बर्फ़ के अंगारे

10-02-2017

बर्फ़ के अंगारे

गुडविन मसीह

ख़ून को जला देने वाली जून की तपती दुपहरी। लोगों के शरीर से पसीना चूह रहा था। दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बैठी लाजो अपने गाँव जाने वाली गाड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी। उसके मुर्झाए हुए चेहरे को देखकर कोई भी कह सकता था कि वह बहुत परेशान है। वह किसी गहरी सोच में डूबी हुई थी। उसके कानों से किसी की थकी हुई आवाज़ टकराई। 

"भई, अपने बीबी-बच्चों के लिए पसीना नहीं बहाएँगे, तो किसके लिए बहाएँगे?" 

सोच की गहरी खाई से निकलकर लाजो ने आवाज़ की तरफ़ देखा। दो पतले-दुबले अधेड़ आदमी लकड़ी के बड़े ठेलों पर लदे भारी सामान को कंधे से खींचकर माल गोदाम की तरफ़ ले जा रहे थे। गर्मी में भारी ठेलों को खींचना मुश्किल हो रहा था फिर भी दोनों पूरी ताक़त से ठेलों को खींच रहे थे। एक तो चिलचिलाती धूप ऊपर से गर्मी का मौसम। दोनों पसीने से लथपथ होने के बाद भी पूरी ईमानदारी से अपने काम को अंजाम दे रहे थे। उन दोनों को तपती दुपहरी में इस तरह मेहनत करते हुए देखकर लाजो के मन में हूक-सी उठी। उसने अपने मन में कहा, "काश! उसका मर्द भी इन मर्दों की तरह मेहनती होता तो आज उसे अपने गाँव का रास्ता नहीं नापना पड़ता।"

यही सब सोचते हुए लाजो की अपनी पिछली ज़िन्दगी उसके सामने आकर खड़ी हो गई। बचपन से लेकर जवानी तक उसने अपने माँ-बाप के घर में तंगहाली और बदहाली झेली, क्योंकि उसका बाप काग़ज़ की थैलियाँ बनाकर बाज़ार में बेचता था। उससे जो भी आमदनी होती थी उसी से लाजो के घर में चूल्हा जलता था। लेकिन समय में बदलाव आ गया। शहर तो क्या गाँव में भी काग़ज़ की थैलियों का चलन बंद हो गया। काग़ज़ की थैलियों की जगह पॉलिथिन ने ले ली, जिसकी वजह से लाजो के बाप की आमदनी न के बराबर रह गई और उसके घर में फाकाकशी होने लगी। 

अरमान तो लाजो के दिल में बहुत थे, पर उनको पूरा करने के लिए पैसे नहीं थे। सालभर में किसी तीज-त्यौहार पर जैसे-तैसे उसको एक सस्ता-सा सलवार-सूट मिल जाता था। वह उसे ही नियामत समझकर अपने सीने से लगाकर रख लेती। उसका मन तो बहुत करता कि वह उस नए सूट को पहनकर अपनी सखी-सहेलियों को दिखाए, लेकिन वह अपने मन को मारकर रह जाती थी और तब तक वह उस सूट को ज़्यादा नहीं पहन पाती थी, जब तक उसे दूसरा सूट नहीं मिल जाता था। इसीलिए उसकी सखी-सहेलियाँ भी उसे कंजूस-मक्खीचूस कहकर चिढ़ाती थीं। 

कहने को उसकी सखी-सहेलियाँ भी इतनी सुखी-सम्पन्न घरों से नहीं थीं, पर लाजो की तरह उनके घरों में फाकाकशी और तंगहाली नहीं थी। उन्हें खाने और पहनने को भरपूर मिलता था। वो ख़ुद को ख़ूबसूरत दिखाने के लिए कभी-कभी सौंदर्य प्रसाधनों का भी इस्तेमाल कर लिया करती थीं। फिर भी वह लाजो जैसी ख़ूबसूरत नहीं दिखती थीं। 

