आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में इतिहास-बोध

10-12-2007

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में इतिहास-बोध

डॉ. राजेन्द्र गौतम

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का सर्जन उनके व्यक्तित्व की भांति परंपरा का विकास होते हुए भी, सभी परम्पराओं को उत्तीर्ण करता हुआ निरन्तर आधुनिक के साथ जुड़ता रहा है। उन्हें आलोचक, निब्न्धकार अथवा उपन्यासकार के रूढ़ वृत्तों में नहीं बाँधा जा सकता, वरन् उनके लेखन का सहज स्वभाव लोक-संस्कृतिपरक है। इसीलिए उनका साहित्य सांस्कृतिक-सामाजिक से अतीत जुड़ा रह कर भी वर्तमान का मार्गदर्शन करता है। इसी के लिए उन्होंने निबन्धा लिखे ह। जो निबन्धों में नहीं अँट पाया, उसे हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन के क्रम में कहा और जब उन्हें लगा कि अब भी वे अपने मन्तव्यों की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं कर पाये हैं तो उन्होंने उपन्यास लिखे। यों इस फक्कड़ बाबा ने कविताएँ भी लिखी हैं। उनके द्वारा व्यवहृत ये सभी विधाएँ एक दूसरी की पूरक हैं। इनकी केन्द्रीय प्रवृत्ति अतीत के माध्यम से प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना है पर अतीत से जुड़ कर भी वे पुनरुत्थानवादी मानसिकता से ग्रस्त नहीं रहे। उनकी पारम्परिकता जड़ता का प्रतिकार करती है, उनकी स्वच्छन्द वृत्ति सामाजिक इतिहास की गरिमा से भास्वर है, उनकी विराट् उन्मुक्तता मानवता की स्थापना का ध्येय लिए है। वे निरन्तर परिवर्तन का उद्घोष करने वाले ऊर्जा-पुंज थे। अतीत को वे मानवानुभव के रूप में देखते हैं। उनके उपन्यास उनके व्यक्तित्व की सम्पूर्णता का प्रतिनिधित्व करते हैं।

डॉ. रघुवीर सिंह की विशिष्ट गद्य-कृति ’शेष स्मृतियाँ‘ की ’प्रवेशिका‘ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने एक मार्मिक सत्य का उद्‌घाटन करते हुए लिखा है – “हृदय के लिए अतीत मुक्तिलोक है, जहाँ वह अनेक बन्धानों से छूटा रहता है और अपने शुद्ध रूप में विचरता है। वर्तमान हमें अन्धा बनाये रहता है। मैं समझता हूँ कि जीवन का नित्य स्वरूप दिखाने वाला दर्पण मनुष्य के पीछे रहता है, आगे तो बराबर खिसकता हुआ परदा रहता है।” लगता है आचार्य द्विवेदी ने अपने इस ज्येष्ठ आचार्य के मन्तव्य को ही अपने सम्पूर्ण लेखन का आदर्श बना लिया है। इसलिए वे आगे खिसकते हुए परदे के भ्रमों से सचेत रहते हुए प्रतिबिम्बनधर्मी दर्पणी अतीत के अन्वेषण में निरंतर रचनारत रहे। इस दर्पणी अतीत को वर्तमान के लिए प्रासंगिक बनाना आजीवन उनकी प्राथमिकता रही।

आचार्य द्विवेदी जी द्वारा प्रणीत चार उपन्यासों -- ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘, ’चारुचन्द्रलेख‘, ’पुनर्नवा‘ एवं ’अनामदास का पोथा‘ में से प्रथम तीन का सम्बन्धा सीधे रूप में भारत के मध्यकालीन इतिहास से जुड़ा है जबकि ’अनामदास का पोथा -- अथ रैकव आख्यान‘ का इतिहास शुद्ध इतिहास न होकर पौराणिक इतिहास है। यों उन्होंने १९-६-१९७६ के ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘  में प्रकाशित मनोहरश्याम जोशी को दिए गए एक साक्षात्कार में अपने उपन्यासों को शुद्ध ’गल्प‘ ही माना है और गल्प को ’कल्प‘ कहा है। लेकिन उनका यह कथन उसी प्रकार का ’वंचक‘ कथन है, जिस प्रकार उनके उपन्यासों के आमुख पाठक को थोड़ा बहकाने की कोशिश करते हैं। वह बात दूसरी है कि उन की यह ’वंचना‘ सोद्देश्य है। इसके माध्यम से वे पाठक को तथ्यों के शुष्क रेगिस्तान से निकाल कर सर्जना की रम्य वीथियों में ले आते हैं। निरवधि प्रवहमान काल में मानव-मूल्यों के संस्थापक के रूप में वे अपने उपन्यासकार को सजग रखते हैं, जिसके परिणामस्वरूप इनके उपन्यासों में कथक ऐतिहासिकता के किनारे अवश्य प्रदान करता ह परन्तु उनके बीच प्रवाहमान सदानीरा में उनकी संवेदना के उद्द्रवित हिमालय का ही जल है।

