लोकजीवन के अन्यतम चितेरे : कविवर बाबा त्रिलोचन

31-10-2008

लोकजीवन के अन्यतम चितेरे : कविवर बाबा त्रिलोचन

सुशील कुमार

सोचा न था, तुम चल दोगे 
यूँ यह चमन छोड़कर,
न देखा तुम्हें ,
न मिल ही पाया तुमसे कभी,
जिंदगी में ताउम्र मलाल रह गया। 
ढूँढूँ कहाँ बाबा त्रिलोचन तुम्हें अब -
(चिरानीपट्टी में, काशी में या गाजियाबाद में?)
दर-ब-दर भटक कर 
कहीं पाया है 'गर 
तुम्हारा अक़्स तो 
तुम्हारे अक्षर में
जिसे जतन से संजोया है 
तुमने अपनी हर कविता में।
जिंदा रहेगा हरदम 
फक्कड़ बांकपन तुम्हारा
हर भा-रत जन के
कवि-मन में।   - (कविवर त्रिलोचन जी को श्रद्धांजलि)

जब कविता में होश सँभाला तो कविवर त्रिलोचन इस दुनिया से विदा हो चुके थे। नागार्जुन और शमशेर के बाद आधुनिक हिंदी कविता के त्रयी के अंतिम स्तंभ बाबा त्रिलोचन के साँसों की डोर गत 9 दिसम्बर, 2007 को गाजियाबाद में टूट गयी। उनके बाद कविता में आधुनिकता और परंपरा का ऐसा अद्‌भुत समागम और कहाँ पाऊँगा?

त्रिलोचन भारतीय लोकचित्त के सबसे बड़े कवि हैं। कविता-कर्म उनके लिये तप के बराबर था जिसके लिए वे कोई भी जोखिम उठाने को तैयार थे। अपनी साधारण लगने वाली कविताओं में उन्होंने जिस काव्य-मूल्य की सृष्टि की, वह आज के काव्य-परिदृश्य में एक उल्लेखनीय और युगांतरकारी घटना मानी जा रही है जिसका ठीक-ठीक पहचाना जाना हिंदी काव्यालोचना परंपरा के लिये एक गहरी चुनौती है। यह सोचकर घोर अचरज होता है और दु:ख भी कि, पहले तो जीवन के अत्यंत सन्निकट या संपृक्त रहने वाली त्रिलोचन की सरल-बोधगम्य रचनाओं को अन्यमनस्क होकर देखा गया या फिर उपेक्षणीय मानकर त्याज्य कर दिया गया पर अन्य मानदंडों पर रची गयी कविताएँ जब देर तक दृश्य में नहीं टिक पायीं और बाज़ारवाद की आँधी में बिखरने लगी, तो पुन: सबका ध्यान त्रिलोचन की कविता पर केंद्रित होने लगा। यह आधुनिकतावादियों के काव्य-चिंतन पर एक सवालिया निशान है। 

जहाँ तक सृजनात्मक और रचनाधारित आलोचना का प्रश्न है, हमारे आलोचक की अध्ययन-परम्परा भी गहन-गंभीर और संदर्भमूलक नहीं है। यहाँ रचनाकारों के व्यक्तित्व-कृतित्व को माँजने और गुनने के बजाय आलोचकों द्वारा उनके संबंध में अपनी नकारात्मक टिप्पणी और निष्कर्ष ही अधिक दिये जाते हैं। जो काव्य के पारखी-आलोचक हैं वे भी अपने यशस्वी मायालोक से इतने ग्रस्त रहते हैं कि उनका आलोचना-विवेक भी लगभग आलोचना-अहंकार का पर्याय बन जाता है। अपने-अपने पूर्वग्रह, विवाद और सुविधाओं के लालच और दुराग्रहों के कारण वे आलोचना की खास ज़मीन और वज़ह खोजते हैं, इस कारण तटस्थ नहीं रह पाते। संभवत: इन्हीं कारणों से त्रिलोचन के काव्य-संसार का अब तक न तो समग्र मूल्यांकन हो पाया, न उनकी वह प्रतिष्ठा ही हिंदी साहित्य में हो पायी जिसके वे सही मानो में हक़दार थे। अब जब नहीं रहे बाबा तो समालोचकों की नींद खुल रही है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। 

