अंत
सिद्धार्थ 'अजेय'न्याय जहाँ पर नपता हो
अन्याय जहाँ पर बँटता हो
रण को सभी लालायित हों
ज्ञानी विवेक से बाधित हों
भू के विध्वंस को तत्पर हों
सब रक्तपिपासु-अनुचर हों
विद्या का पाठ नदारद हो
हिंसा से हृदय लबालब हो
कांति सूरज की धुँधली हो
तम की छाया कुछ उजली हो
प्रताप जहाँ का लज्जित हो
सत्ता दंभी, मद-सज्जित हो,
भूपति वहाँ का जड़ होगा
शोषित एक-एक कण होगा,
निश्चित ही जगह अधम होगी
जनता की आँखें नम होंगी
विषदंत लगा हो, जिस जड़ में
वह वृक्ष विशेष का अंत होगा।
राहों में शूल बिछे होंगे
पत्थर के फूल बिके होंगे
अंबर सूखा सड़ता होगा
धरती पर ख़ून पड़ा होगा,
घुट के मानवता मरती होगी
सब कार्य ईर्ष्या करती होगी
ना प्रेम का कोई घर होगा
ना पुरुष विशेष अजर होगा
उड़ने पर भी पाबंदी होगी
पाताल खगों का घर होगा
उस मिट्टी में यम उपजेगा
औ' कालकूट-सा तम होगा
पंथ विभाजित होंगे जिस दिन
उसी क्षण विशेष का अंत होगा।
स्त्री की दशा कुछ कंपित हो
जड़ ही घर की विध्वंसित हो
नारी-रक्षा अधरों में हो
छल-कपट बसे नगरों में हो
बालक के हाथ ना रोटी हो
पालक की रोज़ी खोटी हो,
तृष्णा का घना सवेरा हो
कथनी ऐसी 'सब मेरा हो’
आतंक का चेहरा बिकता हो
जन समर विशेष में पुख़्ता हो
वहाँ वर्षा अश्रु की होगी
माँ पीड़ित हो, रोती होगी
जहाँ मर्यादा का मान ना हो
उस देश विशेष का अंत होगा !