आचार्य द्विवेदी के पात्र एक इतिहास को अवश्य प्रस्तुत करते हैं लेकिन यह इतिहास उन तथ्यान्वेषी विद्वानों ने इतिहास से भिन्न है, जिन्होंने राज-प्रासाद से बाहर झाँकने का प्रयास नहीं किया है। यह इतिहास एक ओर सम्बद्ध कालखण्ड के सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश को सम्पूर्णता के साथ अभिव्यक्त करता है, दूसरी ओर उस युग की सम्पूर्ण मूल्यवत्ता को भी संस्थापित करता चलता है। यदि द्विवेदी जी ने अपने लोक-संस्कृति-उन्मुख उपन्यासों को ’गल्प‘ कहा है तो इसलिए कि वे इनकी प्रामाणिकता के लिए पुरातत्त्व के अवशेषों के संग्राहक के पास नहीं गए हैं। इसकी अपेक्षा वे मानव-वृत्तियों की प्रामाणिकता पर विश्वास करते हुए नित्य विकासमान सामाजिकता को प्रस्तुत करते हैं। इतिहास का उपयोग उनके उपन्यासों में एक ऐसे व्यापक फलक को पृष्ठभूमि के रूप में रखने के लिए हुआ है, जिसके द्वारा प्रगतिशील मानवता की स्थापना की जा सके। क्योंकि अपने महत्त्वपूर्ण उपन्यास ’पुनर्नवा‘ में समस्त ऐतिहासिक-सामाजिक संघर्ष के चित्रण के बाद वे जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, उसकी सामयिक एवं शाश्वत सार्थकता असंदिग्ध है। उनका निष्कर्ष हैः ’अगर निरंतर व्यवस्थाओं का संस्कार नहीं होता रहेगा, तो एक दिन व्यवस्थाएँ तो टूटेगी ही अपने साथ धर्म को भी तोड़ देंगी।’ मनुष्य सामाजिक विकास के क्रम में अनेक व्यवस्थाओं का निमार्ण करता है। किंतु यह भी एक कटु सत्य है कि ये व्यवस्थाएँ क्रमशः रूढ़ होकर मनुष्यता का ही दमन आरंभ कर देती हैं। आचार्य द्विवेदी इस दमन का प्रतिकार व्यवस्थाओं के निरंतर संस्कार के द्वारा ही संभव मानते हैं। उनकी इस मान्यता में इतिहास के प्रति जड़ताग्रस्त मानसिकता का भी स्पष्ट प्रतिकार है।

प्रस्तुत संदर्भ में साहित्य एवं इतिहास के पारस्परिक सम्बन्ध पर कुछ विचार करना अप्रासंगिक न होगा। ये दोनों संकाय स्वतंत्र होते हुए भी परस्पर संबद्ध हैं। इतिहास साहित्य का उपजीव्य है और साहित्य इतिहास की प्रामाणिकता का एक आधार। पहला मानव अनुभवों का आलेख है, दूसरा उन अनुभवों के आलोक में जीवन की भावमयी व्याख्या प्रस्तुत करता है लेकिन दोनों एक-दूसरे के निकट होकर भी अपनी प्रक्रिया में भिन्न हैं। एक मूलतः तथ्यपरक है, दूसरा भावाश्रित, एक शास्त्र की ओर झुकता है, दूसरा शास्त्र के बाहर-भीतर, सब को घेरे रहता है। यों इतिहास भी मानव-मूल्यों की स्थापना का उद्देश्य लेकर चलता है लेकिन उसका मूल लक्ष्य प्रामाणिक सत्यों का अन्वेषण है। साहित्य में जिस युग का चित्रण होता है, उसमें केवल वही नहीं होता जो बाहर से दिखलाई देता है, बल्कि उसमें वह भी चित्रित होता है, जो कवि मन की आँखों से देखता है। इतिहासकार यदि समग्रता में से प्रासंगिक सामग्री चुन लेता है तो साहित्यकार इतिहास द्वारा उपलब्ध कराए गए आलेखों के आधार पर समग्रता को प्रासंगिक बनाता है। एक की प्रवृत्ति विश्लेषणात्मक है, दूसरे की संश्लेषणात्मक। मानव के क्रिया-व्यापार का अध्ययन दोनों का विषय है पर साहित्य भाव-प्रक्रिया को चित्रित करता है, इतिहास उसकी परिणति को। द्विवेदी जी इतिहास की असदिंग्ध महत्ता के प्रति पूर्णतः आश्वस्त थे। क्योंकि वे इतिहास-बोध को पीछे देख सकने वाला मनुष्य का तीसरा नेत्र मानते थे। उनका कहना है -- ’इतिहास-प्रेम की बात मैं नहीं जानता मगर इतिहास-बोध को पलायन समझना आधुनिकता नहीं, आधुनिकता का विरोध है। आधुनिकता की तीन शर्तें हैं -- एक इतिहास-बोध, दूसरे इस लोक में ही कल्याण होने की आस्था, तीसरी व्यक्तिगत कल्याण की जगह सामूहिक कल्याण की एषणा। मैं आग्रहपूर्वक यह कहना चाहता हूँ कि जो इतिहास को स्वीकार न करे वह आधुनिक नहीं और जो चैतन्य को न माने वह इतिहास नहीं। (१९ जून, १९७६ के ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ में प्रकाशित पूर्वोक्त साक्षात्कार)। द्विवेदी जी द्वारा प्रस्तुत की गई आधुनिकता की यह व्याख्या लीकपीटू आधुनिक बुद्धजीवियों को अवश्य देख और सीख लेनी चाहिए। स्पष्टतः यहाँ वे इतिहास की अपेक्षा इतिहास-बोध के महत्व को रेखांकित करते हैं। वे उस शाश्वततावादी इतिहास-बोध के पोषक नहीं हैं, जो पाखंड रचते हुए पारलौकिक जगत् का प्रलोभन देकर मनुष्य के कल्याण की बात करता है। वे तो इसी लोक में मनुष्य के कल्याण का लक्ष्य रखते हैं। आधुनिकता की जिन तीन शर्तों का उल्लेख आचार्य जी ने किया है, उनमें तीसरी शर्त और भी रेखांकनीय है। व्यक्तिगत कल्याण द्विवेदी जी के साहित्य का लक्ष्य कभी नहीं रहा है। वह उनकी इतिहास-दृष्टि का भी आधार नहीं बना है। उनका गंतव्य तो सामूहिक कल्याण ही रहा है। ’चारुचन्द्रलेख‘ में नाटी माता द्वारा चन्द्रलेखा को पिलाई गई यह डाँट द्विवेदी जी के इसी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती हैः “जहाँ तक तुमने अशेष मानव-जाति को रोग, जर, मृत्यु से मुक्त करने का संकल्प किया था, वहाँ तक तो तुमने ठीक किया, परन्तु बाद में तुमने अपनी सिद्धि को व्यक्तिगत अहंकार का विषय बना लिया, वहीं तुम तपोभ्रष्ट हो गई।“