लोकरस की सच्ची कविताओं की विलक्षणता की पहचान में विलंब का एक और कारण उत्तर-आधुनिकता और पश्चिम के विजातीय विचार का भारतीय संस्कार में तीव्र और विवेकहीन सम्मिलन भी है। लोक का जीवन और सौंदर्य तो उसके श्रम की संस्कृति से उद्‌भूत होता है पर जब तथाकथित विकास की आँधी हमारे यहाँ तेज हो गयी तो उसके वेग में लोक हाशिए पर धकेला गया, इसके सृजन को अविकसित, रूढ़, पारंपरिक और छोटी पहल की कहकर हेय समझा गया क्योंकि वह विचार पूँजी के संस्कार से फलित होता है जिसमें जीवन का रस कृत्रिम और देहवाद, निरा कलावाद और रूपवाद से निस्सरित होता है। इस बारे में लोक के पक्षपाती समीक्षक डा. जीवन सिंह का विचार ध्यातव्य है। वे कहते हैं कि-"दरअसल बौद्धिकता के ज्वार में हमने कविता में सरसता और भावपरायणता को इतना दरकिनार किया है कि ये बातें कविता के लिये अछूत जैसी बना दी गयी है। इनमें उन आलोचकों का भी हाथ रहा है जो अपनी काव्य-परंपराओं को भूलकर विदेशी काव्य-चिंतन के पीछे इतने पड़े कि अपनी सुध-बुध ही भूल गये।.....उसकी अनदेखी करके जो रचना होगी, वह नई और आधुनिक तो होगी परन्तु आत्मिक स्तर पर उतनी समृद्ध और पूर्ण नहीं होगी।" उपर्युक्त कारणद्वय से आधुनिक पाठकों और बडे़ आलोचकों कवियों की लिस्ट में त्रिलोचन जी को पीछे रख दिया गया। पर उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की, न हार मानी। हरदम अपना देशी ठाठ और सृजन का अलग ढर्रा बनाये रखा क्योंकि त्रिलोचन के कवि-प्रकृति को पता था कि लोकहृदय ही दुनिया में मानवता की संस्कृति रच सकेगी। 

त्रिलोचन के काव्यलोक से जुड़ा एक अहम् सवाल यह है कि उनकी कविता का जनमानस में देर तक टिकने और आकर्षण की वज़ह क्या है। इस कारण की जाँच-बीच उनके काव्यविवेक और उसमें अंतर्निहित रूप और वस्तु को बिना समझे नहीं किया जा सकता। 

उनकी सोच में प्रगाढ़ पार्थिवता थी जो उनके लोकसंस्कारी स्वभाव के कारण उनकी कविताओं में स्वत: लक्षित होता है। वे गाँव के कृषक-संस्कार के काफ़ी करीब थे जो उन्हें चिरानीपट्टी गाँव और काशी में मिला था। चिरानीपट्टी ने उनको लोक की समझ दी और काशी ने काव्य- चिंतन की। उनका लोक जिन तत्वों से बना है, उसमें बडी़-बडी़ बातों के लिये जगह नहीं। इसलिये त्रिलोचन बातूनी कवि नहीं थे। बिना लागलपेट के सीधे अपनी बात कहने में विश्वास करते थे, इसलिये कविता के बाहर भी निकल आना चाहते थे अर्थात् कला के बंधन में नहीं फँसते थे। वे वस्तु के निकटतम स्थानापन्न, बल्कि वही हो जाना चाहते थे। जैसे जहाँ जिस रूप में देखा, हू-ब-हू वैसा ही रच दिया। अपनी ओर से जोड़-तोड़ से परहेज बरतते थे। यही लोक का स्वभाव भी है, यानि खरा, पवित्र। यहाँ भावना प्रधान होती है, न कि कला। वैसे भी रीतिकाल के बाद साहित्य में जीवन का सतत विकास और कला का पराभव ही दृष्टिगत हुआ है। कहने का अर्थ है कि वे हृदय से लिखते थे, बल्कि यूँ कहें कि कविता को अपना हृदय ही दे देना चाहते थे। कलम की दिमागी कसरत नहीं करते थे। उन्होंने खुद कहा है- 

"मुझे वह रूप नहीं मिला है जिससे कोई/ सुंदर कहलाता है,हृदय मिला है/ जिससे मनुष्यता का निर्मल कमल खिला है।" 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने वाल्मिकि के काव्य-सौष्ठव का उल्लेख करते हुए कहीं कहा है कि, "किस सूक्ष्मता के साथ कवि कुलगुरु ने ऐसे प्राकृतिक व्यापारों का निरीक्षण किया है, जिनको बिना किसी अनूठी उक्ति के गिना देना ही कल्पना का परिष्कार और भाव का संचार करने के लिये बहुत है।" इसी परिप्रेक्ष्य में त्रिलोचन की काव्यकला भी देखनी-परखनी चाहिए। कविता में कला का सायास यत्न कभी उन्होंने नहीं किया, इसलिये उक्तियों की वक्रता, गूढ़ता और अनूठेपन का सहारा भी नहीं लिया। प्रकृति, लोक और जीवन का सूक्ष्म निरीक्षण ही स्वयं त्रिलोचन की कविता को कला का रूपाकार देते हैं। ऐसा, विरल कवियों में लक्षित होता है और इसे कलाहीन कला और जीवन की कला (an artless art for life) की संज्ञा दी जा सकती है।

अभिव्यक्ति की इस कला में उनकी भाषिक संरचना का भी कम योग नहीं है। भाषा के प्रति त्रिलोचन आरम्भ (1950-51) से ही सजग थे। उनकी भाषा सबसे अलग, अनूठी और कला की ही तरह सरल है जिसका ठेठ देशज जातीय रूप ही उसकी पहचान है और महानता भी। बोली, भाषा के साथ यहाँ इतने रचे-बसे हैं कि इसका संश्लेषण इतने व्यापक रूप में किसी अन्य कवि की रचना  में गोचर नहीं होता। तद्भव-तत्सम का यह संश्लिष्ट रचाव बडे़ विस्मयपूर्ण ढंग से उनकी कविता में खुरदुरे और क्लासिक चीजों का मेल कराती है जो अकल्पनीय है। अपनी भाषा के इस प्रकृत गुण को त्रिलोचन ने सदैव बनाए रखा। तत्सम शब्दावलियों में भी उनकी भाषिक संरचना उतनी ही महत्वपूर्ण है।

त्रिलोचन की कविताओं में अभिव्यक्ति की सहजता (simplicity of expression) भी इतनी अन्यतम है कि वह नये काव्य-सौंदर्य का सृजन करती है जिसका पाठक के मन पर दीर्घ और गहरा प्रभाव पड़ता है। यह सहजता मात्र लोक की बानगी के कारण नहीं है, अपितु भाषा की तरलता, हृदय-तत्व के समावेशीकरण और कवि की स्वयं की प्रकृति और "प्रयत्नहीन कला" (effortless art)  के हुनर का परिणाम है जो मात्र त्रिलोचन के यहाँ विपुलता के साथ देखा जा सकता है। इसलिये यह अद्‌भुत है, एकल है और इसका विशेष महत्व है। 

