मुनासिब

01-04-2021

मुनासिब

भगवान अटलानी (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

राष्ट्रीयकृत बैंक के प्रबन्धक का कमरा। मेज़ के उस तरफ यूनियन का नेता कुर्सी पर बैठा है। प्रबन्धक के होंठों पर मुस्कराहट और नेता के तेवरों पर बल है।

“मैनेजर साहब, अगर आपका यही रवैया रहा तो मेरा कोई भी आदमी कल से बैंक के काम से बाहर नहीं जायेगा।”

“लेकिन मैंने बिल का भुगतान करने से मना कब किया है?”

“दो सौ की जगह पचास रुपये देकर आप हमारे ऊपर अहसान कर रहे हैं?”

“मुनासिब भुगतान देने से मैंने कभी मना किया है?”

“मुनासिब, ग़ैर-मुनासिब हम कुछ नहीं जानते। हमारा आदमी पैदल गया हो चाहे टैक्सी से, उसने मेहनत की है। बैंक का काम किया है।”

“आप समझिये, मुझे भी जवाब देना पड़ता है।”

“उद्घाटनों, ऋण मेलों और दूसरे समारोहों पर आप लाखों रुपये ख़र्च कर सकते हैं। तब जवाब नहीं देना पड़ता है आपको?”

“छोटी सी बात पर इतने नाराज़ क्यों होते हैं? आप कहते हैं तो लाइये, बिल पास कर देता हूँ।”

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