देहरी अपनी-अपनी

03-05-2012

देहरी अपनी-अपनी

मुकेश पोपली

‘‘आइए, आइए,’’ कहता हुआ वह अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ था। उनकी गिनती शहर के जाने-माने नागरिकों में ही नहीं थी बल्कि वह समाज-सुधारक थे, श्रेष्ठ विचारक थे, सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे और साथ ही बहुत बड़े जनसेवक भी थे। पिछले पार्षद चुनावों में वह खड़े भी हुए थे मगर गंदी राजनीति उनके आड़े आ गई थी और पार्टी के हाईकमान के कहने पर उन्होंने अपना नामांकन पत्र वापस ले लिया था। अब सर्वगुण संपन्न व्यक्ति को अपने सामने एकदम से पाकर वह खुशी से फूला नहीं समा रहा था। शाखा कार्यालय में दूसरे लोग भी उन्हें जानते थे, वो बात अलग है कि वह जितना उनको जानता था उससे ज्यादा अच्छी तरह उन्हें कोई नहीं जानता था।

चाय और पान के लिए कैंटीन ब्वाय को कहकर उसने उन्हें अपने सामने बैठा लिया था। उनकी गोष्ठियों में भी वह सबसे आगे बैठा करता था ताकि वह जब भी अपना वक्तव्य दें तो वह उसे पूर्णतया आत्मसात कर सकूँ। गोष्ठी समाप्त होने पर सबसे पहले वह उनके पास पहुंचता था और उनके वक्तव्य की प्रशंसा करता था। दरअसल वह बहुत प्रभावित होता था उनके शब्दों से। एक-एक शब्द के पीछे गहरा अर्थ होता था। सिद्धांतों की लड़ाई के वे प्रेरक थे तो उनसे पीछे हटना उन्होंने नहीं सीखा था।

‘‘कहिए, क्या सेवा कर सकता हूँ आपकी ?’’
       ‘‘इस चेक का भुगतान लेना है।’’

उसने देखा, एक गिफ्ट चेक उनके हाथ में था। उनके हाथ से गिफ्ट चेक अपने हाथ में लेते हुए उसने देखा था कि राशि 1001/- लिखी थी और पाने वाले के नाम में उषा लिखा हुआ था।

‘‘उषा किसका नाम है ?’’
       ‘‘मेरी बिंदणी (बेटे की पत्नी) का। वो रवि की शादी थी न पिछले महीने, बहू के साथ जो दहेज आया है उसमें से यह चेक भी एक निकल आया।’’ उन्होंने चेक कुछ इस तरह कहा जैसे यह कोई वारंट हो।

‘‘एक काम कीजिए ना, इनके नाम से कहीं किसी भी बैंक में खाता होगा, उसमें जमा करवा दीजिए, भुगतान आराम से हो जाएगा।’’ तब तक चाय आ गई थी, उसने उन्हें चाय पीने का इशारा करते हुए कहा। उसने यह भी देख लिया था कि चेक पर तिरछी रेखाओं के बीच में ‘‘केवल आदाता के खाते में’’ मोहर लगी हुई थी|

‘‘इयाँ कियाँ ?’’, चाय पीते हुए वह बोले, ’’आपने शायद मुझे पहचाना नहीं, मैं कोई चोर-उचक्का नहीं हूँ, शहर में हजारों लोग मुझे रोज नमस्कार करते हैं। एक छोटे से काम के लिए अब क्या सिफारिश भी लगानी पड़ेगी?’’

अब उसके चौंकने की बारी थी। इसका मतलब उन्होंने ही अभी तक उसे नहीं पहचाना था। उनको क्या कुछ भी याद नहीं? अभी पिछले रविवार को ही तो एक गोष्ठी में उसने उनको सुना था हमेशा की तरह आगे बैठकर। चापलूसी और सिफारिश के साथ-साथ नियमों की बात पर भी उन्होंने बहुत अच्छा वक्तव्य दिया था। ‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है, यहाँ पर मौजूद सभी लोग आपको जानते हैं, कोई कम कोई ज्यादा। दरअसल हमारे हाथ भी तो बँधे हुए हैं। अब इस चेक का हम नगद भुगतान तो नहीं कर सकते, यह केवल उस के खाते में ही जमा हो सकता है जिसका इस पर नाम लिखा है।’’

‘‘अरे कैसी बात करते हैं आप ? अब क्या हमारी बहू-बेटियाँ घर की देहरी लाँघ कर बैंक के चक्कर लगाएँगी ?’’ वह पान मुँह में दबाते हुए बोले। मुझे लगा कि बैंक को वे बदमाशों का अड्डा समझते हैं।

उसने अपने कंधे उचका दिए और साथ ही उसके मुँह से निकल गया, ‘‘मंच पर तो नारी उत्थान की बात आप बहुत जोर-शोर से बोलते हैं, उनके जीवन-स्तर को सुधारने की बात करते हैं, महादेवी और अमृता प्रीतम के साथ-साथ उस समय तो आप झाँसी की रानी को भी याद करते हैं और अपनी....’’

‘‘वो बात दीगर है बरखुदार,’’ उसकी बात को बीच में काटते हुए वह बोले, ‘‘अभी तुम बच्चे हो, मंच और वास्तविक जीवन में बहुत फर्क होता है।’’

कुछ देर बाद वह बड़बड़ाते हुए दरवाजे से बाहर जा रहे थे, ‘‘किसा-किसा लोग गिफ्ट चेक दे देवे है, नगद ही दे मारता तो कांई फर्क पड़ जांवतो, अब ए सगला रिपिया तो बिंदणी रा हो जासी, म्हारी तो भैंस गई पाणी मा.....।’’

अब वह उन्हें ज्यादा अच्छी तरह जान गया था।

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