भले ही ऊपर वाले ने लाजो को भौतिक और आर्थिक सुख से वंचित रखा, पर उसे शारीरिक और मानसिक सुन्दरता से भरपूर नवाजा था। गोरा रंग, तीखे नाक-नक्श, लम्बी क़द-काठी और कमसिन व सुडौल जिस्म दिया था। उसके रंग-रूप और क़द-काठी पर हर रंग का कपड़ा फबता था। जब भी कभी लाजो अपनी माँ या सखी-सहेलियों के साथ तैयार होकर गाँव में कहीं जाती तो किसी अप्सरा से कम नहीं दिखाई देती। बरबस ही सबका ध्यान उसकी तरफ़ चला जाता था। 

अपनी तंगहाली और बदहाली को लेकर लाजो ने न तो कभी भगवान को और न ही अपनी क़िस्मत को कोसा। उसने कभी यह ख़्वाब भी नहीं देखे कि अपनी सखी-सहेलियों की तरह उसके पास भी ज़िन्दगी की सारी ख़ुशियाँ और सुख-सुविधाएँ हों। वह हमेशा वर्तमान में ही जीती रही।

हाँ, उस वक़्त ज़रूर उसकी सूनी आँखों में चमक आ गयी थी, जब पड़ोस के गाँव से उसके लिए शादी का रिश्ता आया था। उस समय उसने ज़रूर सोचा था कि अपने माँ-बाप के घर में उसने जिस तंगहाली, बदहाली और अभावों को झेला है, उसे उनसे निजात मिल जाएगी। क्योंकि जिस रमेश से उसका रिश्ता तय हुआ था वह दिल्ली की किसी फ़ैक्ट्री में परमानेंट काम करता था। रमेश थोड़ा-बहुत पढ़ा-लिखा होने के साथ-साथ शहर में रहने की वजह से काफ़ी शौक़ीन मिज़ाज था। रमेश के माता-पिता तो उसका रिश्ता किसी ऐसे परिवार में करना चाहते थे, जहाँ से उन्हें अच्छा दान-दहेज मिलता, क्योंकि रमेश भले ही दिल्ली की फ़ैक्ट्री में मेहनत-मजदूरी करता था, लेकिन उसकी गिनती गाँव के होनहार लड़कों में होती थी। लेकिन एक दिन रमेश अपने किसी दोस्त के साथ लाजो के गाँव आया था। वहाँ पर उसकी नज़र लाजो पर पड़ गई थी। रमेश लाजो की ख़ूबसूरती पर मर मिटा था और उसने अपने घर में यह ऐलान कर दिया था कि वह शादी करेगा तो लाजो से ही करेगा किसी और से नहीं। लाडले बेटे की ज़िद के आगे रमेश के माँ-बाप को झुकना पड़ा और लाजो से उसका रिश्ता तय हो गया।

रमेश से अपना रिश्ता तय हो जाने के बाद लाजो को अपनी क़िस्मत पर नाज़ होने लगा। वह रमेश को लेकर अपनी नयी ज़िन्दगी के ख़्वाब देखने लगी और सोचने लगी कि अब वह गाँव की लाजो नहीं शहर की लाजवंती हो जाएगी। रमेश से शादी होने के बाद उसके दुर्दिन ख़त्म हो जाएँगे। जिन ख़ूबसूरत और महँगे कपड़ों को वह तन पर डालने के लिए अब तक तरसती रही, जो गहने उसकी पहुँच से बाहर थे, अब वो सब उसे शादी के बाद ख़ुद-व-ख़ुद मिल जाया करेंगे। जिस

दिन लाजो दुल्हन बनकर रमेश के घर आयी तो रमेश के सभी सगे-सम्बंधी और गाँव वाले उसकी ख़ूबसूरती को देखकर दंग रह गए। सभी ने ऊपरी मन से एक ही बात कही कि रमेश ने बिना दहेज के लाजो से शादी करके कोई ग़लती नहीं की। चाँद-सी ख़ूबसरत लाजो किसी क़ीमती दहेज से कम नहीं है। रमेश तो जैसे लाजो को पत्नी के रूप में पाकर ख़ुद को नसीब वाला समझ रहा था। लाजो की सास भी उसकी सुन्दरता पर निहाल हो रही थीं। उसकी बलइयाँ ले रही थीं और यह कहकर कि मेरी फूल-सी बहू को किसी की नज़र न लग जाए, बार-बार उसकी नज़र उतार रही थीं।

