ करनी हो यहीं कर लो, मेरे बेटे को छोड़ दो।”

बन्दूकधारी ने बन्दूक की बट बूढ़े नारायण के कंधे पर मारी, “पीछे हट जा पंडित, हमें गद्दारों से सख़्त नफ़रत है। सुनो गाँव वालो, हम मुल्के कश्मीर को आज़ाद कराने के लिए मुजाहिद हुए हैं, इस इस्लाम के काम में जो भी रुकावट डालेगा, अपनी मौत का ख़ुद जुम्मेदार होगा।” यह कहकर अपने आप को मुजाहिद कहने वाले विनोद को अपने साथ ले गए। सारा गाँव सकते की हालत में गया और लोग तरह-तरह की बातें बनाते हुए अपने-अपने घरों को लौट गए। 

मनोज को सारी रात नींद नहीं आई और हर पल उसका ध्यान विनोद के ख़ौफ़ज़दा चेहरे की तरफ़ चला जाता और यह सोचते-सोचते जाने कभी उसकी आँख लग गई और वह सो गया। और अभी भोर की पहली किरण ही फूटी थी कि गाँव भर में कोहराम सा मच गया। सब लोग रोने, चिल्लाने कि आवाज़ें सुनकर उसी दिशा में भागे, मनोज भी दौड़ कर वहाँ पहुँचा, जहाँ गाँव का आहता था, जहाँ चिनार के दो बड़े पेड़ थे, और उनकी बड़ी-बड़ी शाखाओं से एक छत सी बन गई थी। यहाँ गाँव भर के बच्चे खेलते थे, और बूढ़े लोग पेड़ की छाँव तले हुक्का पीते थे। वहाँ पहुँच कर मनोज ने जो दृश्य देखा उसके मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गई। पेड़ पर विनोद की क्षत-विक्षत लाश लटक कर झूल रही थी। उसके सारे कपड़े ख़ून से लथपथ थे, उसके हाथों के नाख़ून उखाड़े गए थे, उसके गाल चाकुओं से गोदे हुए थे। उसके नाक, कान, कटे हुए थे, और वह भागकर सीधे घर गया। घर में माँ व भाभी, हतप्रभ सी, उसे तीर की तरह, घर में आता देखकर बोली, “मनोज बेटा, क्या हुआ, अरे तू रो क्यों रहा है?” 

“अब हम यहाँ नहीं रहेंगे . . . अब हम यहाँ नहीं रहेंगे,” कहते-कहते वह रो पड़ा। 

गाँव में यह ख़ौफ़ का वातावरण बना रहा, और इस बीच कई हिन्दू, जिनका कोई सगा-सम्बन्धी कश्मीर के बाहर जम्मू या अन्य स्थानों पर था, गाँव छोड़ कर चले गए। अपनी ज़मीन, मकान और मवेशी, अपने भरोसेमन्द पड़ोसियों के हवाले करके, वे रोते-बिलखते गाँव छोड़कर चले गए। पर मनोज के बाबा ने हिम्मत नहीं हारी उन्हें विश्वास था यह वक़्ती तनाव है और शीघ्र ही ख़त्म हो जाएगा। 

पर उनके विश्वास को ठेस लगी उस दिन, जिस दिन, सुबह-सुबह घर के दरवाज़े पर चिपका हुआ एक पत्र मिला। यह पत्र मुजाहिदों की किसी तंज़ीम ने लिखा था और इस में फ़रमान था कि कश्मीर की आज़ादी के लिए कैसे ये लोग अपनी जान न्योछावर कर रहे हैं और इस नेक काम के लिए काफ़ी रुपयों की ज़रूरत होती थी। रामजू से 50,000 रुपये की माँग की गई थी, नहीं तो गाँव से चले जाने को कहा गया था . . . । 50,000 रुपये की बात सुनकर रामजू को गश आ गया था। ठीक है वह खाता-पीता किसान था पर इतनी बड़ी रक़म उसने जीवन में कभी न देखी थी। मुजाहिदों ने दो रोज़ का वक़्त दिया था। और रामजू की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? यह दो दिन इसी उहापोह में गुज़र गए। और फिर वह भयानक रात . . . जो मनोज के मानस पटल पर पत्थर की लकीर की तरह ख़ुदी हुई थी। रात का वो आख़िरी पहर था कि उसे शोर की आवाज़ सुनाई दी . . . पर आजकल इस शोर का वह आदी हो गया था। पर उसे घर के बाहर तेज़ रोशनी दिखाई दी और धुआँ सा उठता दिखाई दिया। वह दौड़, कर बाहर भागा तो देखा उसका घर धू-धू करके जल रहा था। बड़ी मुश्किल से घर के सदस्यों की जान बच पाई पर वह चाहकर भी अपनी भूरी गाय को नहीं बचा पाया। उसके दर्द से रम्भाने की आवाज़ आज तक मनोज को सुनाई देती . . . । 

