उजास की आशा
स्वर्णलता ठन्नाविषादों के अँधियारे
तनहाइयों की दीवारें
और असंगत से लगने वाले
प्रश्नों की झड़ियाँ
इन सब के बीच
आशा के जुगनू
हौले-हौले से डोलते
भ्रमित मेरे आसपास
इस चाहत के साथ
स्पर्श मेरा
करें... न करें...।
क्या पता मेरे अंतस के
गहन अँधियारे में
धुएँ के सेतुओं से
आबद्ध हृदय छूकर
कहीं उनकी
जगमगाहट न खो जाए
कहीं वह भी
अपना अस्तित्व न खो दे
इसलिए
मँडराकर मेरे आसपास
लौट जाते हैं वे जुगनू
और मैं
ताकती रहती हूँ
उन्हें आते और जाते हुए
उनकी झिलमिलाहट के साथ
जो तनिक सी
रोशनी का आभास
मुझे होता था
वह भी छिन जाता है मुझसे
और मेरी आँखें
निस्तब्ध सी
घुप्प अंधकार में
भटकती रहती है
नये उजास की
आशा के साथ...।