जीवन के सभी रसों और रंगों में भीगी कविताएँ

01-07-2021

जीवन के सभी रसों और रंगों में भीगी कविताएँ

डॉ. सुधा ओम ढींगरा (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

कविता संग्रह: सरहदों के पार दरख़्तों के साये में 
लेखिका: रेखा भाटिया
समीक्षक: सुधा ओम ढींगरा 
प्रथम संस्करण: 2021
मूल्: 250 रुपये 
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, 
पी. सी. लैब, शॉप नं. 2-8, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, बस स्टैंड के सामने, 
सीहोर, म.प्र., 466001, फोन: 07562405545, 
ईमेल: shivna.prakashan@gmail.com 

रेखा भाटिया का नया काव्य संग्रह 'सरहदों के पार दरख़्तों के साये में' मिला। एक ही बैठक में उसे पढ़ लिया। सबसे पहले तो मैं उसके शीर्षक से बहुत प्रभावित हुई। कहीं वैश्विक या प्रवासी शब्द नहीं, लेकिन फिर भी पाठकों को पता चल जाता है कि यह किसी दूर देश का कविता संग्रह हैं। 'सरहदों के पार दरख़्तों के साये में' यानी प्रकृति के सान्निध्य में। रेखा भाटिया अमेरिका की उभरती युवा कवयित्री है और शार्लेट शहर में रहती हैं। दरख़्तों से घिरी ख़ूबसूरत वादी जैसे शहर में, कत्थक नृत्य करती हैं और चित्रकला से बहुत प्यार है। स्कूल में प्राध्यापिका हैं और साथ ही सामाजिक कार्य भी करती हैं। उनके व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का उनकी कविताओं में गहरा प्रभाव महसूस किया जा सकता है। प्रकृति प्रेम भी रेखा जी की कविताओं में झलकता है।

'ज़िंदगी मेरी जीवन सखी' कविता में रेखा जी ने ज़िंदगी को सखी के रूप में देखा है और उससे पूछती हैं–

 मैं भी बूझूँ, मैं भी जानूँ 
 व्यक्तित्व कैसा है तुम्हारा! 
 कहानियाँ कई कह गईं 
 रिश्ते कई बना गईं
 कुछ कहानियों के पात्र हम 
 कुछ रिश्ते निभाना सिखा गईं।

 ज़िंदगी भर हम कितने पात्र निभाते हैं। कितनी कहानियों को जन्म देते हैं। इसी कविता में लेखिका अपनी सखी ज़िंदगी से गिला भी करती है–

 कभी चलने दो मेरी भी तुम सखी 
 आगे-आगे तो तुम्हीं चलती रही.... 

 ज़िंदगी का एक अलग पहलू वह 'मूल कारण' कविता में अभिव्यक्त करती हैं।

'सरहदों के पार दरख़्तों के साये में' पढ़ते हुए महसूस किया, रेखा भाटिया बहुत संवेदनशील हैं। जन्मभूमि और कर्मभूमि के अंतर्द्वंद्व में उलझकर नए रास्ते तलाश रही हैं। जन्मभूमि की विसंगतियों, विद्रूपताओं, सरोकारों के लिए चिंतित हो उठती हैं। कहीं समाज, मानवजात, पुरुषसत्ता से शिकवे-शिकायतें हैं तो कहीं रूढ़ियों, झूठी मान्यताओं को बदलना चाहती हैं।

कर्मभूमि में मानवीय भेदभाव और नस्लवाद उन्हें दुखी करता है। वर्षों से अमेरिका में रह रही हैं, अमेरिका की जहाँ प्रकृति का वह आनन्द लेती हैं, वहीं अन्याय के ख़िलाफ़ भी उनकी आवाज़ बुलंद होती है।

'स्वागत को आतुर' कविता में वे वसंत ऋतु का स्वागत करती हैं–

सजने दो वसुंधरा को स्वर्ण-वसंत से
दमकने दो घरती को सूर्य-रश्मियों से 
खिल आएँगे पुष्प, महक जाएगी बगिया 
बज उठेगा संगीत भौरों की गुनगुनाहट से। 

तो कहीं 'प्रकृति से छिपा लूँ वसंत बहार' कविता लिखती हैं–

'बहारों बैठो आसपास', 'बावरा मन मौसम', 'पंछी सिखलाते' कविताएँ भी प्रकृति को समर्पित हैं।

