रामनवमी का जुलूस
शिवानन्द झा चंचलवर्मा जी पिछल वर्ष रामनमवी के दिन बाज़ार जाने में हुई कठिनाइयों को स्मरण कर,अपनी पत्नी को साफ़ मना कर दिया कि आज किसी क़ीमत पर बाज़ार नहीं निकलूँगा। कल शॉपिंग करूँगा। लेकिन श्रीमती वर्मा की ज़िद के आगे वर्मा जी नें आत्मसमर्पण करते हुए, बाज़ार जाकर सामान लाने को तैयार हो गए। जैसे ही उनकी स्कूटर गली के मोड़ पहुँची उनके मन में उपजी आशंका सत्य प्रतीत होती दिखी। भगवा पट्टी(कपड़ा) माथे पर बाँधे युवाओं की भीड़, जिसमें नाबालिग़ बच्चे भी थे, की तलवारों के साथ गगनभेदी नारों की ध्वनि को सुनकर 'वर्मा जी' किसी-किसी तरह सड़क किनारे से साइड लेकर अपने गंतव्य तक पहुँचे। कार्य निबटा कर वापस आने के दौरान जैसे ही 'वर्मा जी' मोहल्ले के नुक्कड़ पर पहुँचे, वहाँ के दृश्य देखकर उनका माथा ठनक गया। हुआ यूँ कि मुर्गे की दुकान पर तीन-चार भगवा पट्टी धारी (सिर पर) युवक मीट तोलवा रहे थे। वर्मा जी नें अंदाज़ लगाया कि जुलूस के बाद ये लड़के शायद सिर पर बँधे भगवा पट्टी को उतारना भूल गये हैं। और इसी के साथ वर्मा जी को- रामनमवी के जुलूस की उन्मादी भीड़, गगनभेदी नारों और तलवार भांजते लड़कों के पीछे की सच्चाई मालूम हो गयी थी।