आइसोलेटिड वार्ड

19-09-2017

आइसोलेटिड वार्ड

डॉ. रिम्पी खिल्लन सिंह

पापा आइसोलेटिड वार्ड में अकेले मौत के इन्तज़ार में थे, जैसे वे जानते हों कि यह इन्तज़ार केवल और केवल उनका है और इस इन्तज़ार में दूसरे लोग एक दूसरे इन्तज़ार में हैं कि कब उन्हें इस संसार से मुक्ति मिले और पापा के साथ-साथ वे भी भी उस काली सुरंग से भी बाहर आ सके जहाँ आकर वक्त मानो ठहर सा गया है। आदमी प्रेम किससे करता है? उस जीवन्त जीते-जागते आदमी से जो उसका सहारा होता है, उसके साथ जीता है, उसके साथ ख़ुश होता है या फिर उससे भी लम्बे समय तक प्यार करता रह सकता है जिसकी ख़ुद की ज़िन्दगी एक आइसोलेटिड वार्ड में आकर ठहर गई हो। माँ निश्चित आज भी पापा से उतना ही प्यार करती है पर माँ जैसे रोज़ इस गहरी टनल को पार करके पापा तक पहुँचती है और वे उनकी आँखों के ज़रिए ही बाहर का उजला आकाश देख पाते हैं जो धीरे-धीरे सिकुड़ता जा रहा है। मैं भी उस टनल को पार करके उन दोनों के बीच जा बैठती हूँ कभी- कभी। लेडी इर्विन अस्पताल का यह टनल जैसे कई युगों के दरम्यान फैला है।

वे पिता जिन्होंने एक पूरा जीवन एक जीवंत जिजीविषा के साथ निकाला, आज मृत्यु शय्या पर हैं और माँ जैसे एक जीवित लाश, जो एक रोबोट की तरह यान्त्रिक तरीक़े से इस मौतगाह तक रोज़ आती हैं और शाम ढलते ही हम बच्चों के पास वापस लौट आती हैं। हम सब जानते हैं कि पापा को अब नहीं बचाया जा सकता। पता नहीं आदमी आदमी को बचाना चाहता है या उस सुख को जो उसे उस आदमी से मिलता रहा है, उस सुरक्षा को जो वो आदमी उसे जीवन पर्यन्त देता रहा है या उस दुनिया को जो उस व्यक्ति के चले जाने के साथ ही हमेशा के लिए विदा हो जायेगी। हम सब भी पापा को बचाना चाहते थे पर बचाव के तरीक़े करते-करते हम सब थकने लगे थे।

शायद पापा की भावी मृत्यु ने हमें हरा दिया था या फिर हमारी अपनी ज़िन्दगी अब मौत के साये से निकल आना चाहती थी। माँ के माथे पर बड़ी सुर्ख लाल बिंदी जैसे माँ के सुहाग के साथ-साथ हमारे लिए उस बड़े आकाश का प्रतीक थी जो हमारे सिरों पर बना हुआ था। माँ ने बहुत दिनों से बिन्दी लगाना छोड़ दिया था। पापा को भी इसका कारण पता था। उनका मलमूत्र उठाते-उठाते; उन्हें असहाय होते देखते-देखते माँ भी थक चुकी थीं, इस हद तक कि वे ख़ुद ही बीमार दिखाई देने लगी थीं। लेडी इर्विन अस्पताल की तरफ़ जाते समय रास्ते में एक चौराहा आता था जहाँ असंख्य कबूतर जमा रहते थे अपने पर फड़फड़ाते। दाने की तरफ़ झपटते और फिर आकाश में गायब हो जाते हुए। माँ और मैं अक्सर वहीं से होकर अस्पताल तक पहुँचा करते थे। माँ निरीह भाव से उन कबूतरों को परवाज़ भरते देखा करती थीं। उनकी देह जैसे पथरीली हो चुकी थी पर थोड़ी देर के लिए ही मुझे लगता था कि जैसे उसमें थिरकन आ गयी हो। वे मुझे कहती कि कल से थोड़ा दाना लायेंगे और इन कबूतरों को डाल दिया करेंगे। मैं माँ की बात पर सिर हिला देती। पूरे घर पर भी अस्पताल की सी मुर्दिनी छायी हुई थी। हम सब किसी काले साये की छाया में थे। रिश्तेदार आते थे। हाल-चाल पूछते, हमारे भविष्यों पर शंका ज़ाहिर करते और चले जाते। वे जैसे अपने भविष्यों को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थे कि उनके साथ तो कुछ भी बुरा घट ही नहीं सकता है। भाई उन दिनों प्रेम में डूबा था। प्रेम जो दुनिया की सबसे उजली शह है पर वह उसके लिए इस मुर्दिनी से निकलने का सबसे बड़ा रास्ता भी था। उसे लगता था अब और वह ठहरे समय में नहीं ठहर सकता। वह उन कबूतरों की तरह अपने हिस्से का दाना-पानी लेकर हवा में ग़ायब हो जाना चाहता था। उसका आकाश अनन्त था। माँ का आकाश सिकुड़ता जा रहा था। और हम दोनों बहनें जैसे एक के सिकुड़ते और एक के फैलते आकाश के बीच त्रिशंकु जैसी लटकी थीं।

