मातृभूमि
निलेश जोशी 'विनायका'अमृत बरसाते मेघ जहाँ माटी का कण कण चंदन है।
शेष सिहासन जिस माता का उसको शत शत वंदन है।
जिसके सिर पर शोभित होता पर्वतराज हिमालय है।
प्रस्तर पूजित होता जिसका हर पत्थर देवालय है।
करती शृंगार प्रकृति सारी सारे जग से है न्यारी।
हे मातृभूमि! बलिहारी जाऊँ हमको तू है जान से प्यारी।
नभ नीला परिधान छवि अति सुंदर है।
नित नित चरण पखार धन्य हुआ रत्नाकर है।
निर्मल नदियों की धार करती है पावन सबको।
उगा कर अन्न अनेक तृप्त कर देती है जग को।
धूली के कण-कण में सोना जो स्वर्ग से सुंदर है।
हे मातृभूमि! तुझको नमन तू तो प्रेम समंदर है।
तेरी गोदी में खेल कूद कर बड़े हुए हैं।
लोट लोट कर रज कण में हम खड़े हुए हैं।
खाकर तेरा अन्न जल पीकर नर कहलाए।
बाल्यकाल में देव तुल्य है सब सुख पाए।
माता तेरा ऋण बहुत क्या चुक पायेगा।
हे मातृभूमि! रक्षा में सिर जब कट जाएगा।
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