जब कभी मैं अपने अंदर देखता हूँ
सजीवन मयंकजब कभी मैं अपने अंदर देखता हूँ।
क्या बताऊँ कैसे मंजर देखता हूँ॥
अर्श मुट्ठी में सिमट कर आ गया।
एक क़तरे में समंदर देखता हूँ॥
बाढ़ में डूबी हुई है पूरी बस्ती।
वहीं अपना डूबता घर देखता हूँ॥
मुल्क के लोगों में क्यों दहशत भरी है।
क्या हुआ घर से निकलकर देखता हूँ॥
अपने वादे रोज़ ही वो भूल जाता।
एक दिन में भी मुकर कर देखता हूँ॥
ख़्वाबगाहों से कभी निकले नहीं वो।
आज मैं उनको सड़क पर देखता हूँ॥
खो गया है इस ज़माने में कहीं पर।
कहाँ है अपना मुकद्दर देखता हूँ॥
आज संसद मुख्य मुद्दे भूल बैठी।
बेतुकी बातें ही अक्सर देखता हूँ॥
लाठियों से बात करती है हुकूमत।
हर जगह मैं अपना ही सर देखता हूँ॥
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- ग़ज़ल
-
- कहने लगे बच्चे कि
- आज कोई तो फैसला होगा
- ईमानदारी से चला
- उसी को कुछ कहते अपना बुतखाना है
- जब कभी मैं अपने अंदर देखता हूँ
- जैसा सोचा था जीवन आसान नहीं
- दुनियाँ में ईमान धरम को ढोना मुश्किल है
- दूर बस्ती से जितना घर होगा
- नया सबेरा
- नये पत्ते डाल पर आने लगे
- मछेरा ले के जाल आया है
- रोशनी देने इस ज़माने को
- हर चेहरे पर डर दिखता है
- हर दम मेरे पास रहा है
- गीतिका
- कविता
- विडियो
-
- ऑडियो
-