भोर होने तक उनका सब कुछ लुट चुका था। गाँव वालों के समझाने-बुझाने पर . . . उन्होंने गाँव छोड़ने का निश्चय किया। बचे हुए मवेशी उन्होंने अपने पड़ोसी गफारा को सौंप दिये और आग से बचा हुआ कुछ सामान लेकर वह गाँव छोड़ कर शहर कश्मीर आये। सारी राह मनोज ने अपनी माँ और अपनी भाभी को रोते हुए देखा। धर्म-कर्म वाली उसकी माँ का, वह प्यारा संसार छूट गया। पीढ़ियों से सँजोये अपने घर, अपनी नींव को, जिसे तिनका-तिनका कर बनाया था, एक पल में छोड़ना पड़ा। यह कैसी त्रासदी, यह कैसा इन्साफ़, हमसे क्या ग़लती हो गई महादेव, जो कि शिवरात्री के पर्व पर ही हमारा संसार हमसे छीन लिया! 

रोते-बिलखते यह परिवार पहले उद्यमपुर और फिर जम्मू पहुँचा। दो दिन मंदिर में गुज़ारने के उपरान्त उन्हें एक विस्थापित . . . , हाँ यही शब्द इस्तेमाल किया था उस अफ़सर ने . . . एक विस्थापित शिविर में उन्हें एक शामियाना दिया गया था। इसी एक शामियाने में वे पाँच प्राणी एक नया संसार बसाने की कोशिश में लग गए। कड़ाके की सर्दी में यह शामियाना पर्याप्त नहीं था। दान में मिले चंद कम्बल, जो जाले जैसे थे पाँच प्राणियों के लिये पर्याप्त नहीं थे। पर जीवन चलता है; रुकता नहीं। दिन हफ़्तों में और हफ़्ते महीनों में बदलने लगे . . . । गाँव से निकलते समय रामजू के पास कुछ नगदी एवं बहू और पत्नी के कुछ ज़ेवर थे; वही काम आए किन्तु पेट की आग के सामने यह सब कब तक टिक पाते। आख़िर मनोज और श्याम को जीविकोपार्जन के लिए अनजान शहर के धक्के खाने पड़े . . . । विस्थापन के दर्द और नई जगह के परायेपन ने रामजू को तोड़कर रख दिया . . . उसकी सेहत दिन पर दिन गिरती चली गई . . . उस से अब यह बढ़ती हुई गर्मी सही नहीं जाती . . . । कहाँ कश्मीर की शीतलता और कहाँ यह तपती धरती . . . ! 

गाँव के आत्मनिर्भर जीवन से पहली बार बाहर निकले मनोज और श्याम को जीवन की इस कड़वी सच्चाई का सामना करना पड़ा कि अनपढ़ व्यक्ति के लिये इस समाज में कोई जगह नहीं। हर जगह दुत्कार मिलने पर दोनों भाई सोच रहे थे कि हमारी बिरादरी में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो अनपढ़ हो . . . । मनोज की आँखों से आँसू बह निकले और भाई के गले लग कर रो पड़ा . . . “भैया काश मैंने आपकी बात मान ली होती . . . काश मैंने पढ़ाई की होती तो आज यह दिन न देखने पड़ते।” 

