माणक बाबू
मुकेश पोपलीमाणक बाबू के मन में यह बात घर कर चुकी थी कि वह एक रिश्वत खोर हैं। अब रिश्वत खोर हैं तब वह अपराधी पहले हैं और अपराधी हैं तो समाज और परिवार के लिए कलंक भी हैं। उन्हें अपनी उम्र का भी लिहाज नहीं तो कोई बात नहीं परन्तु उन्हें क्या अपने स्वर्गीय माता-पिता की इज़्ज़त का ख्याल भी नहीं। मान लिया कि वह स्वर्ग सिधार चुके हैं तब भी उनका अपने पुत्र और उसके परिवार के प्रति भी तो कोई दायित्व होगा। आखिर वह अपने पुत्र और उसके परिवार के लिए सम्माननीय सदस्य हैं। परन्तु अब जब यह उनके बारे में कहा गया है तब ज़रूर कोई कारण भी होगा। बड़े साब मन बहलाने के लिए तो कह नहीं देंगे यह सब।
माणक बाबू पिछले दो साल से सेवानिवृत हो चुके थे। घर पर चूँकि उनके लायक कोई विशेष कार्य नहीं होता था इसलिए वह सुबह लगभग ग्यारह बजे अपने पुराने दफ्तर चले जाते थे और दोपहर में दो बजे के बाद वापस घर आ जाते थे। घर पर तब तक बच्चे स्कूल से आ जाते थे। बहू-बच्चों के साथ दोपहर का खाना खाते, बच्चे बीच-बीच में अपने स्कूल, अपने दोस्तों की बातें करते और दादा जी की राय भी लेते। खाना खा चुकने के बाद बच्चे अपने स्कूल का होमवर्क ले कर बैठ जाते और दादा जी दीवानखाने में बिछे सोफा-कम-बैड पर पसर जाते। शाम को बच्चों के साथ कुछ देर पार्क की सैर और बच्चों के साथ ही फिर कहानी-चुटकुले आदि। कभी-कभी पास के बाज़ार से उनके लिए कुछ खरीददारी चाहे वह उनके स्कूल से संबंधित हो या घर का सामान। रात को खाना खाने के बाद बच्चे फिर टी.वी. या पढ़ाई में लग जाते और वह घर के लॉन में ही टहलते और रेडियो सुनते। कुल मिला कर सेवानिवृति से पहले और बाद में भी माणक बाबू अपने जीवन का आनन्द भोग रहे थे।
उनका एक ही पुत्र था रजत जो कि किसी रजत से कम न था। बहू उषा भी बहुत ही सुघड़ थी। शोभित और अंजु उनकी संतानें जो दादा जी का आदर भी करते थे और उन्हें अपना दोस्त भी मानते थे। इन सब के बीच माणक बाबू की पत्नी यशोदा अब इस दुनिया में नहीं थी। यशोदा को गुजरे वैसे तो एक अरसा हो चुका था मगर पति-पत्नी दोनों में से यदि एक ना रहे तो दूसरे के दिल में कोई न कोई हल्की सी टीस तो रह ही जाती है। माणक बाबू के सुख-दुःख की साथी यशोदा अब नहीं थी मगर उनकी जुबां पर फिर भी यशोदा का नाम हर वक़्त मौजूद रहता था। लेकिन परिस्थितियों से उन्होंने समझौता भी कर लिया था तब ही तो सेवानिवृति के बाद भी वह अपने आप को काम में डूबोए रखना चाहते थे और इसीलिए वह अपने पुराने दफ्तर चले जाया करते थे।