जिस उत्तर-आधुनिक युग में इतिहास की गठरी को अप्रासंगिक कह कर एक ओर पटक कर चल देने का परामर्श दिया जा रहा हो, वहाँ द्विवेदी जी का यह मजबूत दावा कि इतिहास को अस्वीकार कर आधुनिक नहीं हुआ जा सकता, विशेष अर्थ रखता है। यह दावा इसलिए भी अर्थवान है क्योंकि वे चैतन्यहीन इतिहास को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने अपने इतर साहित्य की भांति उपन्यासों में भी इतिहास की ही साधना की है और उनमें उनकी उपर्युक्त इतिहास-दृष्टि का ही प्रतिपादन हुआ है। पूर्वोक्त साक्षात्कार में वे यह भी स्वीकार करते हैं कि इतिहास की साधना को शव-साधना कहना चाहें तो कह लें लेकिन ’इतिहास कुलीन शव है। उसे ओंधे मुँह लिटा कर हम जैसे कई साधना करते हैं। कई मुँह उलटने पर घबरा जाते हैं.... विरले ही हैं जो प्रलोभनों से विमुख होकर उस शक्ति से साक्षात्कार कर पाते हैं, जो वर्तमान को अधिक सुघर बनाने में और भविष्य के लिए सही मार्ग सुझाने में सहायक होती है।‘ लोक से लिया गया यह अघोरी रूपक श्रमण संस्कृति की एक धरा की ओर तो ध्यान खींचता ही है, मध्यकालीन धर्म-साधना की पर्तें भी खोलता है।

उपर्युक्त शव-साधना के संदर्भ में द्विवेदी जी ने यद्यपि विनम्रतावश स्वयं को अधूरा साधक कहा है लेकिन अपने उपन्यासों में उन्होंने इतिहास-सिंधु के मंथन से मानवता के कल्याण के लिए जो अमृत निकाला है, वह निस्संदेह उन्हें प्रलोभन-विमुख साधक ही प्रमाणित करता है। उनके सभी उपन्यास ’वर्तमान को अधिक सुघर बनाने में और भविष्य के लिए सही मार्ग सुझाने में सहायक‘ हैं, इसमे लेशमात्र भी संदेह नहीं है। ’बाणभट्ट‘ की ’चन्द्रदीधिति‘, ’चारुचन्द्रलेख‘ की ’मैना‘ और ’पुनर्नवा‘ की ’मृणाल‘ को केन्द्र में रखकर उन्होंने भारतीय मध्यकालीन इतिहास का अवगाहन कर, जिस उद्‌बोधनपरक साहित्य की रचना की, वह अपनी प्राणवत्ता में अजेय, प्रासंगिकता में सार्थक, सर्जनात्मकता में सौष्ठवमय एवं संवद्येता में सर्वग्राह्य है। पुरुष-वर्ग में भी उन्होंने बण्ड, चंद्रमौलि और रैक्व जैसे मस्तमौला दिखते पर भीतर गहरे अंतर्द्वंद्वों से गुजरते पात्रों की सृष्टि की है।