हिंदी काव्य में लोकधर्मिता और प्रगतिशील आधुनिकता का निर्वहन त्रिलोचन के अलावा कई अन्य कवियों ने भी बखूबी किया है जैसे नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, अरुणकमल आदि ने। पर त्रिलोचन के कवि में लोकजीवन का जितना विस्तार और जितनी सघनता है उतने दूसरे कवियों में अपेक्षाकृत कमतर और बाह्यतर है। नागार्जुन अधिक ठोस है, अत: आघात भी करते है। शमशेर में अस्तित्व की उन्मुक्तता अधिक है, इसलिये उडा़न भरते हैं। केदार में सामाजिक यथार्थवाद से पूरित प्रगतिशीलता अधिक है तो अरुणकमल में जीवन को भरने की ललक। इन सबका अपना-अपना महत्व है पर त्रिलोचन किसान-लोक के ज्यादा करीब हैं जिसमें भारत की आत्मा बसती है, इसलिये जीवन के प्रति निष्कवच खुलापन त्रिलोचन को आधुनिकता और लोकधर्मिता के बृहत्तर दायरे में लेकर चलती है। यहाँ जीवन से गहरा लगाव, जन के साथ तादात्म्यता और संघर्ष में तपकर निखरते जीवन के प्रति विराट निष्ठाबोध ही सच्चे अर्थों में त्रिलोचन को आधुनिक बनाता है। यह आधुनिकता न तो आयातित है, न अंधविश्वास या स्वांग भर। इस आधुनिकता का भारतीय संदर्भ है। यह भी नोट करने योग्य है कि यह आधुनिकता रूढ़ियों, वर्जनाओं और जर्जर परंपराओं के विरोध में खड़ी तो है पर अपना निष्कर्ष नहीं देती। दूसरे शब्दों में, यहाँ अंतरंग अनुभवों का सादा बयान है जिसमें व्यवस्था के प्रति अराजक विद्रोही स्वर नहीं है। ऐसे अनुभवों को त्रिलोचन बिना अलंकार, बिंब, प्रतीक, जैसे काव्य उपादानों के कविता में रखते है पर लोक की अटूट सन्निबद्धता के चलते  कविता दमकने लगती है- 

उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है -
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढ़ूँगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ूँगी
 
मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे संदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!
 
चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो , देखा ,
हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करूँगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूँगी
कलकत्ता में कभी न जाने दूँगी
कलकत्ता पर बजर गिरे.
                ('चंपा काले -काल्र अच्छर नहीं चीन्हती' से)

कितना सादा, किंतु अर्थपूर्ण बयान है! 

त्रिलोचन की कविता ही उदाहरण है कि उन्होंने जीवन की पाठशाला में ही काव्य की दीक्षा ली है जो अपने लोक से उन्हें मिली है। इसी रास्ते चलकर कविता को एक चेतन मन और स्पंदित समाज की अभिव्यक्ति का आकार प्रदान कर पाये हैं। विकास का अर्थ उनके लिये जीवन में ही है, उससे बाहर नहीं। जीवनेतर प्रगति व्यर्थ है, मिथ्या है उनके लिये!-

    जीवन में ही प्रगति भरी है, अलग नहीं है।
    जो बाहर है वस्तु तत्व से दूर कहीं है।

स्पष्ट है, उनके जीवनधर्मी काव्यविवेक में ही परिवर्तन और प्रगति की सार्थकता छिपी है। यहाँ यह भी लक्ष्य किया जाना चाहिए कि जीवन में जटिलता भी है, दु:ख भी, अकेलापन भी, अथाह शून्यता भी, पर इन विपदाओं का सर्व्र रागालाप नहीं है। त्रिलोचन का कवि स्वीकारता तो है कि पीड़ा है पर उससे वह टूटा- हारा नहीं है, हताश होकर बैठ नहीं गया है। वह सदैव दु:खों की माला नहीं जपता। वह कर्मयोगी है। वह दुख के सामने तनकर खड़ा होता है और अपने काम में व्यस्त हो जाता है। वह दैव के भरोसे भी नहीं रहता, बल्कि कर्म-पथ पर अग्रसर हो जाता है, अदम्य तत्परता के साथ। वह जीवन के उत्सव में हमेशा साझी है, चाहे दुख हो या सुख क्योंकि उसकी जिजीविषा दृढ़ है-

संकोचों से सागर तरना
शक्य नहीं है
अगर चाहते हो तुम जीना
धक्के मारो इसी भीड़ पर, इससे डरना
जीवन को विनष्ट करना है
उर्वर होता है जीवन भी आघातों से 
विकसित होता है, बढ़ता है उत्पातों से।
या फिर,
लडो़ बंधु हे, जैसे रघु ने इंद्र से लडा़ था/
क्रूर देव सम्मुख मानव दृप्त खडा़ था।

यह जीवन के प्रति त्रिलोचन के गहरे अंतर्निष्ठा का प्रमाण है जिसे वे जीवन के व्यापक प्रसार में देखते हैं। लोकहृदय की ऐसी पहचान बनानेवाले जीवनधर्मी कवि को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सच्चा कवि कहा है जो त्रिलोचन के कवि की उचित संज्ञा है। वह कविता को समाज के सबसे न्यूनतम तबके से उठाते हैं यानि श्रमिक या किसान से। अपने विचार, भाव और जीवन -सत्व भी वहीं से ग्रहण करते हैं। मानवता के गहरे विश्वासी-कवि त्रिलोचन मानते हैं कि -

"उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,
नंगा है, अनजान है, कला--नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है
उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता 
सकता है। वह उदासीन बिलकुल अपने से,
अपने समाज से है; दुनिया को सपने से
अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची; अब समाज में
वे विचार रह गये नही हैं जिन को ढोता
चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन पढ़ कर, जपता है नारायण नारायण।"

त्रिलोचन इस तरह भावों की गहराई के कवि हैं, वे उसका नाटक नहीं करते। वे दुख-दर्दों की हाला पीकर और भी उर्जावान होकर काव्य-सृजन करते हैं। यह उनके दृढ़ व्यक्तित्व को इंगित करता है। आज मानवता के ह्रास का एक बड़ा कारण चरित्र का दोहरापन है और कई बार तो चरित्र के विचलन को ही आधुनिकता का पर्याय मान लिया जाता है क्योंकि सरप्लस पूँजी ने मानव के सबंधों को सिर्फ़ धन-संबंधों में ही बदलने का कार्य किया है और सुख की झूठी परिभाषा की है। परंतु उनके चरित्र का ठोसपन और एकनिष्ठता वस्तुत: आधुनिकता का भारतीय संदर्भ है जिसकी जड़ें हमारी परंपरा और संस्कृति में है जो वे अपने पारंपरिक ज्ञान और संस्कार से लेते हैं। यही कारण है कि इनके प्राण-तत्व के रूप में तुलसी और निराला उनके आदर्श हैं जिनकी गुरुता उन्होंने स्वीकारी है हालाँकि दोनो अलग-अलग काल और परिस्थितियों के कवि हैं परंतु त्रिलोचन के अंतस में समाकर एकरस हो गये हैं। अत: उनकी परंपरा किताबी नहीं वरन् संस्कार-जन्य और व्यावहारिक है। कविता के बीज भी उनके बाल्य-मन में लोकगीतों (चीरानीपट्टी में गाये जाने वाले गीत यथा; चौताल, उलारा आदि) से ही फलीभूत हुए। इसलिये वे अपनी ज़मीन को कभी नहीं भूलते। पर यह भी गौ़र करने के लायक है कि वे उदार विकसित जीवन के पक्ष में हैं यानि नवाचारी जीवनोन्मुख गतिविधि के हिमायती हैं। उसके लिये अपने मन के द्वार बंद नहीं रखते। 

त्रिलोचन की कविताओं में आकर्षण का एक और कारण है, उनकी कविताओं में बड़ी मात्रा में लोक-चित्रों और प्रकृति का समुपस्थित होना। वे अपने आस-पास की प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं, उनकी बारीक गतिविधियों का अवगाहन करते हैं और सादी भाषा की लड़ियों में पिरोकर कविता की सुन्दर माला रच देते हैं। इस प्रकार प्रकृति के व्यापारों से न्यस्त होकर उनकी कविता में कला  का स्वत: प्रस्फुटन हो जाता है अथवा कहें कि, वे कला के लिये कविता नहीं करते थे। इसलिये उनकी कविता में वक्रता और गूढ़ता की जगह आत्मीयता और सरलता का बोध होता है। यही उनका कलावाद है-

"पवन शान्त नहीं है"-

आज पवन शांत नहीं है श्यामा /देखो शांत खड़े उन आमों को /हिलाए दे रहा है /उस नीम को /झकझोर रहा है /और देखो तो /तुम्हारी कभी साड़ी खींचता है /कभी ब्लाउज़ /कभी बाल /धूल को उड़ाता है /बग़ीचों और खेतों के /सूखे तृण-पात नहीं छोड़ता है /कितना अधीर है /तुम्हारे वस्त्र बार बार खींचता है /और तुम्हें बार बार आग्रह से /छूता है /यौवन का ऎसा ही प्रभाव है /सभी को यह उद्वेलित करता है /आओ ज़रा देर और घूमें फिरें /पवन आज उद्धत है /वृक्ष-लता-तृण-वीरुध नाचते हैं /चौपाए कुलेल करते हैं /और चिड़ियाँ बोलती हैं।

वर्तमान समय में त्रिलोचन के कविता की प्रासंगिकता - 1990 के बाद अपने देश में उदारीकरण और वैश्वीकरण का जादू सिर चढ़कर बोलने लगा। यह एक ऐसा सर्वग्रासी विचार है जिसमें मानव के वही मूल्य, वस्तु, कला और प्रयत्न टिक पायेंगे जो बाजार के पक्ष में हो और उपभोक्ता-मनुष्य के लिये उपयोगी हो क्योंकि यह विचार जीवन और संस्कृति के हरेक कर्म, वाक्य, शब्द और परिणाम को एक बिकाऊ उत्पाद में बदल देने पर आमादा है। ऐसे में भारतीय साहित्य के देशज चरित्र के नष्ट हो जाने का खतरा स्वाभाविक है। साथ ही यह आदमी में ऐसी रुचि को उत्पन्न करने का उपक्रम कर रहा है जो बाजार और विज्ञापन की भाषा को तरज़ीह दे। यह सृजन, विचार और आत्मिक भाव की भाषा को हाशिए पर रखता है। इस कारण त्रिलोचन और ऐसे अन्य कवियों को लोग क्योंकर पढ़ेंगे? लोककला, लोकसंस्कृति और लोकसाहित्य तो उस ज़मीन का पता देते हैं जिसके विषय में ये रचे जाते हैं। अत: वैश्वीकरण मनुष्य के लोकोन्मुखी प्रकृति पर ही वार करता है और वह मनुष्य के सोचने के ढंग को ही बदल देना चाहता है।

दूसरी ओर, लोक की कोख से जन्मा साहित्य मनुष्य को उसकी अपनी अस्मिता और ज़मीन से जोड़ता है। दुनियाभर में श्रम की संस्कृति को प्रतिस्थापित करता है और आदर भी। इसलिये कहा जा सकता है कि यह मनुष्यता की संस्कृति में विश्वास रखता है। इस संदर्भ में त्रिलोचन की कविता को देखने से यह पता चलता है कि उनकी कविता उस लोक-हृदय का पता देती है जिसमें बाजार के लिये जगह नहीं। अत: बाजार से बेजा़र होते इस लोक-समय में उनकी कविताओं का महत्व और बढ़ जाता है जो बाजार के विपरीत, मानव की मूल संवेदना को जगाने में समर्थ है क्योंकि दुनियाभर में संप्रति चल रहे लूट-खसोट, छल-छद्म, हिंसा, दंभ, अहंकार, प्रदर्शन, अन्याय और उत्पीड़न से अलग वह एक प्रेममय, विलक्षण संसार की रचना करता है जिसमें सच्चाई को प्रतिष्ठित करने की और आदमी को झूठ से अलगाने की शब्दों की ताक़त है। 

अत: वरिष्ठ कवि और समालोचक विजेंद्र जी ('कृतिओर' के सम्पादक) की यह उक्ति हमें स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं कि "त्रिलोचन मनीषी भी हैं। तपस्वी भी। कविता उनके अत्यंत दायित्वशील जीवन का पर्याय है। उन्होंने कविता का मान रखने के लिये हर बड़ा जोखिम उठाकर हमारे लिये एक अनुकरणीय प्रतिमान रचा है। ऐसे कवि ही अपनी जाति के गौरव होते हैं। आनेवाली पीढियां उनसे प्रेरणा लेती हैं। ऐसी कविता हमारे लिये हर समय ज्योति-स्तंभ का कार्य करती है। त्रिलोचन जैसे कवि अपने समय का भेदन कर उसे इस प्रकार अतिक्रमित करते हैं जो हमें भविष्य के कवि भी लग सकें।"

इसलिये त्रिलोचन जी के शब्दकर्म की  बहुकोणीय  समीक्षा और प्रतिष्ठा वर्तमान कविता-समय की माँग  है।
 

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