ससुराल में इतना प्यार पाकर लाजो तो जैसे फूली नहीं समा रही थी। एक औरत को और चाहिए भी क्या? प्यार करने वाला पति और मान-सम्मान देने वाले सास-ससुर। वो सब लाजो को भरपूर मिल गया था, जिससे वह बार-बार अपनी क़िस्मत को सराह रही थी। 

शादी के बाद जब लाजो पहली बार रमेश के साथ अपने मायके आयी तो उसे देखकर गाँव वालों की आँखें चौंधिया गयीं,

क्योंकि सजी-धजी लाजो किसी फ़िल्मी हीरोइन से कम नहीं लग रही थी। गोरे सुडौल जिस्म पर लिपटी क़ीमती आसमानी रंग की साड़ी और क़ीमती गहने उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे थे। लाजो अपनी सहेलियों से मिलने और उनके सामने अपनी ससुराल वालों और रमेश की तारीफ़ के क़सीदे काढ़ने के लिए बेचैन हो रही थी, लेकिन उसकी सहेली उससे मिलने से कतरा रही थीं। लाजो को क्या पता था कि उसकी सहेलियाँ उसके इस नए रंग-रूप को देखकर उससे जल-भुन गयीं थीं। लाजो की सहेलियाँ जब उससे मिलने नहीं आयीं तो ख़ुद लाजो उनसे मिलने उनके घर गई। मगर किसी ने तबियत ठीक न होने का बहाना बना दिया और किसी ने घर में बहुत काम होने का बहाना बनाकर उससे पल्ला झाड़ लिया। उस समय लाजो को बहुत निराशा हुई थी। वह अपना-सा मुँह लेकर रह गई थी।

कुछ दिन अपने घर रहने के बाद लाजो रमेश के साथ दिल्ली आ गयी। दिल्ली आने के बाद लाजो बहुत ख़ुश थी। क्योंकि नए तरीक़े से उसकी ज़िन्दगी शुरू हो रही थी। उसने सोच लिया था कि वह रमेश की कमाई न सिर्फ खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने में उड़ाएगी, बल्कि वह उसकी कमाई को बचाकर भी रखेगी, जिससे वह अपना एक छोटा-सा घर बना सके और रमेश को एक बाइक ख़रीद कर दे सके, जिससे रमेश को दिल्ली की बसों और मैट्रों में धक्के न खाने पड़े। लेकिन जैसा उसने सोचा था, वैसा हुआ नहीं। क्योंकि लाजो के साथ दिल्ली आने के बाद रमेश ढंग से अपनी नौकरी कर ही नहीं पाया। उसे यह डर सताने लगा कि उसके काम पर चले जाने के बाद लाजो किसी को अपना दिल न दे बैठे या फिर लाजो के साथ कोई अनहोनी न हो जाए। ऐसा वह इसलिए सोचता था क्योंकि जो भी लाजो को देखता था वह आहें भर कर रह जाता। रमेश की फ़ैक्ट्री के शिफ़्ट इंचार्ज ने तो उससे यह तक कह दिया था कि कहाँ से चुरा लाया इस चाँद के टुकड़े को। "भई रमेश म्हारा तो दिल आ गया भाभी के ऊपर। माँ कसम भाभी जैसी जन्नत की हूर म्हारे को मिल जाए तो हम उसे रानी बनाकर रखें"। रमेश के कई बार मना करने के बाद भी शिट इंचार्ज किसी-न-किसी बहाने रमेश के घर आ धमकता और लाजो को ग़लत निगाहों से घूरता, जिससे रमेश और भी डरने लगा। उसने लाजो को सख़्त हिदायत दे दी कि जब भी उसका शिफ़्ट इंचार्ज उसके घर आता है, तो वह उसके सामने न आया करे। 

लाजो ने कई बार रमेश को समझाया भी कि वह ऐसे कब तक घर में पड़ा रहेगा? वह काम पर नहीं जाएगा तो हम खाएँगे क्या? कमरे का किराया कहाँ से चुकाएँगे? उसने यह भी कहा कि अगर उसे देखकर किसी की नियत ख़राब होती है तो होने दो वह घर से बाहर निकलेगी ही नहीं तो कोई उसका क्या कर लेगा। और फिर वह कोई मिठाई तो नहीं है जो उसे कोई निगल लेगा। इसके बाद भी रमेश नहीं समझा तो लाजो ने उससे कहा कि वह उसे गाँव छोड़ आए, लेकिन अपनी नौकरी ढंग से करे, अगर उसकी नौकरी छूट गयी तो हम क्या करेंगे, हमारी ज़िन्दगी की गाड़ी कैसे चलेगी। पर रमेश उसे गाँव छोड़ने को भी राज़ी नहीं हुआ।

काम पर बराबर न जाने के चक्कर में रमेश की आधे से अधिक तनख़्वाह कट जाती, जो थोड़ी-बहुत तनख़्वाह मिलती उसे मकान मालिक झपट लेता। घर चलाने के लिए रमेश को अपने संगी-साथियों से उधार लेना पड़ता। 

धीरे-धीरे हालात इतने बिगड़ गए कि रमेश के ऊपर हज़ारों रुपए कर्ज़ा हो गया, जिसकी वजह से रमेश मानसिक तनाव में रहने लगा, जिससे छुटकारा पाने के लिए वह शराब पीने लगा। लाजो उसे समझाती, उसके आगे रोती-गिड़गिड़ाती और कहती कि हम रूखा-सूखा खाकर वक़्त काट लेंगे, और लोगों का सारा कर्ज़ा चुका देंगे, बस वह ढंग से अपनी नौकरी करे और दारू न पिए। मगर लाजो की बात का रमेश के ऊपर कोई असर नहीं होता।

जिस लाजो को देखकर रमेश जीता था। अब उसे उसकी ज़रा भी चिंता नहीं रहती। वह दिन-दिन भर शराब के नशे में बेहोश पड़ा रहता। लाजो कुछ कहती या शराब पीने का विरोध करती तो रमेश उसे मारता-पीटता, उसे गालियाँ बकता। लाजो सब कुछ चुपचाप सहती रहती और अपनी क़िस्मत को कोसती रहती। वह यह सोचकर सब्र करने लगी कि तंगहाली और बदहाली से उसका पीछा छूटने वाला नहीं है। ख़ुशहाली के दिन तो उसकी ज़िन्दगी में हवा के झोंके की तरह आए और चले गए।

लाजो को इतना दुःख अपनी फाकाकशी का नहीं था, जितना दुःख उसे रमेश को देखकर होता था। वह जब भी रमेश को शराब के नशे में बेहोश पड़ा देखती तो मन-ही-मन रोती। रमेश के बद-से-बदतर होते हालात का ज़िम्मेदार वह ख़ुद को मानने लगी। वह सोचने लगी कि अगर वह उसकी ज़िन्दगी में नहीं आती तो रमेश न तो अपनी नौकरी में लापरवाही करता और न ही दारू पीना सीखता।

उस दिन तो लाजो जैसे टूटकर बिखर ही गई थी, जिस दिन रमेश का शिफ़्ट इंचार्ज अचानक उसके घर आ गया और रमेश से अपने कर्ज़ के पचास ह्ज़ार रुपए माँगने लगा। रमेश ने पैसे न होने की मजबूरी ज़ाहिर की तो वह उसे गन्दी-गन्दी गालियाँ बकने लगा और उसे जेल भिजवाने की धमकी देने लगा तो लाजो ने कहा, "भईया, आप चिंता न करें आपका एक-एक पैसा हम चुका देंगे।"

"कहाँ से चुकाओगी भाभी, पचास हज़ार रुपया कम नहीं होता है और जिस नौकरी पर तुम फूल रही हो, रमेश की वो नौकरी तो कभी की छूट चुकी है।"

रमेश की नौकरी छूट जाने की बात सुनकर लाजो को ऐसा लगा, जैसे उसकी मुट्ठी से ज़िन्दगी सूखी रेत की तरह सरक गयी हो। उसकी आँखों के सामने अँधेरा-सा छा गया।

लाजो के काफ़ी समझाने और कहने-सुनने के बाद भी जब रमेश ने कोई काम-धंधा नहीं पकड़ा तो लाजो को एक रेडीमेड गारमेंट फ़ैक्ट्री में छह-सात हज़ार रुपए माहवार का काम मिल गया। अब लाजो सुबह को जल्दी उठकर घर का सारा काम निबटा कर अपने काम पर निकल जाती। फिर रात को काम से वापस आकर घर का काम करती। भागम-भाग भरी ज़िन्दगी में लाजो मशीन बनकर रह गई। उसे इतनी भी फ़ुर्सत नहीं मिल पाती कि वह आराम से रमेश के साथ बैठ कर उससे बात कर सके, जिससे रमेश उससे ख़फ़ा रहने लगा। कभी-कभी लाजो को घर लौटने में थोड़ी-बहुत देर हो जाती तो वह उसे उल्टा-सीधा बकता और उस पर झूठे इल्ज़ाम लगाता कि वह जानबूझ कर देर से आती है। उसका किसी से चक्कर चल रहा है। उसी के साथ वह मौज-मस्ती करती है। रमेश की जली-कटी सुनकर लाजो को कभी-कभी तो बहुत ग़ुस्सा आता, लेकिन वह बात को आगे न बढ़ाने के चक्कर में ख़ामोश हो जाती। 

रमेश की कामचोरी, हरामखोरी और उसके प्रति उसके बदलते रवैये से लाजो पहले ही टूट चुकी थी। लेकिन जब रमेश ने उसके चरित्र पर लांछन लगाया तो उसका मन रमेश की तरफ़ से और खट्टा हो गया। रमेश के कहे शब्द उसे दीमक की तरह अन्दर-ही-अन्दर कचौटने लगे। रमेश से उसका बात करने का भी मन नहीं करता। न उससे उसका कोई लगाव रह गया था। वह उससे निजात पाना चाहती थी। इसीलिए उसने फ़ैक्ट्री में ओवर टाईम करके रमेश का कर्ज़ चुकाने लगी, क्योंकि कर्ज़ की वजह से ही शिफ़्ट इंचार्ज रोज़-रोज़ उसे रास्ते में रोक कर परेशान करता था। उससे बेकार की बातें करके उसका मन कसैला कर देता था। वह उसे रमेश के ख़िलाफ़ भड़काता था और रमेश को छोड़ कर ख़ुद से शादी करने का दवाब बनाता था। लाजो कर्ज़े की मजबूरी में छटपटा कर रह जाती थी। वह चाहकर भी उसका विरोध नहीं कर पाती थी। इसीलिए वह जितनी जल्दी हो, उसके कर्ज़ से मुक्त होकर उसकी गन्दी नीयत और निगाहों से बच जाना चाहती थी। 

फिर एक दिन रात को करीब बारह बजे रमेश शिफ़्ट इंचार्ज रमेश के साथ उसके घर में आ धमका। वह दोनों ही नशे में धुत्त थे। अचानक उसे इस तरह रात को अपने घर में देखकर लाजो का तन-बदन सुलग गया। उसने उससे कहा, "आप....? ....आप यहाँ इस समय क्या करने आए हैं...?"

लाजो की बात पर शिफ़्ट इंचार्ज मुस्कुराने लगा और ललचाई दृष्टि से लाजो को घूरते हुए बोला, "मैं तुझसे अपना कर्जा बसूलने आया हूँ।"

"कर्जा...? ...मैं आपका आधे से ज़्यादा कर्जा तो चुका चुकी हूँ। अब जो भी दस-पंद्रह हजार रुपया रह गया है, वो भी जल्द ही चुका दूँगी। इसलिए आप यहाँ से जा सकते हैं। ...और हाँ, फिर कभी यहाँ आने की जुर्रत भी मत करना।"

लाजो की बात पर वह हँसते हुए बोला, "लाजो, तू कौन-सा कर्जा चुकाने की बात कर रही है। मुझे तो तेरी एक पाई भी नहीं मिली है।"

"क्यों झूठ बोल रहे हो भईया। मैंने दिन-रात मेहनत करके इन सात महीनों में रमेश के हाथों आपको पूरे पैंतीस हजार रुपए भिजवा चुकी हूँ और आप....?"

