अस्मिता

14-05-2014

अस्मिता

मुकेश पोपली

पिछले कुछ दिनों से रह-रह कर उसके दिमाग में एक ही प्रश्न बार-बार कौंध रहा था कि क्या यह ठीक हुआ? फिर वह कुछ सोचती और फिर कुछ देर बाद स्वयं ही बोल उठती, ‘‘नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा हो ही नहीं सकता।"

बनर्जी साहब को तो वह बहुत अच्छी तरह पहचानती है। कॉलेज की सारी पढ़ाई उसने बनर्जी साहब की देख-रेख में की है। उनके जैसा सज्जन पुरुष उसने अपने जीवन में तो देखा ही नहीं था, वह तो उसके पिता से भी ज़्यादा मज़बूत इंसान थे। बनर्जी साहब उसकी नज़रों में कभी भी कमज़ोर व्यक्ति नहीं रहे। वह उप-प्राचार्य के पद पर नियुक्त थे और "मैनेजमेंट कमेटी" के माननीय सदस्यों में से एक थे। किसी भी मामले में उनकी राय को महत्व दिया जाता था। तो क्या बनर्जी साहब एकदम बदल गए थे या फिर अब तक की सहानुभूति और पिता तुल्य प्यार क्या दिखावा मात्र था?

"नहीं, यह मैं क्या सोचने लगी? मैं ऐसा सोच ही क्यों रही हूँ? शायद मेरा बुरा वक़्त चल रहा है और इसलिए ही मैं उनके बारे में बुरा सोच रही हूँ? वह कोई भी फैसला गलत नहीं करेंगे।" सुधा अपने आप से ही बोले जा रही था।

आज सब व्यवस्थाओं को धता बताकर उसका "प्रमोशन" रोक दिया गया है, बल्कि सारी नियमावली ताक पर रखकर उसके जूनियर को यह "प्रमोशन" दे दिया गया था। इस तरह से तो सब-कुछ बदल जाएगा। आज उसके साथ ऐसा हुआ है तो कल किसी और के साथ भी ऐसा होगा, अन्याय तो अन्याय है। तब क्या वह अन्याय बर्दाश्त कर लेगी? नहीं, कभी नहीं। प्रत्येक व्यक्ति इतना स्वार्थी क्यों होता जा रहा है? क्यों इतनी महत्वाकांक्षा लोग अपने लिए पाल लेते हैं कि फिर उसे पूरा करने के लिए किसी सही व्यक्ति के अधिकारों का भी हनन करते हैं? एक अच्छी परंपरा तोड़ने की कोशिश करते रहते हैं। एक क्रम को दर-किनार कर नया क्रम बना लिया जाता है। व्यवस्थाओं से बाधा खड़ी होती दिखती है तब महज़ खुद के ज़रा से फायदे के लिए नई व्यवस्थाओं का निर्माण कर लिया जाता है। नीति अनीति लगने लगती है क्योंकि स्वार्थ की आँधी में उन्हें सब-कुछ बेमानी लगने लगता है। ऐसा ही तो उसके साथ किया गया है और वह इसी बात से परेशान है कि उसका अपराध क्या है, क्यों उसके साथ यह खिलवाड़ किया जा रहा है? उसने इस बारे में कारण जानने की कोशिश भी तो की थी, मगर कहीं से भी सही जवाब उसे नहीं मिल पा रहा था। बनर्जी साहब भी तो उसे नहीं मिल पाए थे, पता चला है कि वह तो शहर से बाहर चले गए हैं।

अन्य व्याख्याताओं को उससे सहानुभूति तो थी, परंतु इस लड़ाई में उसका साथ देने को कोई भी तैयार नहीं था। आज एक अनजाना सा भय उन सबके मन में समा गया था। अचानक ही सुधा सब की सहानुभूति का पात्र तो बन गई थी, मगर उसका हौसला बढ़ाने की बजाय सब उसे बेचारी कहने लगे थे। ज़माने की हवा ही कुछ ऐसी हो गई है, न जाने यह हवा कब बदलेगी?

सुधा के पिता इसी कॉलेज में लिपिक के पद पर कार्य करते थे। सुधा की प्रतिभा देखकर ही उसे यहाँ पर निःशुल्क प्रवेश दिया गया था। सुधा ने स्नातक और स्नातकोत्तर दोनों ही परीक्षाओं में प्रथम स्थान प्राप्त कर कॉलेज का नाम पूरे देश में रोशन किया था। बनर्जी साहब की देख-रेख में उसने पी.एच.डी. की थी और अर्थशास्त्र विभाग में उसे व्याख्याता की नौकरी प्राप्त हो गई थी।

अचानक सुधा को अँधेरे में रोशनी का अहसास हुआ, उसे ख्याल आया कि इस मामले में वह आकाश की मदद ले सकती है। आकाश की बहन उसकी सबसे प्रिय छात्रा थी। आकाश पेशे से वकील था। आकाश के परिवार ने मन ही मन उसे इस घर का सदस्य मानते थे। बस, सही वक़्त का इंतज़ार था सबको। सुधा को भी यह बात मालूम थी। मगर अभी कुछ ही महीने हुए थे जब उसके पिता का स्वर्गवास हो गया था, अगर उस समय उसे आकाश के परिवार का सहारा नहीं मिलता तब वह बिल्कुल ही टूट जाती। उसने जब शाम को आकाश के घर कदम रखा तो उसका पूरा परिवार खुशी से झूम उठा। कुछ देर के लिए सुधा अपनी सारी परेशानियों को भूल गई।

बनर्जी साहब के आने के बाद वह आकाश को साथ लेकर उनसे मिली। वहाँ पर उसे अहसास हुआ कि बनर्जी साहब आज भी वैसे ही हैं। वह किसी भी स्थिति में यह बात मानने को तैयार नहीं थे कि सुधा के स्थान पर रंजीत को पदोन्नति दी जाए। बहुत सी बातों को ध्यान में रखते हुए ही बनर्जी साहब अपना विरोध जताते हुए लम्बी छुट्टी पर चले गए थे। बनर्जी साहब ने ही उसे यह बताया कि यह सब रंजीत की करतूत है। रंजीत सुधा से उस दिन से खार खाए हुए था जिस दिन उसने रंजीत को कॉलेज के भरे प्रांगण में थप्पड़ मारा था। वह दिन सुधा कैसे भूल सकती है जब रंजीत ने उसका हाथ जबरन पकड़ लिया था और अपनी ओर उसे झुकाने की कोशिश की थी। अचानक इस घटनाक्रम से वह घबरा सी गई थी और शराबी, आवारा कहते हुए उसका हाथ रंजीत के गाल पर जा पड़ा था।

मैनेजमेंट कमेटी के सामने झूठ बोलकर और अपने मंत्री मामा की पहुँच का फायदा उठाकर उसने यह पदोन्नति हड़प ली थी और इसके लिए उसने एक बहाना तो यह बनाया कि सुधा दो साल तक अस्थायी व्याख्याता रही थी और दूसरे उसने अपनी शराफ़त का परिचय दिया कि सुधा द्वारा अपमानित किए जाने के बाद भी उसने सुधा के ख़िलाफ़ कोई शिकायत नहीं की।

इच्छा हो तो इंसान क्या नहीं कर सकता? आकाश और बनर्जी साहब के अपनेपन के साथ-साथ उसे बहुत से लोगों ने समझा और उसका साथ देना स्वीकार किया। दो महीने की ज़दो-ज़हद के बाद आखिर सुधा ने यह लड़ाई अदालत में जीत ली। कॉलेज के सभी छात्र-छात्राएँ खुश थे और उसके अन्य स्टाफ सदस्य भी।

एक दिन बनर्जी साहब के घर से सुधा की डोली आकाश के घर आई। इसी दिन सुधा को एक पत्र प्राप्त हुआ जिसका मजमून कुछ इस पकार था- "अर्थशास्त्र विभागाध्यक्ष हेतु मैनेजमेंट कमेटी ने रंजीत को पदोन्नति प्रदान की थी, परंतु आपने अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए अदालत का सहारा लिया। आपके इस कदम से कमेटी के सभी संभ्रांत सदस्यों का अपमान हुआ है, लिहाजा आपको नियमानुसार तीन महीने का वेतन देकर नौकरी से हटाया जाता है।"

अस्मिता का प्रश्न एक बार फिर सुधा के सामने था, लेकिन इस बार वह अकेली नहीं थी। अब रंजीत की सभी करतूतों का पर्दाफाश हो चुका था और उसका साथ देने के लिए एक फिर तमाम स्टाफ और छात्र-छात्राओं ने उसका साथ देने की ठान ली थी। आकाश ने उसे अपनी बाँहों में कैद कर लिया था।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें