बसंत की ब्रह्म मुहूर्त बेला
बृजेश सिंहसप्तर्षि विराजे नभ, अटल ध्रुव संग है,
प्रदीप्त तारा मंडल, दुग्ध व्योम गंग है,
माटी को प्रणाम कर, पथ पर चल पड़ा,
कुमुदिनी खिली ताल, पार में आलंग है।
चाँद के आग़ोश जब, सिमट गयी चाँदनी,
झरे सुरख पलाश, मनवा मलंग है,
रश्मियों की ताल पर, अरुणोदय काल में,
छिड़ा है भैरवी राग, बजता मृदंग है।
तुहिनमय राह पे, जब बढाये क़दम,
गूँजी मुरलिया धुन, छायी रे उमंग है,
सुवासित बहे हवा, साँसों में समाय रही,
प्रकृति के खेल सब, उसके ही ढंग हैं।
महके बेला चमेली, फूलती सरसों संग,
रागिनी सुनाती राग, केसरिया रंग है,
महके दिग-दिगंत, नृत्य करे मोर मन,
गा रहे विहग मिल, छा रह्यो बसंत है।
1 टिप्पणियाँ
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बहुत सुंदर रचना है जो कवि के प्रकृति प्रेम को दर्शाता है।