थक हार कर दोनों भाई अब कोई भी काम करने को तैयार हो गए और फिर श्याम को एक दुकान में नौकर का काम मिल गया। सुबह शाम दुकान की सफ़ाई करना, ग्राहकों को पानी पिलाना और दुकान के मालिक के लिए दोपहर में उसके घर से उसका खाना लाना, यही उसका काम था। महीने के 300 रुपये और एक समय का खाना तय हुआ था। इसी प्रकार मनोज को एक फल विक्रेता के यहाँ नौकरी मिल गई। यह फल विक्रेता कश्मीर से सेब नाशपाती अखरोट मँगवाता था और फिर जम्मू के बाहर भिजवाता था। मनोज कश्मीर से आई हरे फल की पेटियों को लौरी से उतारने का काम करता या फिर कभी पेटियों को लौरी में लदवाकर उन्हें ठंडे सामान गृह में भिजवाता। उसे भी 300 रुपये महावर मिलते थे। सरकार की तरफ़ से एक परिवार को 500 रुपये की मदद और चावल मिलते थे। 1100 रुपये में पाँच व्यक्तियों का यह परिवार कैसे गुज़ारा करता था यह वही जानते थे। उस पर दवा-दारू का ख़र्चा अलग से था। 

उनका नया घर सरकारी कपड़े से बना वह शामियाना सिर्फ़ एक गर्मी और फिर बरसात सह कर दम तोड़ चुका था। जगह-जगह उसमें छेद हो गए थे . . . । सारी गर्मी रामजू और उसकी पत्नी ने तड़प-तड़प कर काटी और फिर एक दिन जब मनोज की माँ जब विस्थापित शिविर के कामचलाऊ मंदिर से वापस आ रही थी उसे साँप ने डस लिया . . . । साँप शायद ज़हरीला था अत: डॉक्टर के आने से पहले ही वह सारे परिवार को रोता-बिलखता छोड़कर मृत्यु को प्राप्त हो गई। यह सदमा रामजू सह न पाया और उसने चारपाई पकड़ ली . . . । सोते–जागते वह यह रट लगाये रहता कि मुझे गाँव वापस ले चलो और वह भी जो एक रात सोया तो अगले दिन उठ न पाया . . .। एक महीने के अन्तराल में माँ–बाप का साया उठ जाने से जैसे दोनों भाई पागल हो गए थे इसीलिये उन्होंने शामियाना छोड़कर कहीं और रहने का फ़ैसला कर लिया। 

सारे शहर की ख़ाक छान ली दोनों भाइयों ने पर जैसे उनके लायक़ कहीं कोई बसेरा था ही नहीं। किराये इतने ऊँचे हो गए थे कि वे सोच भी नहीं सकते थे और फिर कई मकान मालिक तो अग्रिम किराया भी माँग रहे थे। दोनों भाइयों ने अपने-अपने मालिकों से पेशगी माँगी पर दो टूक-सा जवाब मिला। 

थक हार कर दोनों भाइयों ने अपनी तरह कुछ विस्थापित लोगों से बात की जो इन्हीं की तरह अब और शामियानों में नहीं रहना चाहते थे। किसी ने कहा कि बहुत से विस्थापितों ने सरकारी इमारतों और फ़्‍लैटों पर क़ब्ज़ा किया हुआ है और सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी सरकार उन्हें निकालने में नाक़ामयाब रही और अंतत: चुप हो गई। इस तरह काफ़ी लोगों को मुफ़्‍त की रहने लायक़ छत नसीब हुई। फिर एक दिन शहर से थोड़ा बाहर एक अधबनी इमारत में काफ़ी सारे विस्थापितों ने क़ब्ज़ा कर लिया। यह इमारत नीम खाम तैयार ही थी। सिर्फ़ प्लास्टर नहीं किया गया था। मनोज के परिवार को भी एक कमरा नसीब हुआ। सर्दियों का मौसम शुरू हो चुका था इसलिए कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई। प्रशासन ने उन्हें इमारत ख़ाली करने को नोटिस भी दिया और पुलिस कुछ लोगों को पकड़कर भी ले गई पर कुछ राजनैतिक पार्टियों की सिफ़ारिश पर उन्हें रहने दिया गया। 

अब दोनों भाई मेहनत मज़दूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहे थे। जीवन फिर एक रफ़्‍तार से चलने लगा। यही इमारत अब उनका संसार बन गई। अपनी परम्परा और रीति-रिवाज़ों को क़ायम रखते हुए इस इमारत में बसने वाले अपने तीज त्योहार मनाते। कश्मीर से दूर रहकर भी उन्हें अपनी माटी से प्रेम था। मनोज की भाभी भी और औरतों के साथ इस परम्परा को मना रही थी “पन” उत्सव पर तीन-चार परिवारों ने मिल कर रोट बनाए और “बीबगरा” माँ की पूजा की। इसी प्रकार दीपावली पर सबने दिये जलाए और लक्ष्मी पूजा की। कितना प्रेम भाव बन गया था इन लोगों में। शायद विस्थापन के दर्द ने सबको एक सूत्र में बाँध दिया था। यह साझे दर्द का रिश्ता एक बँधन में बँध चुका था। फिर आया महाशिवरात्री का पर्व, होली, दीपावली की भांति यह पर्व भी सब ने मिल बाँट कर सद्‍भावना एवं प्रेम से मनाया। 

मनोज अब जवान हो चुका था और कई बार उसके भैया भाभी ने उसके विवाह का ज़िक्र किया पर मनोज ने साफ़ मना कर दिया। वह बैठे-ठाले यह मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता था। और फिर कौन उसे अपनी लड़की देगा इस फटे हाल में। भाई-भाभी के लाख समझाने पर भी वह राज़ी नहीं हुआ। उसका कहना था वह किसी लड़की की ज़िन्दगी इस नरक में क्यों ख़राब करेगा? हाँ, जब वह अपने पैरों पर अच्छी तरह खड़ा हो जायेगा ढंग का मकान हासिल करेगा, तब वह शादी के बारे में सोच सकता है। भाभी ने उसे समझाया कि विस्थापन से उसके जीवन की नैया रुक तो नहीं गई। अब इस फटेहाली में भी शादियाँ होती हैं बारात चाहे शामियाने में आये या किसी टूटी इमारत में, आज भी बच्चे जनते हैं। पर लाख समझाने पर भी मनोज नहीं माना तो भाई-भाभी ने कहना ही छोड़ दिया। 

सर्दियाँ ख़त्म हुई तो गर्मी का प्रचण्ड उठता ही चला गया। अब कमरे में सोना मुमकिन न था, इसलिए मनोज ने अपनी चारपाई छत पर लगानी शुरू कर दी। मस्ती से उसकी रात गुज़रती, पर श्याम को नीचे गर्मी में जो परेशानी होती, उसे शब्दों में ब्यान करना मुश्किल था। उसकी पत्नी थी, और उसे लेकर वह कैसे छत पर सोता? पर एक दिन उसे एक युक्ति सूझी, उसने छत पर अपनी चारपाई के पायों के साथ चार बाँस बाँध दिए, और एक मसहरी बाँध दी, फिर उसकी देखा-देखी इमारत में रह रहे सारे लोगों ने यही युक्ति अपनाई। कम से कम भट्टी की तरह झुलसते कमरे से तो छत की गरम हवा अच्छी थी। कहाँ वह अपने घरों का महफ़ूज़ वातावरण, और कहाँ यह सड़क पर नरक जैसी ज़िन्दगी। पर कहते हैं ना आदमी की फ़ितरत में उदास रहना लिखा ही नहीं, वह हर हाल में अपनी ख़ुशी का सामान ढूँढ़ ही लेता है। पर औरों कि यह ख़ुशी मनोज की ज़िन्दगी का बवाल बन गई। 

