आज़ादी

दिनेश शर्मा  (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

आज़ादी के पुनीत यज्ञ में 
बन समिधा न जले होते 
परतंत्रता के चक्रव्यूह से 
अब तक ना निकले होते 
 
देश धर्म पर हो बलिहारी 
अगणित बलिदान दिए तुमने 
संघर्ष और आंदोलन भी 
सालों साल किए तुमने 
आज़ादी के सपने तेरी 
आँखों में न पले होते 
परतंत्रता के चक्रव्यूह से . . .
 
भारत माँ का रूप सदा 
तेरे उर में बसता था 
फाँसी का फंदा तुमको 
वरमाला सा लगता था 
आज़ादी दुल्हन के सपने 
मन में ना पले होते 
परतंत्रता के चक्रव्यूह से . . .
 
कड़ी-बेड़ियों ज़ंजीरों को 
तुमने समझा मोतीहार 
काला पानी दिखता था 
स्वर्णिम देवलोक का द्वार 
जान हथेली पर लेकर
मंज़िल को न चले होते 
परतंत्रता के चक्रव्यूह से . . .
 
स्वतंत्रता की वेदी पर 
चढ़ा नर-मुंडों की माला 
रणचंडी को भोग लगाया 
भरा रक्त का प्याला 
हव्य तेरा जीवन ना होता 
सब ने हाथ मले होते 
परतंत्रता के चक्रव्यूह से . . .
 
भारतवर्ष कृतज्ञ तुम्हारा 
गाता रहता गौरव गान 
हे असंख्य शहीदों तुमको 
करता है 'दिनेश' प्रणाम 
संस्कार तुम्हारे न मिलते 
कहो कैसे सँभले होते 
परतंत्रता के चक्रव्यूह से 
अब तक ना निकले हो . . .
 
आज़ादी के पुनीत यज्ञ में 
बन समिधा न जले होते 
परतंत्रता के चक्रव्यूह से 
अब तक ना निकले होते ।
 

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