मुक्तक :
कल मरे कुछ
और कल मर जाएँगे कुछ
चल पड़ा है 
रोज़ का यह सिलसिला

 

आँकड़े
बस बाँचते हैं
हो इकाई या दहाई
सैकड़ा या सैंकड़ों
हो गयी पहचान गायब
बस लाश कितनी, ये गिनो

 

क्या दुकालू
क्या समारु
और फुलबतिया कहाँ
बाँट लेंगे
सब उन्हें ऐसे घरों में
घट गए
कुछ नाम जिनसे।
 

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