पहले जब वह अकेला छत पर सोता था तो उसे चैन की नींद आती थी पर जब से छत पर शादी-शुदा लोगों ने सोना शुरू किया मनोज की रातों की नींद उड़ गई। उसकी चारपाई से थोड़ी दूर मसहरी के नीचे लेटा हुआ कुमार और उसकी बीवी का जोड़ा रात भर . . . चुहलबाज़ी करता तो उसे नींद कैसे आती। बन्सीलाल और उसकी पत्नी कमला की चारपाई तो देर रात तक चूँ चूँ का संगीत सुनाती। अन्धेरे में युगल जोड़ों की सरगोशियाँ और कभी इठलाती चाँदनी में उनके बदनों की जुम्बिश और विभिन्न आवाज़ों ने मनोज को सारी रात करवटें बदलने को मजबूर कर दिया। कई रोज़ तक वह बर्दाश्त करता रहा; नीचे जाकर कमरे में भी सोने की कोशिश की पर सिर्फ़ ईंट-गारे से बना यह कमरा रात को किसी भट्टी की तरह सुलगता था तो फिर बात बर्दाश्त के बाहर हो जाती थी। और एक दिन मौक़ा देखकर वह भाई से बोला, “भैया श्याम मैं कई दिनों से आपसे एक बात करना चाहता हूँ पर समझ नहीं आता कैसे कहूँ।” 

श्याम ने उसे पास बैठा कर कहा देख “भाई मैं तेरा बड़ा भाई ज़रूर हूँ पर तू मुझे अपना दोस्त समझ और बता तेरी समस्या क्या है?” 

बड़े जतन के बाद मनोज ने कहा, “भैया बात दरअसल यह है कि मैं शादी करना चाहता हूँ . . . मैं मानता हूँ कि मुझे इस बात से परहेज़ था पर . . . भाई अब छत पर अकेले सोना मेरे बस की बात नहीं . . . वह मरदूद कुमार और उसकी बीवी रात भर न जाने क्या-क्या बकते रहते हैं . . . भाई अब बस मेरी शादी करवा दो . . . मेरे पास कुछ जमा किए हुए रुपये हैं मालिक के पास . . . आप बात चलवा दो . . .।”

भाई की बातें सुन कर श्याम ज़ोर से हँसा और जाकर अपनी पत्नी को सारी बातें सुनाकर ताकीद की कि कोई अच्छी लड़की देखकर मनोज का रिश्ता पक्का करवा दे। यह बात इतनी आसान नहीं थी। क्योंकि एक अनपढ़ विस्थापित को कौन अपनी बेटी देता पर श्याम की पत्नी श्यामा भली औरत थी। उसने इमारत में रह रही अपनी सखियों से यह बात कही तो सब हँस पड़ीं और उससे वादा किया कि कोई अच्छी लड़की देखकर बात पक्की करवा देंगे। देखते-देखते एक महीना और बीत गया पर कही बात नहीं बन पाई और एक दिन मनोज की भाभी के पास एक औरत अपनी भाँजी का रिश्ता लेकर आई। 

लड़की भी कश्मीर के एक छोटे से गाँव की थी। उसके बाबा पिछले साल नदी में डूब कर मर गए थे। उसकी माँ उसके बचपन में ही उसको छोड़ कर ईश्वर को प्यारी हो गई थी। अब दूर के रिश्ते के मामा-मामी के पास वह पल रही थी और उसके मामा की अपनी 3 बेटियाँ थीं जो शादी के क़ाबिल हो चुकी थीं। वह किसी दुकान पर छोटी-मोटी नौकरी करके अपना व अपने परिवार का पेट बड़ी मुश्किल से पाल रहे थे इसीलिए वह अपनी बहन की अमानत को किसी सुयोग्य वर के हाथ सौंपकर इस ज़िम्मेदारी से मुक्ति पाना चाहते थे। 