"लाजो, मैं झूठ क्यों बोलूँगा। रमेश तेरे सामने बैठा हुआ है इसी से पूछ ले। इसने मुझे आज तक एक रुपया भी नहीं दिया है।" 

लाजो के ऊपर तो जैसे वज्रपात हो गया। वह ठगी-सी खड़ी रह गई। फिर उसने ख़ुद सम्हाला और ग़ुस्से से रमेश को झझकोरते हुए बोली, "चुपचाप बैठे हो बोलते क्यों नहीं। मैंने तुम्हारे हाथों से इनके लिए रुपए भिजवाए थे कि नहीं...?"

"तू क्या समझती है लाजो, तेरे झूठ बोलने या ड्रामा करने से तेरी सच्चाई छिप जाएगी। तू क्या सोचती है मैं दारू के नशे में रहता हूँ तो मुझे कुछ नहीं मालूम, मुझे सब कुछ मालूम है लाजो। मुझे मालूम है लाजो कि तेरे और शिफ़्ट इंचार्ज के बीच क्या चल रहा है। मैंने अपनी आँखों से तुझे इनके साथ गुलछर्रे उड़ाते हुए देखा है। तू ने मुझे धोखा दिया है लाजो। तू धोखेबाज है, झूठी है, फ़रेबी है, बेवफ़ा है तू....तू ने मेरे साथ बेव्फ़ाई की है....तू बेवफ़ा है....बेवफ़ा है तू....।"

कहकर रमेश ज़ार-ज़ार रोने लगा और रो-रोकर कहने लगा, लाजो तू बेवफ़ा है....तू धोखेबाज है। लाजो अवाक्-सी खड़ी आँखे फाड़कर कभी रमेश को तो कभी उसके शिफ़्ट इंचार्ज को देख रही थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क़िस्मत उसके साथ कौन-सा खेल, खेल रही है? जिस रमेश को वह कर्ज़े से मुक्त करवाना चाहती थी, वही रमेश उस पर बेवफ़ा और धोखेबाज होने का आरोप लगा रहा है। वह समझ नहीं पा रही थी कि वह अपनी बेगुनाही का रमेश को क्या सबूत दे। उसे कैसे समझाए कि उसने उसके सिवा किसी और के बारे में कभी सोचा भी नहीं है। 

थोड़ी देर में रमेश सामान्य होकर बोला, "लाजो, तू तो इंचार्ज साहब के साथ मौज-मस्ती मारेगी। मलाई-मक्खन उड़ाएगी। पर तेरे चले जाने के बाद मेरा क्या होगा? मैं तो भूखा मर जाऊँगा। इसीलिए मैंने तेरे दिए पैसे इंचार्ज साहब को न देकर अपने पास ही रखे हैं। इसके अलावा मैंने तेरे भरोसे इंचार्ज साहब से पच्चीस हज़ार रुपए और ले लिए हैं ताकि तेरे चले जाने के बाद जब तक मुझे कोई काम-धंधा नहीं मिल जाता, उन्हीं पैसों से गुज़र-बसर करूँगा।"

रमेश, तुम क्या कह रहे हो, मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ...? और हाँ, तुम कह रहे हो मैं तुम्हें छोड़कर चली जाऊँगी, तो मैं तुम्हें छोड़कर क्यों जाऊँगी?"

"इतनी भी नादान मत बन लाजो। मैं क्या कह रहा हूँ तू अच्छी तरह समझ रही है। लाजो, मैं तो तुझे कोई सुख नहीं दे पाया। लेकिन यह इंचार्ज साहब हैं न, बड़े ही दरियादिल इंसान हैं। इनके पास घर, पैसा, गाड़ी किसी चीज़ की कमी नहीं है। ऐश करेगी तू इनके साथ। तुझे रानी बनाकर रखेंगे। बहुत प्यार करते हैं यह तुझे, जा इनके साथ चली जा।"