पिछले चार-पाँच दिनों से लगता था कि कुछ भी सामान्य नहीं रह गया है। माणक बाबू एकदम बदल गए थे। अब न उन्हें खाने-पीने की ही चिन्ता थी और न ही वह उन बच्चों से बात किया करते थे जिनके बिना उनकी शाम नहीं गुजरती थी। न वह हमेशा की तरह अपने दफ्तर जा रहे थे और न ही शाम को पार्क में घूमने। आजकल न तो उनका हँसी-ठट्ठा सुनाई देता था और न ही उनके ट्रांजिस्टर से रेडियो बी.बी.सी. या वॉयस ऑफ अमेरिका के समाचार। पहले और इन दिनों के माणक बाबू में हुआ परिवर्तन कोई भी देख सकता था। इस परिवर्तन का अहसास शोभित और अंजु को भी था और बहू को भी। जब बहू ने रजत से इस संबंध में बात की तो उसे भी अपनी शंका सही लगी क्योंकि बहुत दिनों से पिता जी ने उसके आगे आरती की थाली नहीं की थी जबकि हर सुबह जब वह अपने काम पर जाने के लिए तैयार हो रहा होता तो पिता जी आरती की थाली उसके आगे करते थे और वह पूरी श्रद्धा से आरती पर और फिर पिता जी के पैरों पर मस्तक रखता था और पिता जी अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ उसे लम्बी आयु का आशीर्वाद दिया करते थे। परंतु इन दिनों घर का पूरा माहौल बदला हुआ था। प्रत्येक सदस्य अपने आप में गुम था क्योंकि पिता जी का यह व्यवहार उनके लिए बहुत ही अजीब था। एकाध बार रजत ने जब उनसे बात करनी चाही तो उसे झिड़क दिया और साथ में यह भी कह दिया कि वह बहुत गंदे आदमी हैं, उनसे कोई बात न करे।
माणक बाबू अपने आप में ही बड़बड़ाते रहते। कभी दीवानखाने में तो कभी अपने कमरे में, कभी छत पर खुली धूप में और कभी सोते में वह कुछ न कुछ बड़बड़ाते हुए पाए जाते। रह-रह कर उनके दिमाग में बड़े साब से दफ्तर में हुआ वार्तालाप घूमने लग जाता। यही सब तो कहा था उस दिन बड़े साब ने -
“माणक बाबू, आप को रिटायर हुए दो बरस से भी ऊपर का समय हो गया है, मगर मैं यह देख रहा हूँ कि आप अक्सर दफ्तर में ही रहते हैं और यहाँ पर काम भी करते रहते हैं, इस की वजह पूछ सकता हूँ ?“
“कुछ नहीं साहब, “निश्छल हँसी माणक बाबू के चेहरे पर वैसी ही थी जैसे रिटायरमेंट के पहले, “घर पर मन नहीं लगता, यहाँ पर कुछ पुराने साथियों का साथ हो जाता है और फिर शरीर को जंग न लगे, इसलिए कभी-कभी यहाँ बैठकर फाइलें भी पलट लेता हूँ।”
“मुझे नहीं लगता कि यह सब सच है, चूँकि आप यहाँ बहुत बरसों तक काम कर चुके हैं और फिर आप को इस बात का पता भी एकदम अच्छी तरह से होगा कि किस ठेकेदार का काम करवाने का क्या रेट है, इसलिए आप इस उम्मीद में रहते हैं कि आप उनका कोई काम जल्दी करवा देंगे और बदले में अच्छी खासी रकम झाड़ लें।” बड़े साब ने रौबदार भाषा में कहा।
“बड़े साब, यह आप क्या कह रहे हैं ? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है ? मैं तो बस यहाँ......“
“मैं सब समझता हूँ,” बड़े साब ने माणक बाबू की बात को बीच में ही काटते हुए कहा, “रिटायरमेंट के बाद आदमी को अपने काम-धंधे से मुक्ति मिल जाती है, मगर आप जैसे लोग लार टपकाते हुए घूमते रहते हैं.....”