उस औरत ने श्यामा से साफ़ कहा कि उनके पास दान-दहेज़ देने की कोई गुंजाइश नहीं है। अगर वे लोग लड़की को ही दहेज़ समझकर उसे स्वीकार करें तो बात बन सकती है। फिर बात आगे बढ़ी और मनोज ने लड़की पसंद कर ली और शीघ्र ही शादी का महूर्त निकालने के लिए वह भाई से ज़िद करने लगा . . . । भाई-भाभी ने समझाया कि गर्मियाँ ख़त्म होते ही वह उसकी शादी कर देंगे। पर वह कहाँ मानने वाला था। फलतः बीस दिन के बाद उसकी शादी पक्की कर दी गई। बड़ी अच्छी लड़की थी रूपा। गाँव की अल्हड़ जवानी लिए वह एक सुन्दरता की तस्वीर थी। गोल चाँद सा मुखड़ा, सिन्दूर मिले मक्खन जैसा खिलता रंग, काली कजरारी आँखें और गुलाब की पंखुड़ियों से प्यारे होंठ। मनोज अपनी क़िस्मत पर फूला ना समाया। वह शादी से पहले रूपा से कभी बाहू के क़िले पर मिला तो कभी काम से छुट्टी लेकर उसे शकुन्तला सिनेमा में पिक्चर भी दिखा लाया। उन्होंने युगल दम्पती की तरह स्टूडियो में फोटो भी खिंचवा लिए। मनोज अब बेसब्री से उस रात का इन्तज़ार करने लगा और अब यह छत की आवाज़ें उसका रोयाँ-रोयाँ हिला देतीं। 

शादी के दो दिन पहले मनोज ने भाई की मदद से नया फ़ोल्डिंग पलंग ख़रीदा। मज़बूती से चार बाँस पायों के साथ बाँध दिए और एक नई मसहरी भी लगा दी। पलंग पर उसने नई-नकोर चादर और नया तकिया बिछाया और सोने की कोशिश करने लगा। खुली हवा में सोने वाला मनोज़ मसहरी की चार दीवारी में अपना दम घुटता सा महसूस करने लगा। पर यह सोच कर सोने की कोशिश करने लगा कि अब तो उसे इस बात की आदत डाल लेनी चाहिए। 

रात का पहला पहर बीतते ही, छत पर वही आवाज़ें आने लगी। चारपाईयों की चूँ चूँ, और दबी-दबी सिसकारियों की आवाज़ें, कही चूमने का स्वर सुनाई पड़ा, तो कहीं निर्लज्ज हँसी का . . . । यह आवाज़ें सुनकर मनोज सिहर उठा . . . क्या वह भी शादी के बाद ऐसी आवाज़ें निकालेगा . . . क्या उसका कृत्य भी लोग उसी आनन्द से देखेंगे और सुनेंगे, जैसे वह देखता और सुनता आया है। यह नंगी आवाज़ें, अब उसे किसी रस का आभास देने के बजाय, पिघले हुए सीसे की तरह लग रही थीं, जो उसके कानों में उड़ेला जा रहा था . . . । यह कैसी ज़िन्दगी जी रहे हैं वे सभी लोग . . . जानवरों जैसा व्यवहार, सड़क पर एक क़िस्म का नंगा व्यवहार . . . । लोग उसे भी सुनेंगे और व्यंग्य कसेंगे। वह क्या करे . . .? शादी से मना भी नहीं कर सकता . . . रूपा के मामा और रूपा शायद सदमें से ही मर जायें। कहीं भाग भी नहीं सकता है . . . भगवान यह कैसी विडम्बना में फँस गया मैं। यही सोचते-सोचते भोर का हल्का उजाला छत पर छाने लगा और काली रात का परदा विस्थापितों की नंगी जिन्दगियों से हटकर उन्हें सरे आम रुस्वा करने लगा। मनोज अपनी मसहरी की घुटन से निकला तो उसने देखा कि रतन की मसहरी का एक भाग ढलका हुआ है और उसकी पत्नी का नंगा बदन दिख रहा है। मदन की फटी हुई मसहरी से उसका नंगा बदन साफ़ नज़र आ रहा है जो खुली हुई लुंगी में से साफ़ दिख रहा था। महाराज कृष्ण की जवान बेटी की जवानी मसहरी के पोरों से साफ़ दिख रही थी। यह नंगापन देखकर मनोज काँप उठा। उसे अपने आप से घृणा होने लगी। क्यों उनके संसार में आग लग गई? क्यों उन्हें उनकी नींवों से निकाला गया? जहाँ उनका घर, चाहे वह घास का झोपड़ा हो या एक आलीशान बँगला, उनकी इज़्ज़त का रखवाला था। इस अनजानी बस्ती में उनकी इज़्ज़त सरे-बाज़ार लुट गई . . . वह चाहने लगा कि उनकी शादी का दिन कभी न आये . . . । समय रुक जाए और यहीं थम जाए पर समय न कभी रुका है न किसी कि विनती पर रुक सकता है . . . । 

उसके विवाह की वेला भी आ गई। चन्द लोगों की यह बारात जिसमें उसका भाई और गाँव के कुछ यार दोस्त शामिल थे एक मैटाडोर में “मुट्ठी” कैम्प की तरफ़ रवाना हुए। यहाँ पर एक शामियाने में उसका विवाह सम्पन्न हुआ। अग्नि के सामने एक दूसरे को पति-पत्नी स्वीकार किया और फिर सारी रस्मों से निबट कर वह रात को एक बजे अपनी दुलहन के साथ अपने घर लौटा। भाभी ने उसका स्वागत किया। और फिर उन्हें नीचे कमरे में छोड़कर सब ऊपर चले गए। यार दोस्तों ने काफ़ी छेड़-छाड़ की, कोई मोगरे के फूल ले आया था तो कोई बादाम वाला दूध। महेन्द्र कौल साहब तो उसे चुपचाप कुछ गुर सिखा के मुस्कुराते हुए चले गए। अब कमरे में सिर्फ़ मनोज और रूपा थे। लाज की गठरी बनी रूपा जो अब अपने दुलहन वाले लिबास को बदलकर नाइटी में आ गई थी। कमरे के पीले प्रकाश में और भी ख़ूबसूरत लग रही थी। उसके गोरे मुख पर एक अजीब सी कशिश लग रही थी। इस रात के स्वप्न देखने वाले मनोज की आँखों में एक अजीब सी चमक थी पर गरमी के मारे बुरा हाल था। उसका नया कुरता पसीने से तर हो कर उसकी कमर से चिपक गया था। बड़ी कोशिश की उसने की कमरे में ही सो जाए पर कमरे में गर्मी की शिद्दत और असंख्य मच्छरों ने बुरा हाल कर दिया। हार कर मनोज ने रूपा से छत पर चलने के लिए कहा। 

मनोज का दिल छत पर चढ़ते समय काँप रहा था और माथे पर पसीने की बूँदें टपकने लगीं। उसका दिल जैसे वक्ष का पिंजरा तोड़कर बाहर आने को आतुर हो उठा। छत पर हलकी चाँदनी छिटकी हुई थी और गहरी ख़ामोशी छाई थी। वह रूपा का हाथ पकड़ कर तुरन्त अपनी सजी-सजाई मसहरी में घुस गया। चूँ चर चर की आवाज़ रात की ख़ामोशी को तोड़ती हुई निकल गई। मनोज ने चुपचाप अपने आसपास की स्थिति का जायज़ा लिया। चूँ चर की आवाज़ सुनते ही चारों तरफ़ से हलकी-हलकी आवाज़ें आने लगीं। कुमार की बीवी की दबी-दबी हँसी उसे सुनाई दी और दूसरी चारपाइयों पर भी करवटें बदलने की आवाज़ें आने लगीं। कुछ लोग तो जानबूझ कर पानी पीने के बहाने मसहरी हटाकर उनकी और देखकर चुलहबाज़ी कर रहे थे। 

मनोज और सिमटकर बैठ गया। वह हिला तक नहीं ताकि उसकी आवाज़ न सुन ले कोई। सारी रात आँखों-आँखों में कट गई; रूपा भी जागती रही। दोनों आँखों की मूक भाषा में एक दूसरे को छिटकी हुई चाँदनी में समझने की कोशिश करते रहे। भोर की पहली किरण फूटते ही मनोज ने अपना बिस्तर समेटा और रूपा को लेकर नीचे भागा। कुछ देर बाद बाक़ी सारे लोग जाग गए और मनोज के दोस्त उसे बधाई देने पहुँचे।

“क्या बेटा बाज़ी मार ली, कहीं हमारी नाक हो नहीं कटाई।” 

