मैं लिखता रहूँगा

01-10-2020

मैं लिखता रहूँगा

अशोक योगी 'शास्त्री' (अंक: 166, अक्टूबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

मुझे मालूम है 
मेरे लिखने से
सत्ता के कानों में
जूँ तक नहीं रेंगेगी 
मगर मैं लिखता रहूँगा
उन बदनसीब गिर वासी
वनवासी, निरीह आदिवासियों 
के लिए 
जो तुम्हारे उदर की पूर्ति 
करते करते सिमट गए
हिंसक पशुओं के बीच 
भयानक जंगल में 
जंगली जीवों को तो 
कर लिया वशीभूत 
उन्होंने अपने प्रेम से
पर वो बचा नहीं पाएँगे
ख़ुद को दुनिया के सबसे
ख़तरनाक जानवर से शायद ..!
 
मुझे मालूम है 
मेरे लिखने से
भर नहीं सकेगा 
भूख का पेट
मगर मैं लिखता रहूँगा
उन मजबूर मज़दूरों के लिए
जो अन्न के एक निवाले के लिए
अपनी हड्डियों की कुदाल
बनाकर, भरकर अपने स्वेद से
तुम्हारा स्विमिंग पूल,
बना रहे हैं, अपने रुधिर से
तुम्हारे लिए ऊँचा आशियाना
और स्वयं सो जाते हैं
बिछाकर धरती का बिछौना
ओढ़कर ऊँचा आसमां ।
 
मुझे मालूम है
मेरे लिखने से 
नहीं रुकेंगी आत्म हत्याएँ
मगर मैं लिखता रहूँगा
उन बेबस किसानों के लिए
जो तुम्हारे बनाए हुए
क़ानूनों में उलझ कर रह जाते हैं
क्षुधा तुम्हारी मिटाते-मिटाते 
ख़ुद भूखे सो जाते हैं
फँसकर कर्ज़ के मकड़जाल में
पत्नी को विधवा और
बच्चों को अनाथ कर जाते हैं ।
 
मुझे मालूम है
मेरे लिखने से 
नहीं रुकेंगे
हत्याएँ और बलात्कार
मगर मैं लिखता रहूँगा
सृष्टि के अंतिम पायदान
पर रहने वाले 
मज़दूर  और  किसान  के  लिए
बेबस   और   लाचार  के  लिए
न्याय   और  सर्वाहार  के  लिए
आधी आबादी के अधिकार के लिए
हाँ, मैं लिखता रहूँगा।

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