’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ के बाण, हर्ष और चन्द्रदीधिति जैसे ऐतिहासिक पात्र उस आधारभूमि का निर्माण करने में पूर्णतः समर्थ हैं, जिस पर रचनाकार ने अपना कला-सौध खड़ा किया है। इस उपन्यास की केन्द्रीय समस्या बाणकालीन राजवंशीय इतिहास को प्रस्तुत करने की नहीं है, वरन् मुख्य समस्या भट्टिनी की रक्षा की है। भट्टिनी नारी की गरिमा एवं उदात्तता का, समस्त भारतीयता का, अपने समाज की आस्था का, प्रतीक है और स्वयं भट्टिनी के लिए उस आस्था का प्रतीक-चिर् है, ’महावराह‘। ’महावराह‘ की रक्षा नहीं हो पाती। स्वतंत्रता का संघर्ष परोक्ष भयों से आक्रांत हो जाता है। अतीत के इस संघर्ष को आचार्य जी अपने युग की भूमि पर खड़े हुए देख रहे थे। स्पष्टतः उस अतीत में वर्तमान की ही समस्याएँ प्रतिबिम्बित होती हैं। यह उपन्यास लगभग उसी दौर में रचा जा रहा था, जब हम राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर रहे थे पर इस युग-चिंतक की आशंकाएँ साधार थीं। उनके समक्ष यह बड़ा प्रश्न था कि क्या राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने से व्यक्ति की अस्मिता की रक्षा सम्भव हो पाती है? क्या इस स्वतंत्रता से ही व्यक्ति का विवेक स्वयं उसका मार्ग-दर्शक बन सकता है? वे जानते थे कि ऐसा नहीं है। इसलिए उन्हें इतिहास की शव-साधना के माध्यम से यह संदेश देना पड़ा, ’सत्य के लिए किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, वेद से भी नहीं।‘ शास्त्रों के भय से थर-थर कांपती जनता को दिया गया यह अभय-संदेश संजीवन से कम नहीं। भय व्यक्ति की स्तंतरता का -- उसक विवेक का विनाशक है। वर्षों से पराजय का बोध सहती आ रही जाति को अतीत के मन्थन से लेखक भयमुक्ति का जो मंत्र देता है, वही उसके लिए सर्वाध्कि प्रासंगिक है।

ऊपर भट्टिनी की रक्षा को नारी-गरिमा की रक्षा मानने का जो संकेत दिया गया है, वह आज विशेष रूप से प्रासंगिक है। आज के ’स्त्री विमर्श‘ के घटाटोपी मंथन में से जो सार-तत्त्व निकल कर आता है, साहित्य में उसका करणीय पक्ष (ऑपरेटिव क्लॅाज) नारी की गरिमा की रक्षा का प्रयास ही है। ’स्त्री विमर्श‘ का दूसरा प्रमुख पहलू स्त्री का दमन करने वाली पुरुष की वर्चस्ववादी मानसिकता का विरोध भी है। ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में महामाया द्विवेदी जी की विशेष सष्टि है। महामाया इसी पुरुष-वर्चस्व के विरोध में खड़ी है। वही भट्टिनी की वेदना को सही ढंग से पहचान पाती है। तभी वह कहती हैः “पुरुष का सत्य और है, नारी का सत्य और।” भट्टिनी वास्तव में सामंती समाज की मानसिकता की शिकार है। यह मानसिकता जिस प्रकार धरती को और राज्यों को हस्तगत कर लेना चाहती है, उसी तरह इसके मन में स्त्री के धर्षण की, हस्तगत कर लेने की, अधिकार जमाने की कामना भी रहती है। इस मानसिकता के अवशेष अभी मिटे नहीं हैं। यह सही है कि जिस समय ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ की रचना हुई थी, तब ’स्त्री विमर्श‘ का वैसा आंदोलनकारी रूप नहीं था, जैसा आज है लेकिन एक प्रगतिशील रचनाकार फासीवादी मनोवृत्तियों पर चोट किए बिना नहीं रहता। द्विवेदी जी निस्संदेह ऐसे प्रगतिशील रचनाकार थे जिन्हों रोग की जड़ को पहचाना था। अपने उपन्यासों में ऐतिहासिक अनुभव के फलक पर घटनाक्रम को चित्रित कर वे इन रोगों का निदान खोजते ही नजर आते हैं।

स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के संदर्भ में आज विवाद का एक बड़ा मुद्दा यह भी रहा है कि क्या स्त्री और दलित से जुडी समस्याओं पर स्त्री और दलित को ही लिखने-कहने का अधिकार है? इस संदर्भ में भी द्विवेदी जी का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और तर्कसंगत हैं। ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में आया यह कथन जरा ध्यान से देख लेना चाहिएः “स्त्री के दुःख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं बता सकते। सहानुभूति के द्वारा ही उस मर्म-वेदना का किंचित आभास पाया जा सकता है।” समस्या के दोनों पक्ष यहाँ प्रस्तुत हैं। स्त्री के दुःखों की निजता का, उसका केवल अनुभूति-सापेक्ष होने का सच झुठलाया नहीं जा सकता पर सहानुभूति की अपनी एक भूमिका जरूर है। भले ही इस सहानुभूति से उस वेदना का किंचित आभास ही पाया जा सके, तथापि पुरुष-वर्चस्व वाले समाज की कुठित संवेदनाओं को यह सहानुभूति कचोटती जरूर है। लेखक यही कर सकता है। उसके पास पर-काया-प्रवेश की क्षमता है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। आज के स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के संदर्भ में द्विवेदी जी द्वारा प्रस्तावित ’सहानुभूति‘ का साथ छोड़ना उचित न होगा।

भारतीय समाज की समस्या जितनी वर्ग-भेद के कारण है, उतनी ही वर्ण-भेद के कारण भी है। बीसवीं शताब्दी मानवीय अस्मिता की पहचान की शताब्दी रही है। हिंदी साहित्य का वह दौर, जिसमें द्विवेदी जी रचनारत थे, इस अस्मिता को पहचानने और इसे गौरव दिलाने के लिए ही संघर्षरत दिखलाई देता है। स्तर-भेद की त्रासद विडंबनाओं को लक्षित कर द्विवेदी जी पात्र के माध्यम से एक कचोटने वाला सवाल उठाते हैं : “यहाँ इतना स्तर-भेद है कि मुझे आश्चर्य होता है कि यहाँ के लोग कैसे जीते हैं? तुम यदि किसी यवन कन्या से विवाह करो तो इस देश में एक भयंकर सामाजिक विद्रोह माना जाएगा। जहाँ भारतवर्ष में समाज में एक सहस्र स्तर हैं, वहाँ उनके समाज में कठिनाई से दो-तीन होंगे। भारतवर्ष में जो ऊँचे हैं, वे बहुत ऊँचे हैं, जो नीचे हैं, उनकी निचाई का कोई आर-पार नहीं।” नयी सदी में पहुँच कर हम भी हम इस स्तर-भेद मिटाने में सफल नहीं हुए हैं। कई बार तो अन्तरजातीय विवाह के संदर्भ में घोर प्रगतिशील बुद्धजीवियों की अति घोर दकियानूसी प्रवृत्ति सामने आती है। द्विवेदी जी ने भारतवर्ष के समाज में जातियों का जितना समग्रतापरक अध्ययन किया है, उतना कम ही समाजशास्त्रियों ने किया है। उनका यह अध्ययन दलित विमर्श के वर्त्तमान आंदोलन को भी दिशा दे सकता है।

द्विवेदी जी के पन्यासों में उनकी विशेष इतिहास-दृष्टि का प्रतिपादन है, तथापि उन्होंने इनमें ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा नहीं की है। अति विराट् स्तर पर ऐतिहासिक तथ्य को सर्जनात्मकता में ढालने की कला ’चारुचन्द्रलेख‘ में देखी जा सकती है। जन-शक्ति के संगठन की यह अद्भुत रचना हैं। इस उपन्यास का कथानक द्विवेदी जी के इतर अध्ययन का थी केन्द्र-बिंदु रहा है। ’मध्यकालीन धर्म-साधना‘ का अध्ययन ’चारुचन्द्रलेख‘ के समानान्तर ही संभव है। उनके इतिहास-दर्शन और साहित्य-दर्शन का सार लोकसंग्रह है जबकि अनेक मध्यकालीन धर्म-साधनाएँ लोक-विमुख थीं। इस उपन्यास के कुछ कथन देखिए : १. “उन बकवादी निठल्लों के चक्र में न पड़ो। ये बिगाड़ना जानते हैं, संवारना नहीं। इन्होंने व्यक्तिगत साधनाओं के द्वारा सत्य को खंडित किया है।”  २. “परित्यक्त शिशुओं और लांछित बंधुओं के क्रंदन और आह से वायुमंड़ल व्याप्त है, उस समय भी क्या सहज समाध संभव है?” ३. “माया को घनीभूत करने का ढोंग करने वाले लोग माया के सब से मजबूत वाहन सिद्ध हुए हैं।... सिद्धियाँ मानव को कुछ विशेष बल नहीं देतीं। एक साधारण किसान, जिसम दया-माया है, सच-झूठ का विवेक है, और और बाहर-भीतर एकाकार है, वह भी बड़े से बड़े सिद्ध से ऊँचा है।” ४. “सिद्धयाँ मानव को पशु, पक्षी, अजगर, प्रेत बना दें, किंतु मनुष्य को मनुष्य बनाने में तब तक सहायक न होंगी, जब तक सहज शरीरधर्मों को ही परम लक्ष्य समझा जाता रहेगा।” ५. “साधरण प्रजा हमें सिद्ध समझती है, वह श्रद्धा से नहीं भय से पूजा करती है। आज आततायी के खड्गाघात से सिद्धियों का सारा खिलवाड़ टूट कर गिर गया है।”

ये कथन उस अंध-काल में उठने वाले प्रश्नों पर सार्थक टिप्पणियाँ तो हैं ही, उस समूचे विशृंखल परिवेश पर भी टिप्पणियाँ हैं, जिसका स्वरूप लगभग ऐसा थाः “चंद्रलेखा का सिंहवाहिनी, महिषमर्दिनी और जनपद पार्वती रूप दो नावों पर एक साथ सवारी करने से कीलित होकर मानवीय भूमि से स्खलित हो गया है। सातवाहन साक्षात शक्ति से विच्युत होकर निःशक्त हो गये हैं। रानी से प्रेरित होकर भी विद्याधर ग्रहकक्षाओं के असत्य व्यापार में भ्रमित है । सिद्धयोगी गोरख-प्रचारित योगसाधना से अपसृत होकर मांसंपिंड नारी के विनोदन में षोडशी कुलकन्याओं की सिद्धि में, पंचमकार, पंच पवित्र ओर चतुश्चंद्र की निर्वीर्य साधनाओं में लीन होकर सामाजिक कल्याण से उपरत है। सारे जगत को भूल कर व्यष्टि-मुक्ति की चिंता के कारण कल्याणाभिनिवेश कुंचित हो गया है। संगठित होकर धर्म-संप्रदाय जनता को आतंकित कर रहे हैं, ...।” यदि कान लगा कर सुनें तो इन विडंबनाओं की प्रतिध्वनियाँ आज भी हमारे चारों ओर गूँज रही हैं।

प्रश्न उठता है कि इस विशृंखलता से दो-चार होने का उपाय क्या है? द्विवेदी जी न वह उपाय इतिहास के अनुभव से ही प्रस्तुत किया है। वे जानते हैं कि जन-जागृति के बिना परिवर्तन संभव नहीं क्योंकि “राजाओं, राजपुत्रों और देवपुत्रों की आशा पर निश्चेष्ट बने रहने का निश्चित परिणाम पराभव है।” स्वतंत्रता के पश्चात् भी हम कुछ पुराने राजाओं और कुछ नए सामंतों के हाथों में देश की बागडोर सौंप कर निश्चिंत हो गये हैं। बीच-बीच में ’देवपुत्रों‘ की कृपा का फल भी जनता चखती रही है। इसका परिणाम आज हम देख ही रहे हैं। प्रजाजन ;!द्ध की आज जो स्थिति है, वह इन नए राजाओं, राजपुत्रों और देवपुत्रों के भरोसे बदलने वाली नहीं है। यदि वह बदलेगी तो विराट् जन-जागृति से ही!

भारत का पिछली अनेक शताब्दियों का इतिहास राजनैतिक पराजय का ही नहीं, जनता के पराभव का भी करुण आख्यान रहा है। इस पराजय की जड़ें बहुत गहरी हैं। राजनैतिक पराजय सामाजिक मनोबल के टूटने की अन्तिम परिणति होती है और सामाजिक मनोबल के टूटने का कारण है -- बिखराव, व्यक्तियों के स्वार्थ के कारण समूह के कल्याण की उपेक्षा। भारतीय जनमानस की नैतिकता के बल को मध्यकाल में प्रचलित सामाजिक विकृतियों ने भी तोड़ा है। नैतिक बल शौर्य का आधार होता है और नपुंसक कायरता लज्जाजनक हिंसा को जनम देती है। ’चारुचन्द्रलेख‘ टूटते-बिखरते मध्यकालीन समाज की मानसिक टूटन का और शेष शक्तियों को संयमित कर सम्पूर्ण बल के साथ विरोधों के सामने डटने के संकल्प का महाकाव्यात्मक निरूपण है। सातवाहन के रूप में युद्धरत भारतीय शक्ति आगे चलकर अपनी अन्तःप्रेरणाओं को खोकर गरिमाच्युत होती है, लेकिन आचार्य जी ने इस अतीत -- इस इतिहास का निरपेक्ष चित्रण नहीं किया है बल्कि उसके माध्यम से वह उद्‌बोध्नात्मक ऊर्जा प्रवाहित की है, जो किसी जाति के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। ’चारुचन्द्रलेख‘  के एक-एक पृष्ठ से आह्वान का स्वर गुंजित होता है, जो पाठक में अदम्य उत्साह का संचार करता है। यह है इस आह्वान का स्वर : ’सूर्य-चन्द्र और अग्नि के पुत्रो, क्या बेखबर सो रहे हो? धरती कसमसा उठी है, नगाधिराज की पथरीली धरती में दरार पड़ती दिखाई दे रही है, गंगा-जमना की शीतल धारा सूखती नजर आ रही है। किस दिन तुम्हारा तेज काम आएगा? किस दिन के लिए इस पवित्र धरती ने अन्न उड़ेल-उड़ेल कर तुम्हारा पालन किया था? उठो, जागो, एक हो जाओ।’ एक हो जाना कब से भारत की बहुत बडी समस्या रही है!

गुप्तकालीन इतिहास से सम्बद्ध उपन्यास ’पुनर्नवा‘ में घटनात्मक एवं पात्रात्मक विस्तार अधिक है। देवरात एवं मृणालमंजरी के अभिजात एवं उदात्त परिणय से प्रारंभ होने वाली यह रचना लोक-आख्यान के नायक गोपाल को अपना केन्द्र-बिन्दु बना लेती है। आभीर संस्कृति का मूर्त्त चित्र उकेरती हुई यह कृति आततायी एवं दुर्दम शक्तियों से नैतिक शौर्य के संघर्ष की महा-गाथा को युग-संदर्भ के साथ उद्‌घाटित करती है। यह परम्परा का आख्यान ही नहीं है, इसमें परिवर्त्तमान सामाजिकता के प्रगतिशील मूल्यों की अभिव्यक्ति भी है। यह उपन्यास समाज के प्रत्येक वर्ग का विराट् फलक पर चित्रण करता है।

’अनामदास का पोथा‘ रूढ़ रूप में ऐतिहासिक नहीं है लेकिन भारतीय वैदिक एवं पौराणिक साहित्य का एक अपना इतिहास-बोध है जिसके अनुरूप ही सुदूर अतीत से छान्दोग्य-उपनिषद् की यह गाथा एक राष्ट्र के सांस्कृतिक इतिहास से जुड़ी हुई है। प्रत्यक्ष रूप में यह रैक्व की वैयक्तिक गाथा प्रतीत होती हैं परन्तु गहन स्तर पर यह एक पूरी सामाजिक व्यवस्था को समेटे है। इस व्यवस्था का आदर्श है – ’प्रकृति को सुनियन्त्रित रूप में चलाने का नाम ही संस्कृति है। संतान-परंपरा को नष्ट न होने देना - प्रजातंत्र या व्यवच्छेसी।’ इसके अतिरिक्त इसमें गहरा यथार्थ-बोध भी है। रैक्व की साधना अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचती है – ’मेरे पास अगर वह बुद्धि की परीक्षा लेने आएगी तो उसे गाड़ी खींच कर दीन-दुखियों तक खाद्य पहुँचाने को कहूँगा। इसी में उसकी बुद्धि की परीक्षा हो जाएगी। माँ, जो दीन-दुखियों की सेवा नहीं कर सका, वह क्या बुद्धि की परीक्षा करेगा। मैं अब थोड़ा-थोड़ा रहस्य समझने लगा हूँ। कोरी वाग्-वितंडा ज्ञान नहीं है।’ स्पष्टतः आचार्य जी ने वाग्-वितंडा के लिए ये ऐतिहासिक पोथियाँ नहीं रचीं बल्कि वे ऐतिहासिक ज्ञान के सहारे जीवन-अम्बुध में बहुत गहरे उतरे हैं। १९४०-५० के आसपास शोषण के प्रतिकार का साहित्य रचने का दावा तो बहुतों ने किया, पर संवेदना की आँच ’निराला‘, केदारनाथ अग्रवाल अथवा नागार्जुन जैसे गिने-चुने रचनाकारों में ही थी। निस्संदेह वह आँच आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंधों और उपन्यासों में मौजूद है। गाड़ी खींच कर दीन-दुखियों तक खाद्य पहुँचाने वाला रैक्व कामज्वर से पीड़त भी हुआ है पर जब वह संसार की सबसे बड़ी व्याधि से -- भूख से परिचत होता है तो वह ’उसकी बुद्धि की परीक्षक‘ और अनुराग की आधार शुभा को भी दीन-दुखियों की सेवा में प्रवृत्त करता हैं।   

बीसवीं शताब्दी में आधुनिकता-बोध की चर्चा विशेष-रूप से होती रही पर अधिकांश के लिए आधुनिकता-बोध संकीर्ण यथार्थ और परम्परा की अस्वीकृति से भिन्न नहीं रहा, जबकि द्विवेदी जी के लेखन में (उनके उपन्यासों में विशेषकर) आधुनिकता-बोध का स्वस्थ रूप उपलब्ध होता है। उन्होंने परम्परा से जुड़ कर इतिहास का विश्लेषण। लेकिन उनके द्वारा निरूपित परम्परा एवं विश्लेषित इतिहास आधुनिक संवेदना के साथ दृढ़ता के साथ अन्तर्ग्रन्थित है। उनका इतिहास-बोध मूल्य-निरपेक्ष तथ्यों के आकलन की अपेक्षा जिजीविषा की परम्परा में अभिव्यक्ति पाता है और जीवन के नैरन्तर्य की पुष्टि करता है। गत दो शताब्दियों में भारतीय मनीषा और जनसमुदाय को एक तीव्र बौद्धिक आलोड़न के बीच से गुजरना पड़ा है। ’स्व‘ को पहचान कर उसे वर्तमान में अस्तित्वमय रखना इसकी सबसे बड़ी समस्या रही है और इस समस्या का समाधान मिल पाया है, इतिहास-बोध से। द्विवेदी जी की व्युत्पन्न सिसृक्षा ने आधुनिक संवेदना को सही रूप में अिव्यक्त करने के लिए अपने उन्यासों क सांस्कृतिक-सामाजिक इतिहास के साथ से जोड़ा है। उन्होंने यदि ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में वैयक्तिक जागरूकता को अभय का मंत्र दिया है तो ’चारुचन्द्रलेख‘ में राष्ट्रीय एवं सामाजिक गरिमा को बनाए रखने का मार्ग दिखलाया है। ’पुनर्नवा‘ में जीवन के उदात्त आदर्शों की स्थापना और व्यवस्था-परिमार्जन पर बल दिया गया है। ’पोथा‘ में शास्त्र-ज्ञान की अपेक्षा लोकवेद की प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता के सही अर्थों का उद्‌घाटन किया गया है। इन उपन्यासों में मध्यकालीन धर्म-साधना की विकृतियों का खुलासा कर नारी की गरिमा तथा संघर्ष को मुखरित किया है।

द्विवेदी जी के उपन्यासों में ऐतिहासिकता के तत्त्वतः दो रूप हैं। एक रूप सम्बद्ध युगों के आचार-विचार, सामाजिक रूढ़ियों-रीतियों, धर्म-साधना, उपासना-पद्धति, पारिवारिक परिवेश तथा सभ्यता आदि के सजीव चित्रण का है। दूसरा वह रूप है, जहाँ वे संस्कृति-प्रवाह तथा विचार-प्रवाह के माध्यम  से अतीत से जुड़ते तो हैं पर अंततः उनका इतिहास-बोध अतीतातीत होकर वर्तमान के भविष्य का निर्माण करने वाली शक्ति बन कर अवतरित होता है। यह रचनात्मक शक्ति ही द्विवेदी जी द्वारा की गई इतिहास की शव-साधना की उपलब्ध है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ऐतिहासिकता का कोई भी रूप उनके उपन्यासों की कला में व्याघातक बना है। औपन्यासिकता पर इतिहास कहीं हावी नहीं हुआ। कहीं भी साहित्य को इतिहास के सामने छोटा नहीं होना पड़ा। न ’शब्दार्थ का साहित्य‘ कहीं खंडित हुआ है, न ही ’लोकोत्तर आनन्द‘ कहीं बाधित हुआ है। ’निविड़-निज-मोह-संकट‘ का निवारण भी द्विवेदी जी के उपन्यासों में बखूबी हुआ है पर इनसे बढ़ कर महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उनके उपन्यासों का शिल्प हर दृष्टि से आधुनिक भी है। इसका कारण द्विवेदी जी के व्यक्तित्व में परम्परा और आधुनिकता का संतुलन है। भारतीय काव्यशास्त्र की समृद्ध परम्परा से तो उन्होंने स्वयं को जोड़ा ही है। उसके अधुनातन विकास से भी वे परे नहीं है। आज के साहित्य के पूर्व पर्याय ’काव्य‘ को ग्रहण कर ही वे उपन्यास-रचना में संलग्न होते हैं, इसी से उनमें पाश्चात्य पद्धति के औपन्यासिक तत्त्वों के निर्वाह के साथ-साथ भारतीय नाट्य-तत्त्वों का संश्लिष्ट संगुफन हैं। ’अनामदास का पोथा‘ इस दृष्टि से सर्वाधिक नाट्य-तत्त्वों से सम्पन्न है जबकि ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में महाकाव्यात्मक तत्त्व अधिक प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं। गत दिनों ’राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तथा कई अन्य संस्थाओं द्वारा ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ तथा ’अनामदास का पोथा‘ का सफल मंचन इन उपन्यासों में निहित नाट्य-तत्त्वों एवं महाकाव्यात्मक तत्त्वों के कारण भी संभव हुआ है। कथ्य की दृष्टि से इन उपन्यासों की सफलता के मूल में इनकी ऐतिहासिकता का वह चिर आस्थामय स्वरूप है, जिसने अपने आराध्य को, अपने पूज्य को इन्होंने क्षण भर के लिए भी आँखों से ओझल नहीं होने दिया। वास्तव में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का आराध्य देव साधरण मनुष्य है! उनके लिए भट्टिनी की गरिमा अतुलनीय है पर निपुणिका की करुणा भी साधरण नहीं। ’चन्द्रलेखा‘ महान् है पर मैना का औदार्य भी असीम है। ’पुनर्नवा‘ की मृणालमंजरी या मंजुला ने नारी के महत्त्व को दृष्टि-वृत्त से बाहर नहीं किया है और ’अनामदास का पोथा‘ का रैक्व तो भूखे, नंगे, ’दरिद्रों‘ के अस्तित्व के कारण समाधि तक नहीं लगा पाया। ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में आए कुमार कृष्णवर्धन का यह कथन द्विवेदी जी के उपन्यासों के इतिहा-बोध की सही पहचान कराता हैः ’इतिहास साक्षी है कि देखी-सुनी बात को ज्यों का त्यों कह देना या मान लेना सत्य नहीं है। सत्य वह है, जिससे लोक का आत्यंतिक कल्याण होता है, ऊपर से वह जैसा भी झूठ क्यों न दिखाई देता हो दिखाई देता हो, वही सत्य है। लोक अथवा जन-कल्याण प्रधन वस्तु है। वह जिससे सधता हो वही सत्य है।’  स्पष्टतः आचार्य द्विवेदी न अने इतर साहित्य की तरह उपन्यासों में भी एक ही देवता की पूजा की है, वह देवता है, साधरण मानव! उनके उपन्यासों के इतिहास-बोध का भी यही सार है! उनका स्पष्ट कथन हैः “मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ, जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, उसके हृदय को परदुःख कातर और संवेदनशील न बना सके उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।”

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