बेचारा मनोज सिर्फ़ हाँ-हूँ करता गया। सारा दिन उसका मन काम में न लगा। उसे रात की आगमन से घबराहट होने लगी। वह प्रार्थना करने लगा कि रात कभी न आए पर उसे फिर आना था और फिर मनोज और रूपा की रात उसी तरह आधा सोते आधा जागते कटी। इसी तरह एक हफ़्‍ता हो गया तो एक दिन रूपा का मामा उसे कुछ दिन के लिए मायके लिवाने के लिए आया। मनोज ने जैसे चैन की साँस ली और उसने अपनी मसहरी से लिपट कर सोने की कोशिश की। वह जितना उन नंगी आवाज़ों से पीछा छुड़ाने की कोशिश करता वह उतना ही उसका पीछा करतीं। 

जब रूपा को मायके गए 15 दिन हो गए और मनोज ने उसे लिवाने की कोई सुध न दिखाई तो उसे उसके यार दोस्त संगी साथी छेड़ने लगे, “अरे क्या भाभी से झगड़ा हो गया है”, “साले रह कैसे लेता है तू बीवी के बिना?” मनोज सिर्फ़ हूँ-हाँ करके या मुस्कुरा कर बात टालने की कोशिश करता पर अगले दिन जब वह काम से लौट रहा था कि उसने भाई-भाभी को बातें करते सुना। 

श्याम कह रहा था, “अरे सुनो भाग्यवान तुम्हें क्या लगता है? मनोज क्यों बहू को घर नहीं ला रहा क्या उसे लड़की पसंद नहीं?” 

श्यामा ने उत्तर दिया, “पहले तो मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा था पर बात दरअसल कुछ और है,” कहते हुए श्यामा कुछ हिचकिचाई। 

“कोई और बात क्या मतलब है तुम्हारा? साफ़ साफ़ क्यों नहीं कहती तुम।”

श्यामा ने उसके आगे जो कहा सुनकर मनोज के पाँव तले की धरती खिसक गई उसे लगा सैंकड़ों वज्रपात उसके सीने को छलनी कर गए। उसका अस्तित्व तिनके-तिनके होकर बिखर गया . . . जो आगे उसने सुना। 

“श्यामा यह क्या कह रही हो तुम . . . तुमसे किसने ऐसी वाहियात बात कही . . .?” 

श्यामा बोली, “सुनी सुनाई नहीं हक़ीक़त है . . . रूपा ने अपनी एक सहेली को यह बात बताई थी और उड़ते-उड़ते यह बात मुझ तक पहुँच गई। सब लोग रूपा की क़िस्मत पर आँसू बहा रहे हैं कि सब कुछ पता होकर भी हमने उसे और उसके मामा-मामी को धोखे में रखा।” 

इससे आगे मनोज सुन न पाया और भाग कर छत पर गया और पागलों की तरह चिल्लाने लगा . . . “तुम सब नंगे हो, वहशी हो” 

उसने अपने कपड़े फाड़ डाले और छत पर लगी तमाम मसहरीयों को नोचने-खसोटने लगा। शोर सुन कर लोग छत पर आ गए। मनोज जब उनकी तरफ़ बढ़ा तो लोगों ने उसे दबोच लिया। वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा . . . “हटो तुम, नंगे लोगो मुझ में अभी कुछ शर्म हया है . . . दूर हो जाओ मेरी नज़रों से हा . . . हा . . . हा।” और फिर वह दहाड़े मार-मार कर रोने लगा। श्याम व उसकी बीवी यह हृदय विदारक दृश्य देख सकते में आ गए। 

इतने में कोई पागलखाने फ़ोन कर चुका था और वे लोग उसे घसीटते हुए ले गए। 

मनोज चिल्ला रहा था . . . “भैया मैं पागल नहीं हूँ . . . इन लोगों की नग्नता ने मुझे पागल कर दिया . . . भाभी मैं पागल नहीं . . . मैं नंगा हूँ हा . . . हा . . . हा . . . हा . . . हा . . . हा . . . मैं नंगा हूँ।”

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