पिता के पूरे जीवन काल में हमने उस घुटन को महसूस नहीं किया था जो आज उनके जाते समय हमें हो रही थी जैसे हम सबको उनकी मृत्यु के उस गहरे टनल में से होकर गुज़रना था। पूरे जीवन के प्रेम पर मृत्यु इतनी हावी हो गयी थी कि अब पिता के साथ-साथ हम सबकी आँखों तक में से झाँकने लगी थी। पापा मुझ से माँ से, बहन से, भाई से हम सबसे मोहहीन हो गये थे जैसे उन्हें हमारे चेहरों में भी मृत्यु ही विराजमान दिखती हो। हम सब उनके सामने चलती-फिरती मौत ही रहे होंगे उन दिनों। यही आज मुझे लगता है। भाई कुछ दिनों के लिए कहीं गया था। माँ ने मना भी किया था कि ऐसे समय पर उसे वहीं होना चाहिए पर उसका खुला आकाश लगातार उसे बुला रहा था। माँ और मैं पापा के बगल में बैठे थे। माँ उनका सिर सहला रही थी। मैं पैरों की तरफ़ थी। वे लगातार हमें देख रहे थे। अचानक उन्होंने अपनी उँगली से दीवार की तरफ़ इशारा किया जैसे कुछ दिखाना चाहते हों जो वे तो देख पा रहे थे पर हम नहीं। माँ तो शायद उसे देख कर भी देखना नहीं चाह रही थी। उनकी पथरीली होती देह कुछ हद तक स्पन्दित थी। पापा ने एक बार मुझे देखा । उनकी आँखों में उदासी की घनी छाया थी मेरी आँखें कुछ देर माँ से मिलीं पर माँ की आँखें जैसे किसी भी भाव से रहित थीं। उनके शरीर में भले ही हलका स्पन्दन अनुभव किया मैंने, पर आँखें अब पथरीली हो चुकी थीं। पापा का शरीर हलका पड़ने लगा था, ठंडा जैसे बर्फ़ की तरह। वे कुछ ढूँढ़ रहे थे। मुझे लगा जैसे भाई को ही ढूँढ़ रहे होंगे ।

मेरा ये सोचना ग़लत था। उन्होंने माँ को इशारे से अपने सामने बैठने को कहा । माँ बुत सरीखी उठीं और सामने आ बैठीं। उनके शरीर में हलकी थिरकन थी। मुझे लगा जैसे पापा का ठंडा स्पर्श उन्हें भीतर तक ठंडा कर रहा था। माँ की देह कुछ देर के लिए परकटे कबूतर की मानिन्द फड़की थी पर जल्दी ही ठहर गयी थी। मैं उन दोनों को देख रही थी ऐसे लग रहा था जैसे क्षितिज पर खड़ी हूँ, अपने धरती-आकाश के सानिद्धय में। मैं उन दोनों को अपने भीतर उतार लेना चाहती थी। जीवन और मृत्यु के सन्धि स्थल पर सब कुछ बेमानी हो गया हो जैसे। पापा का पूरा शरीर एकबारगी हवा में उछला और वापिस आकर बिस्तर पर गिर गया था। माँ के चेहरे पर कोई भाव नहीं था। वे टनल के इस पार थी और पापा को उस पार जाते हुए देख रही थी। वे उनके साथ उस दुनिया को भी जाते हुए देख रही थी जो उनके बाद नहीं रहेगी। माँ का शरीर भी ठंडा पड़ने लगा था। उन्होंने शायद इसका अनुभव कर लिया था और मेरी अपेक्षाकृत गर्म हथेली को अपनी मुठ्ठियो में भींच लिया था ताकि वे कुछ गर्माहट महसूस कर सकें। पापा आइसोलेटिड वार्ड से मुक्त हो चुके थे हमेशा के लिए। बाहर बहुत से कबूतर आकाश में यहाँ-वहाँ उड़ते दिखाई दिए। माँ उसी दीवार की तरफ़ देख रही थी जहाँ कुछ देर पहले पापा देख रहे थे।

मैं माँ का ध्यान बँटाना चाहती थी। मैंने माँ को झकझोरा। उनकी पथरीली आँखों की पुतलियाँ थोड़ी हिलीं। मुझे उस गहरी टनल से खींच कर माँ को घर ले जाना था। अचानक मेरे भीतर ऊर्जा का संचार हुआ और मैंने उनकी मुट्ठी को कसकर पकड़ लिया और उन्हें अपनी ओर खींचा। हम दोनों के आँसू कहीं हिमखण्ड की तरह जम गए थे। हम दोनों एक दूसरे को पकड़ते धकेलते उस गहरी टनल से बाहर आ गये थे। डाक्टर ने सुबह आने को कहा था। रास्ते में वही चौराहा था जहाँ असंख्य कबूतर उड़ रहे थे। माँ वहीं पास के बेंच पर कुछ देर के लिए बैठना चाहती थीं। हम दोनों कुछ देर तक वहीं बैठे; परिन्दों को उड़ते देखते रहे। तभी एक परिन्दा अचानक फड़फड़ाता हुआ माँ के ऊपर से उड़ा। वे आसमान को ताकती रही देर तक। उन्होंने दोनों हाथों से अपने चेहरे को कुछ देर के लिए भींच लिया फिर जल्दी ही मेरा हाथ पकड़ कर बोली "चल मिम्मो घर चलें, अन्धेरा घिरने को आया"। मैं जानती थी कि आज माँ उसी आइसोलेटिड वार्ड में थी। वो पीछे नहीं छूटा था। माँ जिस अन्धेरे की बात कर रही थी वो उसी का अन्धेरा था जिससे बचाते हुए वे जल्दी ही मुझे घर ले आना चाहती थी।

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