उसके पश्चात् बड़े साब ने क्या-क्या कहा होगा, माणक बाबू को नहीं मालूम। माणक बाबू को लग रहा था कि आकाश की सारी की सारी उलकाएँ एक साथ उनके शरीर में प्रविष्ट हो चुकी हैं। बदन पर जैसे हज़ारों कीड़े-मकोड़ों ने एक साथ हमला बोल दिया हो। वहाँ से वह धीरे-धीरे चलकर दफ्तर के बाहर आ गए। अश्रुपूरित नेत्रों से उन्होंने मुड़कर दफ्तर की तरफ देखा तो उन्हें लगा कि दफ्तर उन्हें चिढ़ा रहा है और कह रहा है कि तमाम जीवन उन्होंने जिस ईमानदारी के बूते पर गुजारा है, वह सब व्यर्थ हो गया। उन्हें लगने लगा कि अब वह वास्तव में रिटायर हो गए हैं, अब इस दफ्तर में उनकी कोई जगह नहीं। बस यही सब सोचते हुए चलते-चलते कब घर के अंदर गुमसुम से आकर बैठ गए, उन्हें पता ही नहीं चला और फिर जैसे ही बच्चों ने स्कूल से आते ही उन्हें आवाज़ दी तो उनकी रूलाई फूट पड़ी और वह अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर गिर पड़े।
कुछ देर बाद उन्हें होश आया तो उनकी नज़र अपने कमरे में टेबल पर रखे एक फ्रेम में फोटो पर पड़ी। इस फोटो में उनके हाथ में एक प्रमाण-पत्र था जिसमें उनके लिए कुछ प्रशंसनीय शब्द थे, जो तत्कालीन जिलाधीश ने उन्हें तब दिया था जब एक व्यापारी उनके कार्यालय में तीस हजार रूपये के नोटों भरा बैग छोड़ गया था और रात के आठ नौ बजे तक कार्यालय में इंतज़ार करते-करते जब वह थक गए तो सीधे व्यापारी के पास पहुँच कर वह बैग उसे लौटाया तो उनकी ईमानदारी के चर्चे पूरे शहर में होने लगे। बदले में माणक बाबू ने एक भी पैसा लेने से मना कर दिया तो जिलाधीश महोदय की सिफारिश पर उन्हें पदोन्नति प्रदान की गई और साथ में यह प्रशंसा भरा प्रमाण-पत्र भी। माणक बाबू ने वह फोटो उठा कर एक बक्से में डालने के लिए जैसे ही बक्सा खोला तब उनकी उलझनें और बढ़ गईं। इस बक्से में उनकी कुछ पुरानी यादें थी। वह पागल से दीमक चाट रही एक फाइल को पलटने लगे कि शायद कोई कागज़ ऐसा हो जिससे उनके रिश्वत खोर होने की बात सच ठहरती हो, मगर ऐसा कोई काग्ज़ नहीं मिला।
संदूक में कोने में एक तरफ एक पोटली उन्हें दिखाई दी। पोटली में उनकी पत्नी के चंद गहने थे। उन्होंने पोटली खोल दी, शायद कोई गहना ऐसा हो जिसमें उनकी काली कमाई का कोई अंश खर्च हुआ हो। उनके सामने पत्नी का मंगल सूत्र था, यह तो माँ की निशानी है। कान की बाली का एक जोड़ा - यह उन्होंने अपने पुत्र रजत के जन्म पर बनवा कर दिया था और उस समय पाँच-पाँच रूपये की मासिक कटौती कर सुनार को कई महीनों तक दी थी। दो चूड़ियाँ थी जो पत्नी अपनी शादी के दहेज में लाई थी, कहीं इसे तो रिश्वत नहीं माना जा रहा। उन्हें कहीं दूर से आवाज़ आती सुनाई दी, “नहीं-नहीं, यह तो मेरे पिता जी ने अपनी हैसियत के अनुसार मुझे उपहार दिया था, यह मेरे मायके की याद है।” उन्हें लगा कि उनकी स्वर्गवासी पत्नी कमरे में उतर आई है। बस यही तो गहने हैं इस पोटली में और इस घर में भी। हाँ, एक कमरबंद उनकी पत्नी ने अपनी बहू को दिया था लेकिन उस कमरबंद को तो माँ के पास देखा था जिस के साथ वह घर की चाबियों का गुच्छा लटकाये घूमती रहती थी, उसके पश्चात् उनकी पत्नी और अब बहू। तब फिर क्यों कहा जा रहा है उन्हें रिश्वतखोर ? उन्होंने संदूक बंद कर दिया था।