रमेश की बातों से लाजो का ख़ून खौल गया। वह अपने ग़ुस्से को रोक नहीं पाई। उसने आव देखा न ताव, चटाक से उसके गाल पर थप्पड़ जड़ दिया, जिससे रमेश बिलबिला कर रह गया। वह घायल शेरनी की तरह उसे घूरने लगी। फिर उसने रमेश के मुँह पर थूकते हुए कहा, "अरे धिक्कार है ऐसे मर्द पर जो ज़रा-सी शराब के लिए गैर मर्द के हाथों अपनी बीबी का सौदा कर दे। सुन, तू ने इसका कर्ज़ा खाया, अब तू ही इसके साथ जा। मैं कहीं नहीं जाऊँगी।" 

"जाएगी कैसे नहीं, मैं तुझे भेजूँगा।" कहकर वह उसके साथ ज़बरदस्ती करने लगा तो लाजो ज़ोर-ज़ोर से चीखने-चिल्लाने लगी। उसकी आवाज़ सुनकर पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे होने लगे। लोगों को इकट्ठा होते देख रमेश और शिफ़्ट इंचार्ज वहाँ से खिसक लिए।

लोगों के पूछने पर लाजो फफक कर रो पड़ी। रोते-रोते उसने उन्हें रमेश और शिफ़्ट इंचार्ज के नापाक इरादों के बारे में बताया तो लोगों ने कहा कि रमेश तो ऐसा कई लड़कियों के साथ कर चुका है। वह भोली-भाली लड़कियों को शादी का झाँसा देकर अपने साथ यहाँ ले आता है और फिर कुछ दिन उन्हें अपने साथ रखता है और जब उनसे उसका दिल भर जाता है, तो उन्हें दूसरे लोगों के हाथ बेच देता है। इस चक्कर में वह कई बार जेल भी जा चुका है। 

"...और रमेश की फ़ैक्ट्री की नौकरी...और शिफ़्ट इंचार्ज? ...वो सब....??" लाजो ने पूछा।

"वो सब एक छलावा और दिखावा है, लड़कियों को अपने जाल में फँसाने का। सच तो यह है कि रमेश कहीं नौकरी करता ही नहीं है। वह शिफ़्ट इंचार्ज भी रमेश की तरह ही धोखेबाज है। तुम उसके साथ चली जातीं तो वह तुम्हें किसी तीसरे आदमी के हाथ बेच देता।"

रमेश की सच्चाई सामने आते ही लाजो एकदम ख़ामोश हो गई। उसे यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि जिस रमेश को उसने अपना भगवान समझकर पूजा था वह उसके साथ इतना बड़ा धोखा करेगा। रमेश ने मुझे ही नहीं अपने घर वालों, गाँव वालों, सब को धोखा दिया है। सब रमेश को अच्छा लड़का मानते हैं, किसी को नहीं मालूम सीधा-सादा सा दिखने वाला रमेश यहाँ गुनाह की गहरी अँधेरी खाई में डूबा हुआ है। 

उसके जज़्बातों और अरमानों से क़िस्मत इतना बड़ा खिलवाड़ करेगी, वह यह सोच भी नहीं सकती थी। लाजो ऐसा महसूस कर रही थी, जैसे उसके हाथ में किसी ने बर्फ़ के अंगारे थमा दिए हों, जो उसे ठण्डक पहुँचाने की बजाय उसके मन-मस्तिष्क को सुलगा रहे हों।

रातभर लाजो ख़ुद की क़िस्मत को कोसती रही और सोचती रही कि वह रमेश और उसके साथी शिफ़्ट इंचार्ज को उनकी करतूतों की स्ज़ा ज़रूर दिलवाएगी और गाँव जाकर रमेश को सबके सामने बेनक़ाब करेगी ताकि रमेश फिर कभी किसी और लड़की की ज़िन्दगी बर्बाद न कर पाए।

सुबह होते ही लाजो पुलिस स्टेशन पहुँच गई। वहाँ जाकर उसने रमेश और उसके साथी शिफ़्ट इंचार्ज के ख़िलाफ़ रिपोर्ट लिखवाई। उसके बाद वह अपने गाँव जाने के लिए रेलवे स्टेशन आ गई।

अचानक गाड़ी आ जाने का शोर सुनकर लाजो की विचार शृंखला टूट गई। उसने अपने दोनों हाथों से अपने मुंह को साफ किया और गाड़ी की तरफ़ बढ़ गई। 

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