महावर
आरती पाण्डेयकभी पान से कभी लाख से,
अस्तित्व तेरा है आप से।
पैरों में जा कर यूँ सजी,
प्रारब्ध उठ गई ख़ाक से।
विश्वास भर कर हर क़दम,
धरती के मद में डोलते।
घुँघरू की लय में लालिमा,
घुलतीं गयी एक तार में।
संताप से कलुषित था मन,
अंतर्मन का चीत्कार था।
हर पग ने कुचला था तुझे,
वो भी तेरा एक त्याग था।
देख तेरी यह दिव्य अरुणता,
पलकें झुकी सम्मान में।
साहस भरा हर पग में जब,
पुलकित हुआ अब साज़ यह।
हौले से जब कर को छुआ,
वीणा भी झंकृत हो गई।
आदर से जो यह सिर झुका,
महिमा अलंकृत हो गई।
नटराज की मुद्रा में भी,
वो जीत की हुंकार थी।
महावर की ही छटा थी,
जो चहुँओर दीप्तिमान थी।
मन में जो अहंकार था,
अनुरक्ति का आधार था।
संस्कारों की दहलीज़ पर,
सपनों का इम्तिहान था।
शृंगार की मिसाल थी,
मन के भँवर के साथ थी।
महावर की यह लाली,
सच में बेमिसाल थी।