तीन-चार दिनों से लगातार यही स्थिति चल रही थी। कभी वह संदूक खोल कर बैठ जाते, कभी गहनों की पोटली। कभी फ्रेम वाली तस्वीर को देखते तो कभी अपने हाथों को। कभी वह एकदम सिसक-सिसक कर रोने लगते तो कभी रोते-रोते बड़बड़ाने लगते।
रजत एक चिकित्सक को बुला लाया तो उन्होंने एकदम इलाज के लिए भी मना कर दिया मगर फिर भी वह पाँच दिन की दवाई दे गया था और वह दवाई लेने लगे थे। चिकित्सक के अनुमान के अनुसार उन्हें कोई सदमा लगा था। बच्चों को समझा दिया गया था। रजत ने अवकाश के लिए प्रार्थना-पत्र दे दिया था।
पाँचवे दिन पोस्टमैन माणक बाबू के नाम से एक खत डाल गया था। सरकारी लिफाफा खोलने पर देखा तो खत पुराने दफ्तर से था-
“आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि कार्यालय में कुछ बकाया कार्यों के लिए पुराने कर्मियों की सेवा लिया जाना निश्चित हुआ है। चूँकि आप अपने कार्य के प्रति पूरे सेवाकाल के दौरान प्रतिबद्ध रहे हैं और आपने अपने कार्यकाल के दौरान ईमानदारी की अभूतपूर्व मिसाल कायम की है, अतः आपको एक वर्ष के अनुबंध पर इस कार्यालय में दोबारा नियुक्ति प्रदान की जाती है। साथ ही आपो यह भी सूचित किया जाता है कि सेवानिवृति की तिथि से अब तक के समय के लिए आपको दौ सौ रूपये मासिक विशेष भत्ता भी प्रदान किया जाएगा। आप अपनी सहमति एक सप्ताह के अंदर अद्योहस्ताक्षरकर्ता को प्रेषित करने का कष्ट करें ताकि आगे की कार्यवाही तुरंत की जा सके।”
अद्योहस्ताक्षरकर्ता के रूप में उन्हीं बड़े साब के हस्ताक्षर थे जिन्होंने माणक बाबू पर रिश्वत खोर होने का आरोप लगाया था। रजत ने पत्र पढ़कर माणक बाबू को सुना दिया था मगर माणक बाबू ने उसके बाद भी तीन-चार बार उस पत्र को पढ़ा और हर बार उनके मुँह से यह शब्द निकले- “मैं रिश्वत खोर नहीं हूँ”, “मैं रिश्वत खोर नहीं हूँ।” अब माणक बाबू सामान्य होने लगे थे।
तीसरे दिन वह फिर बच्चों से बतियाने लगे थे। अब उनके चेहरे पर फिर मुस्कान उतर आई थी और वह पहले की तरह फिर से शाम को पार्क में जाने लगे थे। उनका रेडियो फिर बी.बी.सी. और वॉयस ऑफ अमेरिका के समाचार सुनाने लगा था। बच्चे खुश रहने लगे थे और उनकी उछल-कूद फिर शुरू हो गई थी। वह पत्र माणक बाबू ने पुराने काले संदूक में पड़ी फाईल में नत्थी कर दिया था। गहनों की पोटली उन्होंने रजत और बहू के हवाले कर दी थी और संदूक को खुला छोड़ दिया था। पुरानी फोटो एक बार फिर टेबल पर सीधी कर दी गई थी।