एक भी खिड़की नहीं

30-04-2007

एक भी खिड़की नहीं

सजीवन मयंक

एक भी खिड़की नहीं
चारों तरफ दीवार है।
घुट रहा है दम यहाँ,
वातावरण बीमार है॥

 

एक लंगड़ा आदमी
जैसे घिसटकर चल रहा। 
वैसी ही हमारे, 
वक़्त की रफ़्तार है॥

 

अपना चेहरा आईनें में
देखकर कहने लगे।
हम तो ऐसे हैं नहीं 
यह आईना बेकार है॥

 

ज़िंदगी के बाद 
रिश्ते शुरू होते हैं यहाँ।
शव को कंधा लगा देना 
एक शिष्टाचार है॥

 

उस सड़क पर भीड़ ज्यादा
बढ़ गई है आजकल।
चल रहा है जिस जगह 
पर मौत का व्यापार है॥

 

हमने जो भी कुएँ खुदवाये 
सभी सूखे रहे।
लोग कहते हैं कोई 
चट्टान पानी दार है॥
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें