चालीस की कगार पर

15-12-2019

चालीस की कगार पर

डॉ. रिम्पी खिल्लन सिंह (अंक: 146, दिसंबर द्वितीय, 2019 में प्रकाशित)

चालीस की कगार पर पहुँचने के बाद
उसे लगा कि 
फिर शुरू करनी चाहिए ज़िंदगी
इसलिए नहीं कि उन्तालीस तक उसने
नहीं जी थी ज़िंदगी
इसलिए कि वह पार कर आया था 
मौसमों को तेज़ी से
मौसम देख रहे थे उसकी तरफ़
पर उसकी निगाह सड़क पर थी
कोलतार से पुती काली कठोर सड़क
वह पार कर रहा था कई पुल दोराहे, चौराहे
गुलदाउदी खिलते थे, मुरझाते थे
पलाश का लाल रंग पतझर में जाते जाते
सब कुछ को लाल रंग में रँग देता था
पर उसके साल बीत रहे थे सवालों में
वह बैरंग लिफ़ाफ़े सा 
अपने ही जवाबों की तलाश में
ख़ाली लौट रहा था अपने पास
शायद वह घिरा था चीज़ों में
और उसके सवाल भी 
चीज़ों को लेकर ज़्यादा थे
इस डर से कि कहीं दुनिया 
ख़ाली न हो जाये चीज़ों से
जबकि चीज़ें उसे ख़ाली कर रहीं थीं
जैसे कोई पूरी ऊर्जा को सोख कर
सक्शन पंप से खींच ले बाहर
उसे लगता था कि वह जुटायी हुई चीज़ों से
बचा लेगा दुनिया
पर उसे कहाँ पता था 
दूसरी चीज़ों की तरह
उसका ख़ुद का वजूद भी 
तब्दील हो चला था
एक चलती फिरती चीज़ में
ख़ुद अपने लिए भी
और दूसरों के लिए भी
उसके चालीसवें जन्मदिन पर 
जब किसी ने
उसे गुलाब भेजे
तो उसे लगा कि गुलाब गुलाब क्यों है?
इसलिए नहीं कि उसका रंग सुर्ख लाल है
इसलिए भी नहीं कि उसमें ख़ुशबू है
इसलिए भी नहीं कि
छूने पर उसे 
कोमलता का एहसास होता है 
दुनिया की कठोरता के विरोध में
बल्कि उसे ख़ुद पता नहीं कि 
वह गुलाब है
वह नहीं पूछता सवाल मौसमों से
कि क्यों एक मौसम खिलाता है उसे
और दूसरे में वह झर जाता है डाल से
वह नहीं पूछता कि क्यों कभी कभी
पलाश का रंग बाज़ी मार लेता है उससे
उसने कब कहा था दुनिया से कि उसे
गुलाब कहा जाये?
उसे तो पता भी नहीं कि क्यों कहा गया
उसे गुलाब ही, पलाश नहीं
ज़िंदगी का चालीसवां साल आदमी को
दार्शनिक बनाता हो, ऐसा नहीं है
पर शायद चीज़ों से भरी दुनिया में
ख़ाली होते मन की धड़कनें 
कुछ साफ़ सुनाई
देने लगती हैं शायद कभी कभार
और वह मन को पूरा
ख़ाली होने देना चाहता हो
ताकि उसके किसी कोने में 
रखा जा सके
गुलाब उसके काँटों के साथ।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें