बौद्धिक सम्पदा की धनी आरती स्मित

01-08-2020

बौद्धिक सम्पदा की धनी आरती स्मित

डॉ. हरीश नवल (अंक: 161, अगस्त प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

व्यक्तित्व

आठ वर्ष पूर्व का वह अभूतपूर्व दिन था जब डॉ. आरती स्मित से पहली बार साक्षात्कार हुआ था। वास्तव में आरती का साक्षात्कार ही था, हिंदू कॉलेज में तब मैं विभाग-प्रभारी था और डॉ. स्मित एक प्रत्याशी।

जो-जो सवाल साहित्य के, भाषा के, भाषा-विज्ञान के, साहित्य की विधाओं के मैंने किए, उन सबके सम्यक उत्तर मुझे आरती ने दिए। जिस भाषा में दिए और जिस विनम्र अंदाज़ में दिए, अभिनंदनीय कहे जा सकते हैं। प्रश्नकर्ता का काम दुष्कर नहीं होता, प्रायः हम वही पूछते हैं जिसके उत्तर हमें ज्ञात होते हैं किंतु उत्तर देने वाला तो उत्तरदायी होता है सही उत्तर देने के लिए, इसलिए उसकी भूमिका सरल नहीं होती। आरती स्मित के उत्तरों ने मुझे उसके क़द के बारे में भान करवा दिया था .... यह दीगर तथ्य है कि कॉलेज तब आरती को योग्यता के आधार पर सर्वश्रेष्ठ मानते हुए भी पद न दे सका, क्योंकि वह पद किसी विशेष कैटेगरी का निकला .... लेकिन आरती का ‘उम्मीदवार’ पहचाना जा सका था .... कुछ माह पश्चात् जब कॉलेज का पुनः अतिथि अध्यापक की आवश्यकता हुई। मैं तब तक प्रभार-मुक्त हो चुका था, तत्कालीन विभाग प्रभारी डॉ. विमलेन्दु ने आरती स्मित का ही चयन किया। कुछ समय बाद मैं सेवा मुक्त भी हो गया।

एक प्राध्यापिका के रूप में अल्प अवधि में ही आरती ने अपनी योग्यता और अध्यापन शैली से विद्यार्थियों में एक गहरी छाप छोड़ी .....मैं सेवा-मुक्त होकर भी हिंदू कॉलेज के मोह से मुक्त नहीं हुआ था। अक़्सर वहीं होता जिसका एक बड़ा कारण डॉ. हरीन्द्र कुमार के साथ-साथ अब डॉ. आरती स्मित का भी विभाग में होना था। चूँकि मुझे अब कक्षा लेने का दायित्व नहीं निर्वाहित करना होता था, मैं इत्मीनान से संगिनी सुधा को उनके निकटवर्ती कॉलेज दौलतराम कॉलेज में छोड़कर हिंदू कॉलेज के स्टाफ़ रूप में पुराने साथियों से गपियाता, जब तक कक्षा-मुक्त होकर हरीन्द्र या आरती स्टाफ़रूम में पधारते, उनके साथ चाय-समारोह में शरीक हो जाता। जब मैं पश्चिम विहार में शिफ़्ट हुआ और सुधा भी सेवा-मुक्त हो गईं .... कॉलेज जाना कम हो गया। गोष्ठियाँ आदि आयोजनों में जाता था किंतु वहाँ मुक्तावस्था उपलब्ध नहीं हो पाती थी .... आरती दिख जाती। अभिवादन हो जाता किंतु बातचीत नहीं हो पाती थी …।

और जब आरती स्मित भी हिंदू कॉलेज से कहीं ओर चली गई, मिलना-दिखना यदा-कदा हुआ। लेकिन तब उसे मैंने अधिक जाना। वह कितनी उत्कृष्ट कवयित्री है, एक श्रेष्ठ समीक्षक है, कहानीकार और नाटयरूपक लेखन आदि में कितनी निपुण है, उसके उदाहरण यत्र-तत्र मिलने लगे ...जब आप किसी रचनाकार को व्यक्तिगत रूप से जानने लगते हो, उसकी रचनाएँ भी पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों आदि में दिखनी आरंभ हो जाती हैं, मुझे आरती का लेखन बहुतायत में दिखने लगा। बालपुस्तकों से लेकर आलोचना तक, हाइक् से लेकर लंबी कविताओं तक, लघुकथाओं से लेकर कहानियों तक .... एक बहुत बड़ी बड़ी रेंज मुझे आरती के लेखन की नज़र आई ....।

यही नहीं बौद्धिक संपदा की धनी इस युवती का नया ‘बायो-डाटा’ जब मैंने एक बार देखा, चकित रह गया ...पीएच.डी. ‘तुलसी साहिब के साहित्य की आगत शब्दावली के भाषाशास्त्रीय अध्ययन पर’ ग्राम विकास में डिप्लोमा, एल.एल.बी. तथा स्वास्थ्य एवं पोषण सलाहाकार का विशेष कोर्स भी किया हुआ .... कितनी शेड्स हैं आरती के व्यक्तित्व और कृतित्व की, इसका अंदाज़ा इससे लग जाता है।

‘हिंदी साहित्य के पुरोधा’, ‘फूल सी कोमल, ब्रज की कठोर’ आरती की आलोचनात्मक पुस्तकें हैं। पहली पुस्तक में हिंदी के 13 साहित्यकारों व उनके लेखन पर आलोचनात्मक पैनी क़लम चलाई गई है जिनमें पुस्तक लेखन के समय तक इन रचनाकारों में तीन जीवित थे जिनमें एक मैं भी हूँ। डॉ. ब्रजेंद्र त्रिपाठी के अनुसार “पुस्तक में लेखिका ने लेखकों के कृतित्व के कुछ विशिष्ट पक्षों का विवेचन-विश्लेषण करने के साथ उनके व्यक्तित्व के रूपाकारों को भी बड़ी आत्मीयता से उकेरा है”। विविध विधाओं के विभिन्न विधाकारों को डॉ. आरती स्मित ने इस पुस्तक में समाहित किया है। लेखिका की दृष्टि बहुपक्षीय है, औदार्य से पूर्ण है। नव्य आलोचना में ऐसी शालीनता प्रायः दुर्लभ है।

‘फूल सी कोमल ब्रज सी कठोर’ कृति ‘नारी विमर्श’ से भरपूर है। इसके दस लेखों में वर्जना से लेकर मुक्ति तक ‘भारतीय स्त्री-पुरुषों के संबंधों’ की ख़ासी परख की है। लेखों में नारी की सामाजिक भूमिका, प्रेमचंद का स्त्री विमर्श, और बाज़ारीकरण के दौर में स्त्री की बदलती छवि है। ‘नारी’ बहुत महत्त्वपूर्ण और विचारोत्तेजक है। स्त्री की छवि की ख़ासी पड़ताल लेखिका ने की है।

आरती स्मित का कवयित्री रूप भी वैविध्य लिए हुए है। ‘अंतर्मन’, ‘ज्योति कलश’ और ‘तुम से तुम तक’ तीन कविता-संकलन हैं जो वास्तव में भीतरी आरती स्मित के असली परिचायक हैं। इनकी कविताओं में मानों कवयित्री का जीवन और उसका अंतर राग है। मुख्यतः स्मृतियाँ हैं जिनमें माँ, पिता, बचपन और कुछ परिजन की यादों के गुच्छे हैं। ऐसे गुच्छे जो मधुर भी हैं कसैले और खट्टे भी हैं। आरती एक जानी मानी समाजसेविका भी है जो ग़रीब बस्तियों में जाकर शिक्षा का दान करती है, संस्कार बोती है, महानगर की कड़वाहट में मिठास घोलती है ...आरती, जो वृद्धाश्रमों में नियमित जाकर बुज़ुर्गों की सेवा करती है, उन्हें आनंद के क्षणों में ले जाती है .... आरती जो बच्चों के लिए किताबें लिखती है, उन्हें उपहार स्वरूप भेंटती है, उसकी कविताओं के उसके समस्त मानसिक परिवेश उदित होते हैं। उसकी कविता जागरण की दिशा देती कविता है। उसकी कविता यथार्थ की कविता है जिसका समाहार आदर्श है। एक अजब फ़्यूजनमयी है आरती स्मित की कविता ...।

‘बदलते पल’ आरती का कहानी-संग्रह है जिसमें बीस कहानियाँ संकलित हैं। प्रत्येक कहानी एक नया बोध या दिशा देती है। आरती की एक बालपोथी है “मैं अच्छी हूँ न”, मैंने यह पोथी अपनी चार वर्षीया नातिन वसुधा को भेंट की, वह इटली में रहती है। जब भी फोन पर ‘फ़ेस टाईम’ में दिखती थी, बात करते-करते एक बार ज़रूर तब पूछ लेती थी, “नाना मैं अच्छी हूँ न”  - बालमन को इससे अधिक प्रभाव और क्या प्रदान किया जा सकता है? सच्चा और अच्छा लिखती है यह आरती स्मित।

