कल बड़े का पेपर है

02-07-2014

कल बड़े का पेपर है

डॉ. विनय ‘विश्‍वास’

ये जो चार बच्‍चों की माँ
काम में जुती है सर झुकाए
चुपचाप
कोई सोच नहीं सकता
कैसे बोला करती है चिकर-चिकर

कल बड़े का पेपर है
आज फिर पीके आया है उसका बाप
बीड़ी के धुएँ और गालियों से
बदबू में रह गई कमी
पूरी कर रहा है

ऐसा नहीं कि उसके जी में बदबू कम हो
और वो जवाब न दे सकती हो पूरा-पूरा
मुँहतोड़
पर इस वक्‍़त अपनी आवाज़ घोंटे
हीक दबाए
दर्द को सर में रोके
मरने की तलब पे काबू रक्‍खे
चुपचाप काम में लगी है

ज़रूर... हाँ ज़रूर मिलेगी
कल हवाओं में अपनी साँसों के लिए जगह
कल बड़े का पेपर है
और उसे उसके चारों तरफ़ रहना ही है
एक अदृश्‍य गर्भ की तरह!

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