किरणों की मथनी से सूरज,
मथता जब सागर जल को।
नवनीत मेघ तब ऊपर आता,
नवजीवन देने भूतल को।

था क़तरा क़तरा सा पहले,
धुनी तूल सा पूर्ण धवल।
घनीभूत जुड़ जुड़ के हुआ तो,
धरा काली घटा का रूप प्रबल।
दमका तड़ित प्रचंड महा,
चला चीर अम्बर के पटल को।
किरणों की मथनी से सूरज,
मथता जब सागर जल को।

चलना उसका काम सदा ही,
रुकने का कभी नाम नहीं।
पर्वत नगर डगर लाँघे,
पीछे मुड़ने का काम नहीं।
उमड़ घुमड़ मँडराता डोले,
गरजा पूरे नभ मण्डल को।
किरणों की मथनी से सूरज,
मथता जब सागर जल को।

आशाभरे नयन कृषकों के,
बाँध टकटकी तुझे देखते।
दादुर मोर पपीहा प्यारे,
स्वागत में किलकारी भरते।
ग्राम बाल तुझे देख देख कर,
नाचे बजा बजा करतल को।
किरणों की मथनी से सूरज,
मथता जब सागर जल को।

परदेश बसे प्रीतम जिनके,
इक टीस हृदय में तू भरता।
गिनके जो काटे दिन उनको,
पिया मिलन को आतुर करता।
विरहणियों का मूक संदेशा,
लेजा शीतल करता अनल को।
किरणों की मथनी से सूरज,
मथता जब सागर जल को।

कृषकों के प्यासे नयन परख,
सूखी सरिता सर कूप देख।
विहगों का व्याकुल कलरव सुन,
प्यासी धरती की ज्वाला देख।
हुआ द्रवित परम महा दानी,
बूंद बूंद बरसा कर जल को।
किरणों की मथनी से सूरज,
मथता जब सागर जल को।

फलीभूत की कृषक कामना,
खेतों में बरसा वारि सुधासम।
वापी कूप तडागों को भर,
हर्षाया धरणी का जन मन।
मिटा मेघ इस परोपकार में,
त्याग तुच्छ जीवन चंचल को।
किरणों की मथनी से सूरज,
मथता जब सागर जल को।

महाकवि के मेघ धन्य तुम,
तुझसा नहीं कोई बड़भागी।
परोपकार के लिए ही पनपा,
तुझसे बड़ा नहीं कोई त्यागी।
सफल उन्हीं का जीवन जग में,
पीते जो परहित में गरल को।
किरणों की मथनी से सूरज,
मथता जब सागर जल को।

देशवासियों तुम अपनाओ,
मेघ के जैसा जीवन पावन।
करो त्याग से देश की सेवा,
बन जाओ जन जन के भावन।
'नमन' करे सारा जग फिर से,
जगद्गुरु के अक्षय बल को।
किरणों की मथनी से सूरज,
मथता जब सागर जल को।

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