'क्या रोक पाओगे यह खेल' कविता में रेखा जी युद्ध से पीड़ित हो कहती हैं–

 हथियारों के पहाड़ों नीचे खोदो 
 कहीं घायल पड़ी मिलेगी मानवता
 ****
 किसी झंडे में छिपा छलनी शरीर 
 कई दिन रातें बिलबिलाते 
 नेताओं से सवाल पूछ-पूछ चिल्लाते 
 नया क्या है यह सदियों का खेल 
 राजे रजवाड़े गए प्रजा की वही लड़ाई 

अपनी जात से तो रेखा भाटिया बेहद ख़फ़ा हैं, क्यों न पूछा अपना हाल… कविता में लिखती हैं–
 
क्या महज़ साँस लेता जिस्म... 
क्या यही मायने हैं स्त्री के 
****
 आत्मा मरने लगी अब मेरी!
 छत-दीवारें, गली चौबारे 
 हृदय का चौराहा,
 सब हुए हैं अब लहूलुहान
 किन्तु कब तक चुप बैठूँगी!  
****
शर्मिंदा तुम नहीं पुरुष, मैं हूँ 
क्यों न पूछा अब तक अपना हाल 
देवी, शक्ति, मूर्ति से निकल बाहर, 
तीन सौ पैंसठ नारी दिवस मना।

'मुखौटा' कविता में रेखा जी भगवान् से कहती हैं कि मुझे दुनियादारी का नक़ली मुखौटा क्यों नहीं दिया? मैं क्यों बाज़ारवाद और समाज में व्याप्त सौदेबाज़ी से पिछड़ जाती हूँ। बेटी और स्त्री को लेकर रेखा जी ने कई कविताएँ लिखी हैं। अपनी ही जात की प्रतिष्ठा का सम्मान करते हुए स्त्री की अस्मिता, अस्तित्व पर बड़े धड़ल्ले से लिखा है। 

कई विषय और बातें ऐसी होती हैं, जिन पर कहानी लिख कर भी अभिव्यक्ति की संतुष्टि नहीं होती पर कविता में बड़ी सहजता और सरलता से स्वाभाविक ही उन भावों का संचार हो जाता है। रचनाकार की दृष्टि समाज के उन कोनों तक भी पहुँच जाती है, जिनकी अवहेलना कर वर्जित कर दिए जाते हैं। कवि अपनी कल्पना से नई राहें तलाशता है, हृदय को छूकर जीवन को सतरंगी कर देता है। 

'सरहदों के पार दरख़्तों के साये में' कविता संग्रह में रेखा भाटिया ने तक़रीबन जीवन के सभी रसों और रंगों में भीगी कविताएँ लिखी हैं। कहीं मन की पीड़ा 'रिश्ते झरे पत्ते', 'वह ग़म कभी छिपा नहीं', 'खुरदरी सी हो गई ज़िंदगी', 'मन क्यों उदास होता है,' 'रिश्ते छूट जाते घाटों पर', 'आस में मिटती', कविताओं में झलकती है तो कहीं समाज में हो रहे अन्याय के प्रति आक्रोश 'मैं स्त्री बन पैदा हुई' में टपकता है। नारी को दोयम दर्जे का समझे जाने से वह तड़पी है 'संसार बदलने चली है बेटी' कविता में। कहीं कवयित्री 'भविष्य में आने वाले कल की नींव' का ज़िक्र करती है और कहीं रेखा जी पाठक को 'चलिए अतीत में चला जाए' कविता में अपने इतिहास को खंगालने के लिए बाधित करती है। प्रेम, बेवफ़ाई, राष्ट्रप्रेम, अंतिम सत्य खोजती 'देह यात्रा', हर दिन त्योहार, पिता, माँ, बेटी, रिश्ते, अलौकिक प्रेम, हर विषय पर इस संग्रह में कविताएँ हैं। कुछ कविताएँ दिल को छूती निकलती हैं, कुछ विवेक को झंझोड़ती हैं। कई कविताएँ सोचने पर बाध्य करती हैं। 143 पृष्ठों और 72 कविताओं का संग्रह 'सरहदों के पार दरख़्तों के साये में' पठनीय है और कवयित्री रेखा भाटिया का यह पहला प्रयास है, जो सराहनीय है। 

सुधा ओम ढींगरा, 101Guymon Ct., Morrisville, NC-27560,USA
ईमेल- sudhadrishti@gmail.com

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