निरंतर कर्मरत रहती है यह साधिका - थकती नहीं .... जो अवधि नियत हो, उस समय तक कार्य अवश्य पूर्ण करती है। कर्मवीरांगना है - भाग्य नहीं कर्म - वह भी सुकर्म पर विश्वास करती है वह। मुझे तब भी बहुत आश्चर्य हुआ था जब मुझे सूचना मिली कि आरती ने एक ट्रस्ट ‘साहित्यायन’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य सामाजिक जागरण है। मैं हैरान इसलिये था कि आरती अभी कहीं कार्यरत नहीं हैं जहाँ उनकी नियमित आय हो दूसरे इतने बड़े दिल्ली शहर में इतनी कम उम्र में एक ग़ैर सरकारी संस्था की स्थापना वह कैसे कर सकी।

मुझे यही लगा कि थोडे़ समय पश्चात् ही आरती को ट्रस्ट बंद करना पड़ेगा। विचित्र तथ्य यह है कि मुझे उसके ट्रस्ट पर ट्रस्ट नहीं था किंतु उसे अपने ट्रस्ट और मुझ पर ट्रस्ट था तभी उसने मुझे उसका संरक्षक बनाया और नई दिल्ली के एक वृद्धाश्रम  में एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया जहाँ मुझे मुख्य अतिथि का दायित्व निर्वाहित करने का भी अवसर दिया।

यह एक सुनियोजित वृहत् समारोह था जिसमें आश्रम की वृद्धायें इतनी प्रसन्न थीं मानो उनमें किशोरावस्था का उदय हो गया हो। वे प्रस्तुत कर्त्ताओं के साथ गा रही थीं, ताल दे रही थीं और बेहद आनंदित थीं। आरती की बेटी और उसके कॉलेज के साथी समारोह में सक्रिय भाग ले रहे थे।

‘साहित्यायन’ ने कुछ पुस्तकें प्रकाशित कीं, गंदी बस्तियों में रहने वालो बच्चों के लिये पुस्तकालय खोले, उनकी समुचित शिक्षा की व्यवस्था की और मेरे देखते ही देखते अनेकानेक कार्यक्रम छोटे और बडे़ स्तरों पर एक के बाद एक होते ही रहे। आरती द्वारा आयोजित इन जागरूक अभियान संदर्भित कार्यक्रमों को देखकर मुझे उसके व्यक्तित्व के बहुत से गर्वित कर देने वाले आयाम नज़र आये उसकी विनयशीलता, बुज़ुर्गों के प्रति सम्मान भावना, बच्चों के प्रति सदाशयता और मित्रें के मध्य ‘सहिष्णुता’ आदि में मुझे उसके और क़रीब कर दिया। संभवतः इसका एक कारण मेरा वह विगत् पूर्वाग्रह था जहाँ मुझे लगता था कि आरती का ट्रस्ट चल नहीं पायेगा।

आरती, नारी के औदार्य से परिपूर्ण है। उसकी दृष्टि नारी पुरुष के बहुत से भेदों को स्वीकार न करके नारी की भूमिका को अग्रणी बनाती है। किन्हीं अर्थों में वह फ़ेमिनिस्ट लगती हैं। यूँ सम्मान करने में वह स्त्री पुरुष का भेद नहीं करती। अनजाने शहर में दो नन्हें बच्चों को लेकर आना और स्वयं अपना स्थान बनाना कितना दुष्कर है यह सब जानते हैं। आरती ने छोटी आयु में अपने और बच्चों के भरण-पोषण, शिक्षा और व्यक्तित्व विस्तार आदि के लिये अत्यधिक श्रम किया। रात-रात भर जागकर अनुबंधित अनुवाद, रूपांतर, लेखन, शिक्षण आदि कार्यों को पूर्ण करती रही और सिद्ध किया कि लेखनी से, फ़्रीलान्सरी से भी परिवार का पोषण हो सकता है। किंतु इस श्रम ने आरती की देह को दुर्बल कर दिया। मन से वह सदा सबल रही किंतु गिरते स्वास्थ्य ने उसे दुर्बल किया यद्यपि आरती को देखकर यह अंदाज़ा नहीं लग पाता कि उसे कितना कष्ट है। आरती के लेखन और उसकी अन्य प्रतिभाओं ने उसे यशस्वी बनाया है। दूर-दूर से आरती को साहित्यिक, शैक्षणिक और सामाजिक कार्यक्रमों में शिरकत करने के लिए सम्मानपूर्वक बुलाया जाता है। साथ ही उसका लेखन निरंतर अबाध गति से चलता रहता है। मन में कामना यही है कि वह एक स्थाई नियुक्ति विशेषकर प्राध्यापिका पद प्राप्त कर सके जिससे उसका परिवार बेहतर जीवनयापन कर सके और आरती पूर्णतः स्वस्थ्य रह सके। मुझे विश्वास है ऐसा होने पर आरती का आत्मबल और यश बहुत बढ़ेगा और वह समाज में एक बड़ा उदाहरण बन सकेगी।

मेरा आशीर्वाद सदा से सदा तक उसके साथ।

 

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